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कटाक्ष: हंगामा है क्यों बरपा, सरकार ही तो बनाई–गिराई है

वह दिन दूर नहीं जब देश भर में एक रेट हो जाएगा– एक देश, एक रेट। एमआरपी तय होना बहुत जरूरी है, विधायकों की भी और सांसदों की भी।
cartoon maharashtra
तस्वीर प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। कार्टून सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार

भई अडानी जी के साथ तो बहुत ही अन्याय हो रहा है। पहले भी बेबात उनके नाम पर हल्ला होता रहता था। बेचारे अवाई अड्डा खरीदें तो इसका शोर कि सारे हवाई अड्डे अडानी के नाम क्यों कर दिए। बंदरगाह खरीदें तो इस पर शोर कि सारे बंदरगाह एक ही बंदे के नाम क्यों कर दिए। बंदा सीमेंट में हाथ डाले तो शोर। बंदा धारावी के विकास में हाथ डाले तो शोर। और तो और बंदा किसानों को चार पैसे दिलाने के लिए, उनकी पैदावार खरीदने में हाथ डाले तो भी शोर और अनाज जमा कर के रखने के लिए साइलो बनाने में पैसा लगाए तो भी शोर। 

अगला खदान हथियाए, बिजली बनाए, कोयला विदेश से ढोकर लाए, हर चीज में शोर। खबरिया चैनल खरीदने में हाथ डालने तक पर नाहक शोर। और अब बेचारे के जरा सा सरकार बनवाने में हाथ डालने की कहानी क्या सामने आ गयी, मोदी जी के विरोधी ऐसे उछल रहे हैं जैसे भाड़ में से चने के दाने उछलते हैं।

और तथ्य क्या हैं? शरद पवार की पार्टी तोड़कर अलग हुए और एक बार फिर उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे एनसीपी नेता, अजित दादा ने एक पत्रकार को सिर्फ इतना बताया है कि 2019 में महाराष्ट्र  में सरकार बनवाने के लिए, अडानी जी के घर पर बैठक हुई थी। बैठक में अमित शाह मौजूद थे, शरद पवार मौजूद थे, अडानी मौजूद थे, देवेंद्र फड़नवीस मौजूद थे, अजित पवार मौजूद थे, सब मौजूद थे। बाद में शरद पवार ने भी इसकी पुष्टि की है कि अडानी के घर पर ऐसी बैठक हुई तो थी। बस विरोधी इतनी सी बात का बतंगड़ बना रहे हैं। महाराष्ट्र के चुनाव में इसको शोर मचा रहे हैं कि  मोदी जी की पार्टी और अडानी का रिश्ता क्या कहलाता है? 

2014 के चुनाव से पहले मोदी जी अडानी के हवाई जहाज में  देश भर में घूमते थे। 2014 के चुनाव के बाद से अडानी जी विदेश यात्राओं में भी मोदी जी के आगे-पीछे घूमते हैं। सीबीआई-ईडी वगैरह भी अडानी जी के आगे-पीछे घूमती हैं। कभी सीबीआई-ईडी आगे तो अडानी पीछे, कभी सीबीआई-ईडी पीछे तो अडानी आगे। पर अब तो अडानी जी सीधे अपनी मर्जी की सरकारें बनवा रहे हैं, विरोधियों की सरकारें गिरवा रहे हैं, वगैरह, वगैरह।

पर ये सारे इल्जाम गलत हैं। हिंडनबर्ग रिपोर्ट के आरोपों जितने ही गलत। कोई प्रमाण ही नहीं है, किसी गड़बड़ी का। सुप्रीम कोर्ट तक ने क्लीन चिट दे रखी है। बात सिर्फ इतनी थी कि सत्ता के भूखे राजनीतिक नेताओं के लिए, अडानी जी ने भोजन की व्यवस्था की थी और वह भी एकदम निजी हैसियत से, अपने आवास पर। अब भूखे को भोजन कराना सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। जिन्होंने सेकुलरिज्म की पढ़ाई पढ़ी है, वो नहीं समझेंगे, पर भारतीय परंपरा में तो इसे ही सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। दान-पुण्य की परंपरा तो वैसे सभी सेठों के खून में ही होती है। चाहे कितनी ही कसरत से पैसा कमाओ, पर कमाई में से दो पैसा दान-पुण्य के कामों पर जरूर लगाओ। नये जमाने में इसे सोशल रिस्पांसिबिलिटी फंड कहते हैं। मोदी जी अगर अस्सी करोड़ लोगों को अनाज देकर उनका पेट भर सकते हैं, तो क्या अडानी जी आधा दर्जन राजनीतिक नेताओं का पेट नहीं भर सकते हैं? मोदी जी अस्सी करोड़ को भोजन कराएं तो लाभार्थी लीला और अडानी जी आधा दर्जन नेताओं को भोजन कराएं तो करैक्टर ढीला।

