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नई श्रम संहिताओं के नव-उदारवादी हमले का विरोध क्यों ज़रूरी है

जहां तक श्रमिकों के अधिकारों की बात है, भारत का रिकॉर्ड सबसे ख़राब रहा है। इसके लिए नई संहिता की ज़रूरत नहीं है क्योंकि मज़दूरों की हालत वैसे ही खस्ता बनी हुई है।
नई श्रम संहिताओं के नव-उदारवादी हमले का विरोध क्यों ज़रूरी

उन चार श्रम संहिताओं के जल्द ही लागू होने की उम्मीद है, जो भारत में नव-उदारवादी परियोजना की गहनता को बढ़ावा देते हैं। ये संहिताएं, श्रमिकों के अधिकारों को कमजोर करेंगी और पूंजी की ताक़त बढ़ाएँगी, विशेष रूप से कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र को इससे काफी बढ़ावा  मिलेगा। इसके परिणामस्वरूप कामकाजी लोगों के बीच असमानता बढ़ेगी - हालाँकि उतनी नहीं जितनी कि बड़े कॉर्पोरेट-वित्तीय दिग्गजों की आय में बढ़ोतरी या भारी विस्तार होगा।

हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज की करीब 3,000 टॉप-लिस्टेड कंपनियों का मुनाफा 2021 में 9.3 लाख करोड़ बढ़ा  जो 2020 की तुलना में 70 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि है। जबकि इसी अवधि में, मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में केवल 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, आय में मजदूरी का हिस्सा कम हुआ  श्रम उत्पादकता में अधिक हुई।

अनुभव यह कहता है कि भारत में कोविड-19 महामारी का असर चार श्रम संहिताओं पर पड़ा था। महामारी के प्रति केंद्र सरकार की त्रुटिपूर्ण नीति के कारण भारत को एक सख्त लेकिन अप्रभावी लॉकडाउन मिला। परिणामस्वरूप, भारत अभूतपूर्व आर्थिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य असफलताओं में उलझ गया। इस कारण लाखों मौतें हुईं क्योंकि नव-उदार सरकार उचित सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय करने में "अक्षम" रही थी। राजनीतिक अर्थव्यवस्था में, बेरोजगारी, अल्परोजगार और अनिश्चितता बढ़ गई। फिर जैसे-जैसे यूक्रेन युद्ध तेज़ हुआ, पुर्वानुमान के मुताबिक, युद्ध ने भारत सहित सभी अर्थव्यवस्थाओं में व्यापक आर्थिक नुकसान में वृद्धि हुई। अब दुनिया मंदी का सामना कर रही है, और, जैसा कि अपेक्षित था, चार श्रम संहिताओं जैसे नीतिगत उपायों के माध्यम से, पूंजी मेहनतकश लोगों पर "समायोजन का बोझ" बढ़ा  रही है।

आईएलओ के अनुमानों के अनुसार, 2020 में भारत ने दुनिया के 9 प्रतिशत की तुलना में सबसे अधिक काम के घंटे यानि 14 प्रतिशत खो दिए थे। (तालिका 1 देखें)2021 में, भारत ने 5 प्रतिशत काम के घंटे खो दिए थे, जो कि, विश्व की औसत 4 प्रतिशत से भी अधिक था (तालिका 2 देखें)

महामारी के दौरान सरकार द्वारा अपनाई गई त्रुटिपूर्ण नीतियों से निपटने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को अभी भी नौकरी के झटके से उबरना बाकी है। फिर भी केंद्र सरकार न केवल अंतरराष्ट्रीय वित्त के साथ रोमांच कर रही है, बल्कि अधिक नव-उदार परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए महामारी से बने "पॉलिसी स्पेस" का उपयोग कर रही है।

नौकरी की सीमा का आकलन करें- आईएलओ अनुमान के अनुसार रोज़गार शुदा व्यक्तियों के काम के साप्ताहिक घंटों में गिरावट आई है। यह मेट्रिक 2019 में 2,18,84,558 (हजार) था और 2021 में घटकर 2,13,32,152 (हजार) हो गया था। 2021 का आंकड़ा 2020 के 1,91,02,452 (हजार) के आंकड़े से केवल आंशिक रिकवरी का प्रतीक है (तालिका 3-5 देखें)

