समीक्षा: तीन किताबों पर संक्षेप में
उपन्यासकार रणेंद्र (जन्म 1960) का नया उपन्यास ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ (2021, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) महत्वाकांक्षी रचना लगती है। थीम के लिहाज से यह उनके पिछले दोनों उपन्यासों से भिन्न है। यही चीज़ इसे ख़ास बनाती है। लेकिन यह ढंग का उपन्यास नहीं बन पाया है, जबकि इसकी पूरी संभावना मौजूद थी। कलात्मक गठन व कसाव की दृष्टि से—या कलात्मक विखंडन की दृष्टि से—यह उपन्यास निराश करता है। यह औपन्यासिक रिपोर्ताज ज़्यादा लगता है।
‘गूंगी रुलाई का कोरस’ का कैनवास व विचार फलक बड़ा है, प्रशंसनीय है, जो ध्यान खींचता है। उसी हिसाब से इसे कलात्मक ट्रीटमेंट मिलना चाहिए था, जो नहीं हो पाया। हालांकि इस उपन्यास ने समीक्षकों का ध्यान खींचा है। ‘समयांतर’ और ‘पहल’ पत्रिकाओं में इसकी लंबी समीक्षाएं छपी हैं। अगर समीक्षकों ने आलोचनात्मक नज़रिया अपनाया होता, तो ये समीक्षाएं प्रशस्ति वाचन होने से बच जातीं।
भारतीय उपमहाद्वीप में, ख़ासकर हिंदुस्तान में, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का हाल के वर्षों में हिंदुत्व फ़ासीवादियों ने संप्रदायीकरण करने, उसे हिंदू-मुसलमान में बांटने और संगीत का हिंदूकरण करने की जो कोशिशें की हैं, और इन कोशिशों का जो विरोध हुआ है—यह उपन्यास उस पर केंद्रित है। धार्मिक व सांप्रदायिक उन्माद और दंगे के विरोध में यह कहानी संगीतकार उस्ताद माहताबुद्दीन ख़ान, उनके परिवार और उनकी पीढ़ियों के माध्यम से कही गयी है। एक कहानी के अंदर उप-कहानियां भी चलती रहती हैं।
देश के कई हिस्सों में हुई मुस्लिम-विरोधी हिंसा (हाशिमपुरा, भागलपुर, दिल्ली, नेल्ली, गुजरात आदि) का ज़िक्र उपन्यास में आता है, और दिल्ली सिख-विरोधी हिंसा और कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म का भी जिक्र हुआ है। लेकिन कश्मीर, बस्तर व उत्तर-पूर्व भारत में भारतीय सेना व अन्य सुरक्षा बलों द्वारा किये जा रहे बर्बर दमन और बलात्कार पर उपन्यास आश्चर्यजनक ढंग से खामोश है। ऐसा क्यों? कुनन पोशपोरा और माछिल-जैसी ह्रदय-विदारक व स्तब्धकारी घटनाओं को कैसे भुलाया जा सकता है? यहां भी उपन्यास के किरदार पहुंच सकते थे, जैसे लेखक ने उन्हें अन्य जगहों पर पहुंचाया है।
230 पेज के इस उपन्यास को मैं औपन्यासिक रिपोर्ताज कहना चाहूंगा। इसमें वास्तविक घटनाओं के यथातथ्य वर्णन हैं, लेकिन उन्हें भरसक साहित्यिक रूप देने की कोशिश की गयी है, और कल्पना का भी थोड़ा-बहुत सहारा लिया गया है।
इस किताब में घटनाओं की प्रधानता ज़्यादा है और कथातत्व जैसे पिछली सीट पर बैठा हुआ है। लगभग हर पात्र, हर घटना जानी-पहचानी लगती है, और कल्पना की गुंजाइश बहुत कम छोड़ी गयी है। यह किताब अगर कम ‘बोलती’, ‘बाहर’ कम जाती, और ‘अंदर’ की ओर ज़्यादा झांकती, तो बात ही कुछ और होती। रेखाचित्र लिखने वाली शैली में, जिसमें गहरा आवेग है, इसे लिखा गया है। ये रेखाचित्र मिलकर भावुक (सेंटिमेंटल) कोलाज तैयार करते हैं। ‘परमहंसी’ पाखंड पर प्रहार करने का मौक़ा क्यों छोड़ दिया गया? गंगा, शिव, दुर्गा, काली, विश्वनाथ मंदिर आदि के प्रति इतना अनालोचनात्मक नज़रिया, इतनी भाव-विह्वलता क्यों?
