मोरबी पुल हादसा: वे ज़रूरी सवाल जो बताते हैं कि गुनहगार गुजरात सरकार है
गुजरात के मोरबी में झूलता हुआ पुल टूटने की वजह से 135 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई है। इसमें 50 से ज्यादा बच्चे शामिल हैं।
यह पुल 143 साल पुराना था। इसकी चौड़ाई 1.25 मीटर (4.6 फीट) है। यानी करीब इतनी ही कि दो लोग आमने-सामने से गुजर सकें। इसकी लंबाई 233 मीटर (765 फीट) थी।
ऐसे हादसों पर आम जनमानस की आदत है कि वह सब कुछ भगवान की मर्जी कहकर निकल जाता है। सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं समझता। सरकार और प्रशासन से सवाल नहीं पूछता। और इस मामले में तो आम लोगों पर ही ज़िम्मेदारी डालने की कोशिश हो रही है कि उनके हिलाने से पुल टूट गया। तो चलिए इस हादसे पर उन सवालों पर गौर करते हैं जो हर नागरिक को पूछने चाहिए—
- सबसे पहला सवाल तो यही बनता है कि मरम्मत के बाद केवल चार दिन पुल इस्तेमाल हुआ, उसके बाद पुल टूट कैसे गया? क्या उन जरूरी जांच परीक्षाओं से पुल की मजबूती को परखा गया था या नहीं जो पुल इस्तेमाल करने से पहले की जानी चाहिए?
- नगरपालिका का कहना है कि नागरिकों के लिए पुल चालू करने के लिए कंपनी को मोरबी नगरपालिका से जरूरी फिटनेस सर्टिफिकेट हासिल करना चाहिए था। कंपनी ने यह हासिल नहीं किया। नगरपालिका की माने तो सवाल केवल पुल की मरम्मत करने वाली कंपनी से पूछा जाना चाहिए। मगर सवाल यह भी बनता है कि सवाल पुल की मरम्मत करने वाली कंपनी से ही क्यों होना चाहिए? नगरपालिका से क्यों नहीं होना चाहिए? क्या नगरपालिका का काम नहीं है कि वह सार्वजनिक सम्पतियों की देख रेख करे?
- सस्पेंशन पुल यानी झूला पुल को ऑपरेट करने के लिए ओरेवा कंपनी और मोरबी नगर पालिका के बीच मार्च 2022 को एग्रीमेंट हुआ था। इस एग्रीमेंट में लिखा है कि कंपनी टिकट की दर बढ़ा सकेगी, पुल का कॉमर्शियल इस्तेमाल कर सकेगी। सबसे गौर करने वाली बात यह लिखी है कि इसके परिचलान यानी ऑपरेशन में किसी तरह की सरकारी एजेंसी का दखल नहीं होगा। तीन पेज के एग्रीमेंट में इस बात का जिक्र कहीं नहीं है कि हादसा होने की स्थिति में कौन जिम्मेदार होगा? ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा एग्रीमेंट क्यों बनाया गया?
क्या भारतीय संविधान इस बात की इजाजत देता है कि सार्वजनिक सम्पतियों पर सरकार की कोई दखलंदाज़ी नहीं होगी? क्या भारतीय संविधान से निकलने वाली सीख के तहत यह कहा जा सकता है कि किसी पुल, सड़क, राजमार्ग के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं होगी?
- मोटे तौर पर देखा जाए तो संविधान के मुताबिक़ नियम क्या होना चाहिए? जब कोई सार्वजनिक संपत्ति प्राइवेट कंपनी को संचालन के लिए दी जाती है तो इसका मालिकाना हक सरकार के पास रहता है। जैसे हाईवे पर टोल वसूली निजी कंपनियां करती हैं, लेकिन रसीद राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के नाम से ही जारी की जाती है। मोरबी के सस्पेंशन ब्रिज के मामले में ऐसा नहीं था। पुल और टिकट दोनों पर मोरबी नगर पालिका का जिक्र तक नहीं था।
- ओरेवा ग्रुप के बारे में खबर आ रही है कि ओरेवा ग्रुप में इससे पहले इतना बड़ा काम कभी नहीं किया था। उसका काम घरों में अजंता की दीवार घड़ी लगाने तक सीमित था। तो पुल की मरम्मत जैसे काम का ठेका ओरेवा ग्रुप को कैसे मिल गया? क्या नगरपालिका ने यह चेक नहीं किया कि ओरेवा ग्रुप का कामकाज क्या है? क्या ओरेवा ग्रुप के पास सस्पेंशन ब्रिज की तकनीक और स्ट्रक्चर को जानने समझने की काबिलियत थी? क्या वाकई यह ग्रुप इस काम को करने लायक काबिलियत रखता था? क्या इस लापरवाही के लिए नागरपालिक पर सवाल नहीं खड़ा होना चाहिए?
