साल 2020 का मई दिवस : श्रमिक महज़ वायरस से ही नहीं लड़ रहे, बल्कि एक निर्दयी पूंजीवादी व्यवस्था से भी लड़ रहे हैं
1889 के बाद पहली बार, जब 1 मई को श्रमिक वर्ग की अंतर्राष्ट्रीय एकता या मई दिवस के रूप में घोषित किया गया था, तबसे हर साल आने वाले इस दिन का यह पहला मौक़ा है, जब मई दिवस मौन के साथ मनाया जा रहा है। दुनिया भर में 4.5 बिलियन (अरब) से अधिक लोग इस समय COVID-19 महामारी के प्रसार को रोकने को लेकर किसी न किसी तरह के प्रतिबंधों के तहत जी रहे हैं, किसी एक जगह इकट्ठा होने पर रोक लगी हुई है।
जिन जगहों पर इस तरह के प्रतिबंधों में कुछ हद तक ढील दे दी गयी है, या अभी तक इस तरह के प्रतिबंधों की ज़रूरत नहीं पड़ी है, उन जगहों पर भी इस नोवल कोरोना वायरस को लेकर व्यापक डर है। भारत में सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने प्रतिबंधों के भीतर रहकर मई दिवस मनाने का आह्वान किया है, जिसका मतलब यह है कि लोग केवल अपने घरों के बाहर झंडे फहरायेंगे, और तख्तियां या संदेश लिखे पोस्टर चिपकायेंगे।
लेकिन, यह विडंबना ही है,क्योंकि वास्तव में 2020 के इस मई दिवस की दो अनूठी ख़ासियत है। एक तो यह कि इस समय दुनिया भर में श्रमिक वर्ग अपने जीवन और आजीविका, दोनों को लेकर एक अभूतपूर्व हमले का सामना कर रहा है। दूसरी बात कि श्रमिकों के बीच समान रूप से अभूतपूर्व एकजुटता दिखायी पड़ रही है, जो इस दौर में लगातार मज़बूत होती जा रही है।
कामगार वर्ग पर बर्बर हमले
मिसाल के तौर पर भारत को ही लें। पहले से ही विनाशकारी मंदी के हवाले हो चुकी अर्थव्यवस्था में व्यापक रूप से नौकरियां जा रहीं थी, आय और उपभोग व्यय में गिरावट आ रही थी और ऊपर से बेरोज़गारी का उच्च स्तर बना हुआ था। भले ही नरेंद्र मोदी सरकार इस आर्थिक संकट से निपटने के लिए अपने बदनाम नवउदारवादी उपायों से हल पाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन इसने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों को पैदा किया था। सरकार द्वारा अपनाये गये उपायों में कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का निजीकरण, अर्थव्यवस्था के ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रों के दरवाज़े को लुटेरी विदेशी पूंजी के लिए खोल देना, और श्रमिकों के शोषण को और तेज़ करने के वाले श्रम क़ानूनों को बदल देना शामिल है। ज़ाहिर तौर पर इन उपायों से हालात और भी खराब ही हुए हैं।
इसके बाद, COVID-19 महामारी का ख़तरा चारों तरफ़ मंडराने लगा और यह वायरस दुनिया भर में तेज़ी से फैलने लगा। चार महीनों के भीतर, हर देश को मिलाकर करीब 32 लाख से ज़्यादा लोग इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं, और दसियों हज़ार लोग मारे जा चुके हैं। 30 जनवरी को भारत में पहला मामला सामने आने के बाद से मोदी सरकार 50 दिनों तक बिना कोई काम किये हुए इधर-उधर की बातें करती रही और अचानक उसने 25 मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान कर दिया।
कॉरपोरेट वर्गों की तरफ़ से पड़ते दबाव के बावजूद राजनीतिक रूप से नुकसान पहुंचने की आशंका के मद्देनज़र सरकार ने ऐलान किया कि लॉकडाउन अवधि में वेतन का भुगतान किया जाये और किसी भी कर्मचारी को नौकरी से नहीं निकाला जाये। लेकिन, यह ऐलान सिर्फ़ काग़ज़ पर रहा, क्योंकि असल में धरातल पर जो कुछ हुआ, वह उस ऐलान के ठीक उलट था। क़रीब-क़रीब देश भर में समान रूप से लाखों श्रमिकों को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया, और तनख़्वाह में कटौती कर दी गयी या फिर वेतन पूरी तरह से रोक दिया गया। यह श्रमिकों पर सबसे नग्न और विनाशकारी हमला था, लेकिन ऐसा नहीं कि इतने पर ही सबकुछ रुक गया हो।