पूरी दुनिया में, 2019 में काम के साप्ताहिक घंटे 13,76,39,909 (हजार) थे, जो 2020 में घटकर 12,70,30,552 (हजार) हो गए थे और 2021 में केवल आंशिक रूप से 13,46,90,819 (हजार) हो गए थे। साप्ताहिक कामकाजी घंटों में गिरावट दुनिया की तुलना में भारत में अधिक महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए, यह केंद्र सरकार पर निर्भर करता है कि वह बेरोजगारी संकट से निपटने को प्राथमिकता देती है या नहीं। इसके विपरीत, नव-उदारवादी परियोजना की "आवश्यकताओं" के अनुरूप कार्य करते हुए, सरकार ने श्रमिकों और ट्रेड यूनियनों पर हमले तेज कर दिए हैं।

इंटरनेशनल ट्रेड यूनियन कन्फेडरेशन (ITUC) की 2022 ग्लोबल राइट्स इंडेक्स रिपोर्ट कहती है कि ट्रेड यूनियनों और श्रमिकों के अधिकारों को खराब तरीके, संरचित और लागू किया गया है। इसमें कहा गया है कि मिस्र, भारत, किर्गिस्तान, मोल्दोवा और मलावी ने श्रमिकों के अधिकारों के दमन को संहिताबद्ध करने के लिए दमनकारी कानूनों को लागू किया है। श्रमिकों पर पूंजी की शक्ति को मजबूत बनाने के लिए हड़ताल करने, सामूहिक रूप से सौदेबाजी करने और यूनियनों को संगठित करने आदि के अधिकार को सीमित किया है। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक 87 प्रतिशत देशों ने हड़ताल के अधिकार का उल्लंघन किया है। बेलारूस, मिस्र, भारत और फिलीपींस ने हड़ताल आयोजित करने के बाद यूनियन के नेताओं पर मुकदमे दर्ज़ किए हैं। सूडान और म्यांमार में सैन्य शासन का विरोध करने वाले पर हमले किए गए और क्रूउरता से उनका दमन किया गया। 2022 में तेरह देशों में, ट्रेड यूनियन नेताओं की हत्या कर दी गई: जिनमें बांग्लादेश, कोलंबिया, इक्वाडोर, इस्वाटिनी, ग्वाटेमाला, हैती, भारत, इराक, इटली, लेसोथो, म्यांमार, फिलीपींस और दक्षिण अफ्रीका शामिल है।

एशिया-प्रशांत क्षेत्र (भारत सहित) श्रमिक अधिकारों के लिए दूसरा सबसे खराब क्षेत्र है। भारत की औसत श्रमिक अधिकार रेटिंग 4.17 से बढ़कर 4.22 हो गई, जो इसे व्यवस्थित उल्लंघन और बिना गारंटी के बीच कहीं रखती है। 2022 में हड़ताल की कार्रवाइयों को दबाने के लिए अत्यधिक पुलिस की बर्बरता का इस्तेमाल किया गया है। यह प्रवृत्ति बांग्लादेश और भारत में उल्लेखनीय थी, जहां हड़ताली श्रमिक मारे गए, और पाकिस्तान भी इसमें शामिल है जहां हुकूमत ने श्रमिकों के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल किया था। म्यांमार में भीषण मानवाधिकारों का हनन बेरोकटोक जारी है। फिलीपींस में, ट्रेड यूनियनिस्ट और कार्यकर्ता हिंसक हमलों और मनमानी गिरफ्तारी से डरते हैं।