यह तो हुई भोजन की बात। इसके अलावा किसी बात का कोई साक्ष्य छोड़ो, अजित पवार या शरद पवार ने दावा तक नहीं किया है। अडानी का अन्न होने से क्या हुआ, मन तो बाकी नेता लोग का था? सरकार बनाने की बातचीत में अडानी जी ने कोई बोली लगाई हो, ऑफर दिया हो, सुझाव तक दिया हो, इसका कोई जिक्र नहीं है। फिर हंगामा है क्यों बरपा...? अडानी जी क्या इस देश के नागरिक नहीं हैं? क्या देश का संविधान अडानी जी को बाकी नागरिकों के समान अपनी मर्जी की सरकार बनवाने का अधिकार नहीं देता है? 

ऐसी डेमोक्रेसी किस काम की जिसमें एक नागरिक को अपनी मर्जी की सरकार बनवाने का अधिकार ही नहीं हो। हरेक नागरिक अपनी-अपनी औकात के हिसाब से अपनी मर्जी की सरकार बनाने की कोशिश करता है। कोई वोट डालकर, तो कोई दूसरों का वोट छीनकर और कोई वोट से चुने जाने वालों को फुटकर, तो कोई थोक में खरीदकर। बंदे को भी अपनी मर्जी की सरकार बनवाने का, कोई दूसरी सरकार बन जाए तो उसे गिराने का, आदि, आदि जनतांत्रिक अधिकार है।

वैसे भी इसमें प्राब्लम क्या है? जिसके पास जो कुछ है, मदर ऑफ  डेमोक्रेसी जी की सेवा में लगा रहा है। जिसके पास वोट है, वोट लगा रहा है, जिसके पास नोटों के गट्ठर हैं, वह नोटों के गट्ठर लगा रहा है। टैंपो में भर-भरकर नोटों के बोरे! क्या जरूरी है कि अगला पिछले दरवाजे से ही पैसा पहुंचाए, फिर भले ही पैसा अगले दरवाजे से बांटा जाए? चुनावी बांड आखिरी, कोशिश थी। बस अब और नहीं। बहुत साल हुआ यह छुपम-छुपाई का खेल। अब और नहीं। अब बिल्कुल भी नहीं। अब तो जो कुछ भी है खुले-खजाने है। पारदर्शिता वक्त की पुकार है। 

सुना है विधायकों के लिए पचास खोखा का रेट तय हो गया है, पश्चिम से दक्षिण तक। उत्तर से पूर्व तक को इस रेट के दायरे में लाना होगा। वह दिन दूर नहीं जब देश भर में एक रेट हो जाएगा--एक देश, एक रेट। एमआरपी तय होना बहुत जरूरी है, विधायकों की भी और सांसदों की भी।

और जो बोली लगाएगा, माल को ठोक बजाकर देखकर ही बोली लगाएगा। बाजार का कायदा भी तो एक चीज है। खरीददार, माल देख-परखकर ही खरीदता है। हमेशा सौदा कोई एजेंट ही क्यों पटाए। सौदा बड़ा हो तो क्यों न मालिक खुद बोली बोलने की रिंग में उतर जाए। अपना हाथ जगन्नाथ। आखिर, आत्मनिर्भरता भी तो एक चीज होती है। जिसे अडानी जी का यह जनतांत्रिक अधिकार मंजूर नहीं हो, वह अर्बन नक्सल! अंबेडकर ने लिखी हो तो क्या, लाल किताब तो लाल किताब ही होती है, जी!

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

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