यूपी चुनाव: बीजेपी के गढ़ पीलीभीत में इस बार असल मुद्दों पर हो रहा चुनाव, जाति-संप्रदाय पर नहीं बंटी जनता
पीलीभीत (उत्तर प्रदेश): जैसा वायदा किया गया था, क्या किसानों की आय दोगुनी हो चुकी है? क्या लखीमपुर खीरी में नरसंहार के लिए किसानों को न्याय मिल गया है? क्या ज़मीन पर पिछले पांच सालों में भ्रष्टाचार में कमी आई है? क्या लोगों को आसमान छूती कीमतों से राहत मिली है? क्या युवाओं को रोज़गार मिला है?
जब हम पूछते हैं कि पीलीभीत किसको वोट देगा, तब मतदाता यह सवाल उठाते हैं। यहां के लोग कहते हैं कि इस बार वे हिंदु-मुस्लिम या अगड़े-पिछड़े जैसे विभाजनकारी मुद्दों मतदान नहीं करेंगे। बल्कि वे उन मुद्दों पर कायम रहेंगे, जो उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं।
पीलीभीत में मैथा सैदुल्लागंज गांव में 32 साल के सोमप्रकाश कहते हैं, "हमने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों, व 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के ऊंचे-ऊंचे वायदों पर भरोसा करते हुए, राज्य में क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद में पूरी शिद्दत से बीजेपी को वोट दिया था। लेकिन इनमें से ज़्यादातर वायदे कोरे शब्द ही साबित हुए। हमारी उम्मीदें खत्म हो गईं।"
मौजूदा उत्तर प्रदेश चुनाव में आज 23 फ़रवरी को चौथे चरण में बरेली संभाग के तराई क्षेत्र में मतदान हो रहा है।
पीलीभीत की सीमा उत्तराखंड से लगती है और यहां सिख समुदाय से आने वाले किसान बड़ी संख्या में हैं। इसलिए यहां बड़े स्तर पर कृषि होती है। यहां तीन विवादित कानून बड़े मुद्दे हैं, जिन्हें एक साल के प्रदर्शन के बाद वापस ले लिया गया है।
हालांकि किसान समुदाय केंद्र सरकार के प्रति तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग मानने के लिए आभार व्यक्त करता है, लेकिन यहां बीजेपी को ज़्यादा फायदा होता नहीं दिख रहा है। किसान साफ़ कहते हैं, "जिस्म के जख़्म भर भी जाते हैं, दिल के नहीं।"
किसान कहते हैं कि वे कभी नहीं भूलेंगे कि जब वे प्रदर्शन के दौरान दिल्ली के भीतर जाने की कोशिश कर रहे थे, तो किस तरह पानी की बौछारों, लाठियों और गाली-गलौज का उन्हें सामना करना पड़ा।
पूरनपुर प्रखंड में रामनगर के रहने वाले 65 साल के सुखवेंद्र सिंह कहते हैं, "शरीर पर लगी चोट को लोग भूल जाते हैं, लेकिन दिल पर लगी चोट को नहीं भुलाया जा सकता।" वहीं जगतार सिंह कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि राज्य में किसानों के सामने सिर्फ़ तीनों कानूनों से जुड़ा एक ही मुद्दा था, उन्हें कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा है।
वे इस इलाके में किसानों के सामने आने वाली समस्याओं को गिनवाते हुए कहते हैं, "हमारी फ़सल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर ऊपार्जन एक बड़ा मुद्दा है। सरकार ने कहा था कि एमएसपी की कानूनी गारंटी पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया जाएगा, लेकिन अब तक कुछ भी नहीं किया गया है। राज्य में उर्वरकों की कमी बेहद गंभीर संकट है। हमें डीएपी और यूरिया कालाबाज़ारी में बेहद ऊंची कीमतों पर खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यह ब्लैकमेलिंग है, क्योंकि सरकार निश्चित वक़्त पर किसानों को जरूरी उर्वरक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है। फिर अनुपयोगी मवेशियों की बढ़ती संख्या ने भी हमारी समस्या बढ़ा दी है।"
केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी का बेटा अशीष मिश्र उर्फ़ मोनू लखीमपुर में किसानों को कुचलने का मुख्य आरोपी है। हाल में उसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ज़मानत दी है। इससे भी पीलीभीत में बीजेपी की चुनावी स्थितियां प्रभावित होने के आसार हैं।
बाघ-इंसान का टकराव : नेताओं के लिए कभी नहीं बना मुद्दा
तराई क्षेत्र, जहां पीलीभीत, लखीमपुर खीरी और बहराइच जिले आते हैं, वहां इंसान-जानवर संघर्ष लगातार बढ़ रहे हैं। इसकी वज़ह जंगली इलाकों के भीतर और उनके आसपास अतिक्रमण और बसाहटें हैं। पीलीभीत टाइगर रिज़र्व के आसपास रहने वाले तीन सौ गांवों को बाघ का डर सताता है। इन गांवों में 2017 के बाद से बाघों ने 32 लोगों की हत्या की है।