जो देश मजदूरों के हड़ताल करने के अधिकार का उल्लंघन करते हैं, वे 2014 में 63 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 87 प्रतिशत हो गए हैं। भारत उन 69 देशों में से एक है, जिन्होंने काम करने वाले लोगों को हिरासत में लिया और गिरफ्तार करके श्रमिकों के स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है। 2014 में, गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए देशों का अनुपात 2022 में 25 प्रतिशत से बढ़कर 47 प्रतिशत हो गया है। दूसरे शब्दों में, जहां तक श्रमिकों के अधिकारों का संबंध है, भारत का सबसे खराब रिकॉर्ड रहा है।

जब देश में नौकरी छूट रही है और आय कम हो रही तब केंद्र सरकार ने चार श्रम संहिताओं को लागू करने का कदम उठाया है, जिससे काम की स्थिति अधिक खराब हो जाएगी। संहिताओं से श्रमिकों के काम के घंटों में वृद्धि की उम्मीद की जा रही है, जिसके कारण काम की परिस्थितियों और व्यावसायिक सुरक्षा के लिए विनाशकारी परिणाम होंगे। यह बेरोजगारी और अल्प-रोजगार को बढ़ाएगा (और श्रम उत्पादकता में बढ़ोतरी करेगा)। यकीनन, इसके परिणामस्वरूप औसत वास्तविक मजदूरी गिर जाएगी।

मूल रूप से, चार श्रम कोड 29 श्रम कानूनों को औद्योगिक संबंध (IR) कोड, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता (CSS), 2020, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थितियों (OSHWC) कोड, 2020 और वेतन (सीडब्ल्यू) विधेयक, 2019 को समेकित या इकट्ठा करते हैं। हालांकि, ये कोड कर्मचारियों को नुकसान पहुंचाएंगे और नियोक्ताओं के पक्ष में सौदेबाजी की शक्ति के संतुलन को स्थानांतरित कर देंगे। यह कदम नव-उदारवादी नीतियों की एक "तार्किक" परिणति है जो इसे आगे बढ़ा रही है। कोड ठेका पर कामा करने वाले मजदूरों की संख्या में बढ़ोतरी का कारण बनेंगे, और "श्रम बाजार लचीलापन" (नौकरी पर रखो और जब चाहो बाहर करो की अनुमति देते हैं), ट्रेड यूनियनों के काम में बाधा उत्पन्न करेंगे, और मालिकों द्वारा श्रम कानून के उल्लंघन को बढ़ावा मिलेगा, उदाहरण के लिए, लेबर इंस्पेक्टर की संख्या को कम किया जाएगा। 

इंडस्ट्रियल रेलेशन कोड 300 कर्मचारियों तक की फर्मों को बिना पूर्व सरकारी अनुमति के कर्मचारियों को काम पर रखने और निकालने की अनुमति देता है। पहले, अनियमित श्रमिकों को काम पर रखने और निकालने की अनुमति केवल 100 कर्मचारियों वाली फर्मों को ही थी। 90 प्रतिशत से अधिक श्रमिक 300 से कम श्रमिकों वाले कारखानों या फर्मों में कार्यरत हैं। इस तरह के "श्रम बाजार लचीलेपन" से बेरोजगारी बढ़ेगी और श्रमिकों में किसी भी सौदेबाजी की शक्ति को हटा दिया जाएगा।

यदि काम पर रखना और निकालना कम "शामिल" होता - यदि प्रक्रियाओं को "सरलीकृत" किया जाता - तो इसका परिणाम अर्थव्यवस्था में मजदूरी के हिस्से में अस्थिरता होगा। इसलिए यह आगे मांग, उत्पादन और निवेश को अस्थिर करेगा। यदि रोजगार अस्थिर है, तो मजदूरी अधिक अस्थिर होगी, और कीमत में अधिक अस्थिरता होगी, अपेक्षित लाभ और हानि की गणना कम विश्वसनीय हो जाएगी। ये, बदले में, निवेश को कम करेंगे। परिणाम नवाचार निवेश में कमी होगी।

नव-उदारवादी प्रक्रिया और वैश्विक मंदी को देखते हुए, भारत जैसी व्यक्तिगत अर्थव्यवस्थाओं से "श्रम बाजार लचीलेपन" के कारण ठहराव की भरपाई के लिए पर्याप्त रूप से निर्यात करने की अपेक्षा करना अवास्तविक तर्क है।