- इस मामले को लेकर केस दर्ज किया गया है। एफआईआर में जिन 9 लोगों को गिरफ्तार किया, उनमें ओरेवा के दो मैनेजर, दो मजदूर, तीन सिक्योरिटी गार्ड और दो टिकट क्लर्क शामिल हैं। पुलिस की एफआईआर में ओरेवा ग्रुप के मालिक का जिक्र नहीं है। रिनोवेशन का काम संभालने वाली देव प्रकाश सलूशन का भी जिक्र नहीं है। केवल छोटे कर्मचारियों का जिक्र है। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार के एक भी अधिकारी का जिक्र नहीं है। नगरपालिका का जिक्र नहीं है। इसका क्या अर्थ लगाया जाए?
- मीडिया की खबरों से पता चलता है कि पुल पर 125 लोगों से ज्यादा की क्षमता नहीं थी। अगर दोनों तरफ से पैदल यात्री आते जाते तो 2 लोगों से ज्यादा आ जा नहीं पाते। वह भी एक दूसरे को छू कर जाते। तो ऐसा कैसे हुआ कि फूल पर तकरीबन 400 लोग चले गए? क्या केवल पैसा कमाने की लालच ने 135 जाने ले ली गईं?
- पुल के दोनों तरफ ओरेवा ग्रुप का बोर्ड लगा है। इसके सिवाय ऐसा कोई भी बोर्ड नहीं लगा है, जो यह बताता हो कि पुल की क्षमता कितनी होनी चाहिए? कितने लोगों से ज्यादा इस पर नहीं आ जा सकते हैं? अगर ऐसा बोर्ड लगा होता तो नागरिक खुद भी पुल पर चढ़ने से खुद को रोकते? खबरों से यह भी पता चलता है कि पुल के दोनों तरफ गार्ड भी मौजूद नहीं थे। इसका मतलब है कि सब कुछ केवल पैसा कमाने के लिहाज से किया जा रहा था। नागरिकों की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं की गई।
- गुजरात पुलिस ने कोर्ट में हलफनामा दायर कर यह जानकारी दी है कि रिनोवेशन के नाम पर पुल के लकड़ी के आधार को बदल दिया गया। इसकी जगह पर 4 लेयर वाले एलुमिनियम को लगा दिया गया। मगर केबल्स को नहीं बदला गया। यानी वजन पहले से बढ़ गया। मगर वजन के हिसाब से वजन को संभालने वाले केबल्स में तब्दीली नहीं की गई। इस वजह से पुल टूट गया। यह छोटी सी बात अगर हम जैसे आम पाठकों को समझ में आ सकती है। तो यह बात नगरपालिका के इंजीनियर को क्यों नहीं समझ में आई? प्रशासनिक अधिकारियों को क्यों नहीं समझ में आई? कहां पर पेच फंसा है?
- सबसे बड़ी बात कि ओरेवा ग्रुप और देव प्रकाश सलूशन के साथ अनुबंध करने में नगर पालिका शामिल हुई होगी। चूंकि यह सार्वजनिक संपत्ति का मसला है तो इसमें लोकल एडमिनिस्ट्रेशन भी शामिल हो जाता है। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट, सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस, पीडब्ल्यूडी के सीनियर इंजीनियर और राज्य सरकार के तमाम अधिकारी इसमें शामिल हो जाते हैं। तो ऐसे में इन सभी पर कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या 135 लोगों के मौत के दोषी यह लोग नहीं हैं?
इन सवालों को पढ़कर आप खुद सोचिए कि 135 लोगों की मौत भगवान की मर्जी, लोगों की अपनी लापरवाही से हुई है या यहां सरकार और प्रशासन गुनहगार है?
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