इसके बाद, मोदी सरकार कॉरपोरेट वर्गों के दबाव में उन श्रम क़ानून में अहम बदलाव के ज़रिये आगे बढ़ने पर विचार कर रही है, जो नियोक्ताओं के पक्ष में संतुलन को पूरी तरह से झुका देगा, बेसहारा श्रमिकों को उनकी दया पर छोड़ दिया जायेगा। इन बदलावों में मौजूदा कार्य दिवस के 8 घंटे के बजाय बढ़ाकर 12 घंटे (पहले से ही कुछ राज्यों में लागू काम के घंटे) करने, सरकारी कर्मचारियों और पेंशनभोगियों के महंगाई भत्ते (डीए) को वापस लेने, भविष्य निधि जमाओं पर ब्याज दर में कटौती करने, फ़ास्ट-ट्रैक लेबर कोड, जिसके अब तक मौजूद कई सुरक्षात्मक उपायों को हटा दिया जायेगा, और इसी तरह के कई दूसरे अपुष्ट प्रस्ताव शामिल हैं।
दूसरी ओर, इस "कठिन वक्त" में कॉर्पोरेटों को दी जाने वाली अनेक तरह की रियायतें जारी हैं, जिसमें कर भुगतान में छूट, विशिष्ट क्षेत्रों को बेल ऑउट पैकेज दिये जाने के लिए कोष की स्थापना, बैंकों से ऋण में सहूलियत, उनके द्वारा लिये गये ऋण को बट्टे-खाते में डालना आदि शामिल हैं।
इस महामारी के दौरान भारत सरकार श्रमिकों के साथ जिस तरह से निपटने की कोशिश कर रही है, उस तरह के उपायों को अलग-अलग स्तर के साथ दुनिया भर में दोहराया जा सकता है। विकसित देशों और भारत के बीच फ़र्क़ यही है कि विकसित देशों के पास ज़्यादातर सामाजिक सुरक्षा बेरोज़गारी लाभ, चिकित्सा कवर, पेंशन आदि के कुछ रूप में जारी हैं, जबकि भारत में इस तरह का कवरेज यहां के कुल श्रमबल के 7-8% तक को ही सीमित है।
बाक़ी विशाल श्रमबल अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत है,जो इस समय एक अकल्पनीय दबाव का सामना कर रहा है, जिनमें से बहुत सारे लोगों की ज़िंदगी दांव पर लगी हुई है। वे जीवित रहने के लिए ग़ैर सरकारी संगठनों और सरकारी एजेंसियों की तरफ़ से मिलने वाले रहम-ओ-क़रम पर निर्भर रहने के लिए मजबूर हैं। इस तरह,मोदी सरकार ने मज़दूर वर्ग को अपने घुटनों पर ला खड़ा कर दिया है, हालांकि यह सब कब तक चलेगा, किसी को कुछ भी पता नहीं है।
क़ुर्बान कर दिये जाने वाले प्यादे के रूप में श्रमिक
यहां एक और पहलू का ज़िक़्र ज़रूरी है, और वह पहलू है-वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई में क़ुर्बान कर दिये जाने वाले प्यादे के रूप में श्रमिकों का बेशर्म इस्तेमाल। भारत में स्वास्थ्य सेवा और पैरामेडिकल कर्मियों की विशाल फ़ौज इस समय वायरस से निपटने में सबसे आगे है। लाखों आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता रोज़ाना गांवों में लोगों से मिल रहे हैं, और संक्रमित होने के जोखिम के बीच लोगों की मदद करना जारी रखे हुए हैं।
अस्पतालों में नर्स, अन्य स्वास्थ्य कर्मी भी काफी जोखिम उठाकर अपने-अपने कार्य कर रहे हैं। ऐसा ही स्वच्छता कर्मचारी और दूसरे ज़रूरी सेवा मुहैया कराने वाले लोग भी कर रहे हैं। मोदी और मीडिया की तरफ़ से इनकी तारीफ़ के कसीदे काढ़े जाने के बावजूद, सही मायने में उनमें से ज़्यादा उचित सुरक्षा के बिना ही काम में लगे हुए हैं। पीपीई या व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की ख़रीद और हर स्वास्थ्य कर्मचारी के इन सुरक्षात्मक उपकरणों के इस्तेमाल करने को लेकर सरकार का रवैया उदासीन है और इसी तरह, सरकार की अन्य नीतियों में भी श्रमिकों और कर्मचारियों को लेकर जो रवैया अपनाया जा रहा है, वह भी उतना ही उदासीन है।