श्रम अधिकारों के लिए एक और झटका आईआर कोड से हड़ताल के अधिकार को कम करने से आता है। इसमें कहा गया है कि यूनियनों को हड़ताल का 14 दिन का नोटिस देना होगा, जिसकी वैधता 60 दिनों तक सीमित होगी। सुलह की कार्यवाही के लिए चिह्नित सात दिनों की अवधि के लिए और ट्रिब्यूनल की कार्यवाही के बाद 60 दिनों तक हड़ताल पर रोक रहेगी। 

इसी तरह, सीएसएस ने अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा लाभों को सार्वभौमिक नहीं बनाया है। इसके बजाय, यह नियोक्ताओं से कर्मचारियों की भविष्य निधि और राज्य बीमा की मात्रा निर्धारित करने के माले में श्रम अधिकारियों की क्षमता को प्रतिबंधित करता है। यह पुराने मामलों को फिर से खोलने पर रोक लगाता है, जिसका अर्थ है कि कम समय में काम बदलने वाले कई श्रमिकों के सामने कोई सहारा नहीं होगा। यह उन लेबर इंस्पेक्टरों को भी रोकेगा जो फर्मों में कानूनी प्रक्रियाओं की जांच करते हैं। इसके बजाय, यह श्रम कानून के अनुपालन के मामले को खुद मालिक/नियोक्ता के स्व-प्रमाणन पर जोर देता है।

ओएसएचडब्लूसी (OSHWC) कोड फर्मों को ऐसी महिलाओं को काम पर रखने की अनुमति देता है जो उनकी सुरक्षा से समझौता कर सकती हैं। यह मातृत्व अवकाश को एक कठिन प्रक्रिया बनाता है। एक महिला मातृत्व अवकाश का लाभ तभी उठा सकती है जब वह प्रसव से कम से कम 80 दिन पहले अपनी वर्तमान नौकरी में रही हो। निजी नियोक्ता 80 दिन से पहले गर्भवती महिला कर्मचारियों को "काम से हटाकर" आसानी से भुगतान वाले मातृत्व अवकाश से बच सकते हैं।

साथ ही ओएसएचडब्लूसी (OSHWC) को लागू करने की सीमा बढ़ा दी गई है, जिससे कर्मचारियों के अधिकार कम हो जाएंगे। यह अब उन फर्मों पर लागू होगा है जो 20 (पहले 10) या उससे अधिक श्रमिकों को रोजगार देती हैं और जिनके पास बिजली कनेक्शन हैं। बिना बिजली कनेक्शन वाली फर्मों के लिए यह सीमा 20 से 40 या अधिक श्रमिकों तक बढ़ा दी गई है। इन सीमाओं से नीचे के नियोक्ता भारत में श्रमिकों के भारी बहुमत को रोजगार देते हैं, लेकिन ओएसएचडब्लूसी (OSHWC) उन्हें कर्मचारियों के खिलाफ दमनकारी प्रथाओं का इस्तेमाल करने की अनुमति देता है। इसके अलावा, यह कोड श्रम विवादों से निपटने के लिए न्यायिक तंत्र प्रदान नहीं करता है, जो श्रमिकों को और नुकसान पहुंचाएगा। 