पिपरिया करम गांव की प्रधान रंजो कहती हैं, "हम शाम के बाद गांव से निकलने में डरते हैं। हाल में जिले में बाघ के हमलों की कई घटनाएँ हुई हैं। पिछले कुछ सालों में यह समस्या लगातार बढ़ती जा रही है, लेकिन यह हमारे नेताओं के लिए कभी मुद्दा नहीं बना। यह सभी के लिए डरावनी स्थिति है। अगर कोई कुत्ता भी भौंकता है, तो लोग बाघ के डर से छिपने को भागते हैं।"
भारत-नेपाल सीमा पर बसे पीलीभीत में एक बड़ा इलाका आरक्षित वन का है। तत्कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार ने इलाके को एक 2014 में टाइगर रिज़र्व घोषित कर दिया था।
दूसरे मुद्दे भी अहम
एमएसपी, उर्वरकों की कमी और आवारा पशुओं के अलावा पीलीभीत में दूसरी समस्याएं भी हैं, जो सत्ताधारी पार्टी के आधार में सेंध लगा रही हैं। गांवों को शहरों से जोड़ने वाली सड़के खस्ताहाल हैं। जिले के गांवों में जाने पर आपको समझ आ जाएगा कि यहां सड़कों में गड्ढे नहीं हैं, बल्कि गड्ढों में सड़के हैं।
बरेली संभाग मुख्यालय तक जाने वाली सड़के बेहद खराब हालत में हैं। हर दिन यहां से हज़ारों लोग बरेली जाते हैं और उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन कोई भी उनकी नहीं सुनता। स्वास्थ्य तंत्र का ढांचा बर्बाद हो चुका है। जिले में कोरोना की दूसरी लहर को रोकने के लिए कोई प्रबंध नहीं था, जिसके चलते कई लोगों की मौत हुई। प्रस्तावित मेडिकल कॉलेज का निर्माण भी अधर में लटका हुआ है।
मझोला में सहकारी चीनी मिल लंबे वक़्त से बंद है। पिछले पांच सालों में जिले में कोई भी नई फैक्ट्री नहीं लगाई गई है। युवा बेरोज़गार हैं। उन्हें रोज़गार देने की कोशिशें सिर्फ़ कागज़ों पर ही हैं।
यहां के लोग लंबे वक़्त से अच्छे सरकारी कॉलेज की मांग कर रहे हैं, क्योंकि छात्रों को 12वीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बरेली जाना पड़ता है।
यहां भ्रष्टाचार भी मुद्दा है। लेकिन कोई भी पार्टी इसे मिटाने का जिक्र अपने मेनिफेस्टो में करती है। ना ही कोई पार्टी या प्रत्याशी इसके खिलाफ़ एक शब्द भी बोलने की हिम्मत दिखाता है।
जब भी लोग कहीं जाते हैं, उन्हें भ्रष्ट प्रशासन लूटता है। चाहे पुलिस स्टेशन हो, तहसील, कोर्ट या कोई भी सरकारी कार्यालय हो, बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता। लोगों का आरोप है कि अब भ्रष्टाचार दोगुना हो चुका है।
यहां लोगों को प्रभावित करने वाले मुद्दे राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के लिए कोई अहमियत नहीं रखते। यहां चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक संगठन सिर्फ़ एक-दूसरे पर आरोप लगाने का खेल खेलते रहते हैं। नतीज़तन मतदाताओं के साथ धोखा होता आया है।
वरुण गांधी की स्पष्ट अनुपस्थिति
बीजेपी के लिए स्थिति फिर और भी जटिल हो गई है, जब इलाके में चुनावी अभियान से सांसद वरुण गांधी पूरी तरह नदारद हैं। वरुण और उनकी मां मेनका गांधी का इस इलाके में बड़ा समर्थक वर्ग है। दोनों ही यहां से एक बड़े अंतर से जीतते रहे हैं।
2014 में मेनका गांधी और 2019 में वरुण गांधी को 5 लाख से ज़्यादा मत मिले थे। पीलीभीत से मेनका गांधी 1989, 1996, 1998, 1999, 2004 और 2014 में चुनाव जीती हैं। इनमें वे दो-दो बार जनता दल, बीजेपी और निर्दलीय चुनाव जीती थीं। वहीं वरुण गांधी भी दो बार चुनाव जीत चुके हैं।
यहां पीलीभीत शहर, बरखेड़ा और पूरनपुर सीट पर बीजेपी का सीधा मुकाबला समाजवादी पार्टी से है। वहीं बीसलपुर में बीजेपी, बीएसपी और सपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला है। 2017 में बीजेपी ने यहां की सभी पांच सीटें जीतने में कामयाबी पाई थी। जबकि 2012 में यहां की चार सीटों पर समाजवादी पार्टी को जीत मिली थी, तब बीजेपी सिर्फ़ एक सीट ही हासिल कर सकी थी।
यहां जातिगत वितरण लगभग इस तरह है- मुस्लिम मतदाता- 4.5 लाख, अनुसूचित जाति के मतदाता- 3.5 लाख, पिछड़ा वर्ग के मतदाता- 5.5 लाख, उच्च जाति के मतदाता- 4 लाख व अन्य मतदाता- 8000।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
UP Elections: BJP’s Bastion Pilibhit Set to Vote on Issues, Not on Caste and Communal Lines
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