‘पत्रकारिता का अंधा युग’
लेखक, पत्रकार व अनुवादक आनंद स्वरूप वर्मा (जन्म 1943) की किताब ‘पत्रकारिता का अंधा युग’ (2020, सेतु प्रकाशन, दिल्ली) पत्रकारिता-संबंधी लेखों का संग्रह है। आनंद ने ये लेख 1980 के दशक से लेकर 2017-18 के बीच लिखे।
लगभग चार दशक की अवधि में लिखे गये ये 31 लेख, जो 280 पन्नों में फैले हैं, पत्रकारिता—ख़ासकर हिंदी पत्रकारिता—के ‘अंधे युग’—घोर पतन—की शिनाख़्त करते हैं। पतन का यह दौर 1980 के दशक से शुरू होता है। यह वह पत्रकारिता है, जो बड़ी पूंजी/कॉरपोरेट पूंजी वाली है और जिसे मुख्यधारा की पत्रकारिता कहा जाता है। लेखक ने मुख्यतः छापा (प्रिंट) पत्रकारिता को लेकर बात की है।
इस किताब का उप शीर्षक है, ‘मीडिया, मानव अधिकार और बौद्धिक समुदाय’। इससे पता चलता है कि किताब के सरोकार व्यापक हैं। किताब को पत्रकारिता के पाठ्यक्रम का ज़रूरी हिस्सा बनाया जाना चाहिए। बौद्धिक व अकादमिक जगत में इस किताब पर विचार विमर्श होना चाहिए। पत्रकारिता कैसे सत्ता की पालतू बनती चली जाती है, इस पर आनंद ख़ास तौर पर ध्यान देते हैं।
हिंदी पत्रकारिता हिंदू पत्रकारिता बनती चली गयी, इस गंभीर ख़तरे की ओर आनंद स्वरूप वर्मा ने सबसे पहले ध्यान दिलाया। साप्ताहिक ‘शान-ए-सहारा’ (लखनऊ) के 17-23 जून 1984 के अंक में प्रकाशित उनके लेख ‘हिंदी पत्रकारिता या हिंदू पत्रकारिता?’ ने अच्छी-ख़ासी हलचल मचायी थी। यह लेख दो हिंदी दैनिकों ‘जनसत्ता’ (दिल्ली) और ‘नवभारत टाइम्स’ (दिल्ली) के तत्कालीन संपादकों प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर की भूमिकाओं को लेकर था, जिन्होंने, बकौल आनंद, अपने-अपने अख़बार को हिंदू अख़बार बना दिया था।
इस संदर्भ में आनंद के दो और लेख देखे जा सकते हैं, जो इस किताब में शामिल हैं। एक है, ‘हिंदी पत्रकारिताः संदर्भ प्रभाष जोशी’ (‘हंस’, दिल्ली, नवंबर 1987); और दूसरा है, ‘हिंदी पत्रकारिताः संदर्भ राजेंद्र माथुर’ (‘हंस’, दिसंबर 1987)। इन दोनों लेखों को गंभीरता से पढ़ा जाना चाहिए। इससे पता चलेगा कि तथाकथित मुख्यधारा हिंदी पत्रकारिता के अधःपतन के बीज कहां मौजूद हैं।
इन दोनों लेखों में आनंद ने उदाहरण देकर, और विश्लेषण करते हुए, बताया है कि हिंदी पत्रकारिता को हिंदू पत्रकारिता बनाने व उसका संप्रदायीकरण और सैन्यीकरण करने में प्रभाष जोशी व राजेंद्र माथुर का बड़ा भारी रोल था। यही नहीं, इन दोनों संपादकों ने हिंदी पत्रकारिता को अल्पसंख्यक-विरोधी, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी, दकियानूस व अंधविश्वासी बनाने में बढ़-चढ़ कर भूमिका निभायी।
‘हवेली’
कवि और कहानीकार उषा राय (जन्म 1963) के पहले कहानी संग्रह ‘हवेली’ (2021, बोधि प्रकाशन, जयपुर) में 11 कहानियां हैं। 144 पेज का यह संग्रह कहानीकार के रूप में उषा राय की संभावना का पता देता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि थीम, कंटेंट और ट्रीटमेंट के स्तर पर उन्हें अपनी सीमाओं को तोड़ने के बारे में सोचना चाहिए।
संग्रह में शामिल ‘हवेली’, ‘डबरे का पानी’, ‘नमक की डली’ और ‘सिगरेट’ शीर्षक कहानियां ख़ास तौर पर पठनीय हैं और ध्यान खींचती हैं। इन कहानियों में मानव संबंध की परतें, तनाव व जटिलताएं व्यंजित हुई हैं। इन कहानियों की पृष्ठभूमि अलग-अलग है।
उषा राय की कहनियां आम तौर पर औरत की चाहत उसकी आज़ादी की तमन्ना, अंतर्द्वंद्व और पितृसत्ता की मार के इर्द-गिर्द घूमती हैं। चरित्र चित्रण में सहजता व सरसता दिखायी देती है। लेखक में लेकिन यह हिचक भी दिखायी देती है कि वह अपने रचे पात्रों को किस हद तक आगे जाने की छूट दे।
‘डबरे का पानी’ शीर्षक कहानी में तीन पीढ़ियां हैं और यह स्मृतियों पर आधारित कहानी है। इस कहानी में देश की आज़ादी की लड़ाई की गूंज सुनायी देती है। ‘नमक की डली’ कहानी स्त्री-स्त्री यौन संबंध और इससे पैदा हुए तनाव की कहानी है। ऐसे संबंध को सहज यौन संबंध माना जाये, इस समझ का अभाव कहानी में दिखायी देता है। ‘हवेली’ कहानी जर्जर होते रुढ़िवादी, सामंती, दमनकारी समाज की पुरुषवादी मानसिकता को उधेड़ती है, जहां स्त्री की दमित आकांक्षा अपने लिए नयी राह तलाश रही है। यह इस संग्रह की सबसे अच्छी कहानी है।
(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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