वेज कोड 2020 में तीन प्रमुख "खामियां" हैं जो मालिकों/नियोक्ताओं की सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ाती हैं: (i) यदि ठेकेदार अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहते हैं, तो नियोक्ताओं (लीड फर्मों में) को मजदूरी का भुगतान करने के मूल दायित्व से छुट देता है। यह भारत के उन श्रमिकों की एक बड़ी संख्या पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा जो ठेकेदारों के तहत काम करते हैं। (ii) यह कर्मचारियों के काम के ज़रिए होने वाले नुकसान के मामले में नियोक्ताओं द्वारा मजदूरी की मनमानी कटौती को कानूनी स्वीकृति प्रदान करता है। यह फर्मों को मजदूरी में कटौती का खुला निमंत्रण है, जिससे मांग, उत्पादन, रोजगार और निवेश को नुकसान होगा। (iii) ऐसे प्रावधानों से छूट प्राप्त फर्मों और प्रतिष्ठानों की सूची का विस्तार करके कर्मचारी बोनस को कम करना है। पहले दो प्रावधान हमें यह निष्कर्ष निकालने पर मजबूर करते हैं कि यदि कोई फर्म "अच्छा" करती है, तो उससे केवल नियोक्ता ही लाभान्वित होंगे, लेकिन यदि यह "बुरा" करती है, तो श्रमिकों को उस "समायोजन" का खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

वेज कोड न्यूनतम मजदूरी दरों को कड़ाई से परिभाषित नहीं करता है। न्यूनतम मजदूरी दर निर्धारित करने का कार्य केंद्र सरकार के पास है। हालाँकि, कॉरपोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र ने "नीति पर कब्जा" कर लिया, भारत में वैसे भी न्यूनतम वेतन बहूत कम है। लेबर कोड भारत में मजदूरी से संबंधित ठोस चुनौतियों का समाधान नहीं करता है। यह अनौपचारिक क्षेत्र में श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी कानून के दायरे को विस्तृत नहीं करता है और सभी आर्थिक क्षेत्रों में मजदूरी निर्धारण को लागू करने और विनियमित करने के लिए पर्याप्त कानूनी उपाय नहीं करता है।

चार श्रम संहिताओं को आय में मजदूरी के अपने हिस्से को कम करके श्रमिकों के शोषण को बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किया गया है। यदि वे लागू होते हैं, तो ये कोड श्रमिकों के अधिकारों को कम कर देंगे, और ऐसा लगता है कि इस तरह के परिणाम को वैध बनाने के लिए उनके पास एक अंतर्निहित तंत्र भी है। श्रमिकों के विभिन्न तबकों पर इसका भयंकर प्रभाव पड़ेगा। नवउदारवाद के समर्थक संभवतः इसके निश्चित प्रभाव को, मजदूर के विरोध को कुंद करने  का हथियार मान रहे हैं।

"व्यापार करने में आसानी" के संदर्भ में श्रम संहिताओं का सहारा लिया गया है और को सियाका भागी बनाया गया है। हालाँकि, व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण से यह अतार्किक है। आय में मजदूरी के हिस्से में गिरावट से मंडी को बढ़ावा मिलेगा। इसके अलावा, कई राज्य सरकारें इन कोडों को इस तरह से लागू करेंगी जो श्रमिकों को और भी अधिक शक्तिहीन कर देंगी। ट्रेड यूनियनों और लोकतांत्रिक आंदोलनों को इन संहिताओं से उत्पन्न होने वाले परिणामों के खिलाफ प्रतिरोध करना चाहिए। उनका प्रतिरोध सार्थक होगा यदि वे सार्वभौमिक रोजगार गारंटी की मांग करते हैं जो श्रमिकों के सभी वर्गों की चिंताओं को दूर कर सकते हैं। इसके तहत अनौपचारिक क्षेत्र में किसानों और श्रमिकों के संघर्षों का जुड़ाव भी शामिल है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ सफल संघर्ष ने दिखा दिया है कि लोग नव-उदारवादी परियोजना को पीछे हटा सकते हैं।

केंद्र सरकार को मजदूरों के प्रतिरोध की आशंका है, और इसीलिए, एक बार फिर, चार श्रम संहिताओं को लागू करने में देरी हुई है। हालाँकि, नव-उदारवादी परियोजना की आधिपत्यवादी प्रवृत्तियाँ संविधान को उसकी नींव में कमज़ोर कर रही हैं। यूनियनें श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा तब तक नहीं कर सकतीं जब तक कि वे संस्कृति सहित प्रत्येक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय रूप से संलग्न न होती हैं। 

नरेंद्र ठाकुर  बीआर अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। सी. सरचचंद सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफ़ेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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