कॉर्पोरेट मालिकों के दबाव में कुछ हिस्सों में स्थित उद्योगों के खोले जाने के प्रस्ताव में भी इस रवैये की झलक मिलती है। यह सुनिश्चित करने के लिए कोई सख़्त प्रक्रिया नहीं है कि ऐसे कर्मचारी वायरस के संपर्क में आये बिना सुरक्षित रूप से काम कर पायें। कॉरपोरेट नेतृत्व और सरकार दोनों को पता है कि श्रमिक ख़ुद का मोलभाव करने की स्थिति में नहीं हैं, इस अवधि के दौरान अपना जीवन चलाने के लिए उनके पास किसी तरह की कोई बचत भी नहीं है। और लॉकडाउन अवधि के दौरान पूरी मज़दूरी दिये जाने का वादा किया गया था, वह तो शुरू से ही एक बेजान वादे की तरह दिख रहा था।
कामगारों के बीच बढ़ती एकजुटता
इस मई दिवस पर, इस महामारी से जुड़े संकट के बीच भी जो दिखायी पड़ती है, वह आशा और ऊर्जा की एक किरण है, और यह किरण संघर्षरत श्रमिकों के बीच से निकल रही है। आशा और उम्मीद की यह रौशनी एकजुटता और एक दूसरे का ख़्याल रखने की भावना और सामान्य उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ एकता में निहित है।
मोदी सरकार के लॉकडाउन के ऐलान के बाद, अचानक सड़कों पर श्रमिकों की बाढ़ आ गयी थी, क्योंकि लाखों प्रवासी श्रमिकों ने घर वापस जान की कोशिश की, ऐसा उन्होंने इसलिए किया, क्योंकि उनके पास न पैसे थे, न नौकरी थी, और न ही रहने के लिए जगह थी।
यह तो उस बर्फ़ के पहाड़ का महज एक सिरा था, क्योंकि उसी हालात में लाखों और लोग थे, जो घर में रहने लिए मजबूर थे। इनमें कूड़ा बीनने वाले और अनौपचारिक क्षेत्र के सेवा मुहैया कराने वालों से लेकर कारखाने के कर्मचारियों या दुकान/दफ़्तर के कर्मचारियों तक की एक पूरी श्रृंखला शामिल थी। सबसे संकटग्रस्त वर्गों में से कई तो लॉकडाउन लगने के कुछ ही दिनों के भीतर भुखमरी के कगार पर थे।
लेकिन, यही वे हालात थे, जिनकी वजह से श्रमिकों के बीच की एकजुटता सामने आयी। मसलन, एक प्रमुख ट्रेड यूनियन, सीटू ने ऐसे संकटग्रस्त श्रमिकों को तत्काल राहत सामग्री मुहैया कराने के लिए लोगों से आह्वान किया। सीटू नेता ने कहा कि इस आह्वान के एवज में जो प्रतिक्रिया मिली, वह "आंखें खोल देने वाली" थी। देश भर से क़रीब-क़रीब 1 करोड़ रुपये एकत्र किये गये और इसका इस्तेमाल तुरंत चावल, दाल, नमक, खाना पकाने के तेल आदि ख़रीदने के लिए किया गया और देश के प्रत्येक राज्य में श्रमिक परिवारों को वितरित कर दिया गया। मध्यम वर्ग के कई लोगों ने भी इसके लिए नक़द और खाने पीने के सामान दिये, लेकिन हज़ारों श्रमिकों ने संकटग्रस्त अपने भाइयों और बहनों को मदद करने के लिए छोटी मात्रा में ही सही, मगर योगदान दिया।
राशन, मज़दूरी, नौकरी और सुरक्षा उपकरण की मांग करने वाले श्रमिकों की अनदेखी करने वाली सरकारी नीतियों के ख़िलाफ़ 21 अप्रैल को पहली बार बुलाये गये विरोध दिवस में श्रमिकों के बीच बढ़ती एकता और भावना भी दिखायी दे रही थी।
दुनिया भर से इसी तरह के उदाहरण अलग-अलग रूपों, अलग-अलग तरीकों में श्रमिकों की वह एकजुटता दिखायी देती है,जो उनके और दूसरों के बीच स्वाभाविक रूप से मौजूद है। वे इस बात को भी महसूस कर रहे हैं कि इस महामारी में वर्गों के बीच भी भेदभाव बरता जा रहा है। अमीर और मालदार लोग इस महामारी में अलग तरह से रह रहे हैं और महामरी से निपट रहे हैं, जबकि इसी महामारी में कामगार और किसान दूसरे तरीक़े से रह रहे हैं और महामारी से निपटने का तरीक़ा भी मालदारों से अलग है।
इस तरह, साल 2020 के इस मई दिवस पर दुनिया भर के श्रमिक अपने जीवन के एक बेहद कठिन समय को याद करेंगे, लेकिन वे अपनी बढ़ती एकता और एकजुटता को भी याद रखेंगे और इसी के साथ और मुखर होकर आगे बढ़ेंगे।
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