अयोध्या में ‘हार’: अब हिंदुओं को कौन कलंकित कर रहा है?
"जो लोग अतीत को याद नहीं रख सकते, उन्हें उसे दोहराने की सजा मिलती है।" - जॉर्ज सांतायाना, द लाइफ़ ऑफ़ रीज़न, 1905.
'जोर का झटका धीरे से लगे'
किसी गीत की उक्त कैच लाइन - या शायद किसी प्रसिद्ध विज्ञापन अभियान का गीत - हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिली हार का बखूबी वर्णन करता है।
'400 पार' के बड़े-बड़े दावों से लेकर संसद में बहुमत न मिल पाना भी एक विपरीत परिणाम साबित हुआ है।
इस हार के बाद, तथा अब अस्थिर सहयोगियों के साथ गठबंधन करने की मजबूरी के कारण, भाजपा के अपने कार्यकर्ताओं के ज़रिए अजीब किस्म की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं।
सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों की भरमार है, जो साफ तौर पर नतीजों से उपजी हताशा और गुस्सा को दिखाती है। इतना अप्रत्याशित नहीं है, बल्कि अचानक से यह उनमें छलकने लगा जो 'सामान्य तौर पर संदिग्ध' नहीं होते हैं- बल्कि खुद हिंदू मतदाता इस बात के लिए आलोचना का शिकार हो रहे हैं कि उन्होंने महत्वपूर्ण मौके पर एकता नहीं दिखाई। इस आड़ में 'हिंदू एकता' के प्रोजेक्ट के दिग्गजों के नाम लिए जा रहे हैं और यह जताने की कोशिश की जा रही है कि कैसे यह 'असंगति' हमेशा से ही उनके जड़ों में रही है और यह स्वाभाविक कारण है कि वे 'सैकड़ों सालों तक गुलाम' रहे हैं।
गौर करने वाली बात यह है कि अयोध्या के आम निवासी - वही शहर जिसे वे 'हिंदू राष्ट्र की अघोषित राजधानी' बनाने के लिए तरस रहे थे - खास तौर वहां के रहने वाले हिंदू उनके हमले का आसान निशाना बने हुए हैं। तथ्य यह कि वहां के लोगों ने पिछले दो लोकसभा चुनावों में इस पद पर काबिज भाजपा के उम्मीदवार को 50,000 से ज़्यादा वोटों से हराया और अपनी पसंद के उम्मीदवार, समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता को चुना, इसे 'हिंदू एकता' के लिए उनकी 'बेवफ़ाई' के तौर पर देखा जा रहा है। जैसे उनके खिलाफ़ नफ़रत और ज़हर की बाढ़ ला दी गई है, उन्हें गालियां दी जा रही हैं, उन्हें कई तरह से अपमानित किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि रामायण धारावाहिक में भूमिका निभाने वाले फ़िल्मी सितारे भी उन्हें कलंकित करने के इस कोरस में शामिल हो गए हैं।
यह स्पष्ट है कि दक्षिणपंथी ट्रोल आर्मी और आईटी सेल, जो 'राष्ट्र विरोधियों', 'शहरी नक्सलियों' या 'दीमकों' या 'घुसपैठियों' को निशाना बनाने में माहिर है, को उन हिंदुओं के खिलाफ इस जहर को उगलने के लिए शामिल किया गया है जो अभी भी अपनी आज़ादी को महत्व देते हैं, जिन्होंने अपने लंबे अनुभव से यह महसूस किया है कि हिंदुत्व वर्चस्ववादियों के लिए, हिंदू धर्म की बात करना केवल राजनीतिक शक्ति हासिल करने का एक साधन है, और कुछ नहीं।
इन नफरत भरे संदेशों के सौदागरों और उनके मास्टरमाइंडों के लिए यह समझना अभी भी मुश्किल है कि अयोध्या के लोगों ने अपने संवैधानिक रूप से दिए गए वोट के अधिकार का इस्तेमाल दावों और वास्तविकता के बीच बड़े अंतर को रेखांकित करने के लिए किया है। यह आजीविका के मुद्दों को पहचान के साथ जोड़ने के प्रयासों को खारिज करने के लिए उनके द्वारा अपनाई गई एक चतुर रणनीति भी थी।
अयोध्या में पर्यटकों की यात्रा को आसान बनाने और सरकार द्वारा किए गए 'सौंदर्यीकरण' के बारे में पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उदाहरण के लिए, यह अब इतिहास बन चुका है कि कैसे राम मंदिर तक पर्यटकों की आसान पहुंच के लिए एकल सड़क 'रामपथ' को चौड़ा करने के लिए लगभग 2,200 दुकानें, 800 घर, 30 मंदिर, नौ मस्जिद और छह मजारें ध्वस्त कर दी गईं थीं।
साक्ष्यों से पता चलता है कि इन ध्वस्तीकरण कार्यों में काफी मनमानी हुई और लोग अभी भी मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं।
तथ्य यह है कि काफी समय से ये आम निवासी मूकदर्शक बने हुए थे कि कैसे उनका सदियों पुराना शहर फैजाबाद-अयोध्या धीरे-धीरे भू-माफियाओं को सौंपा जा रहा है, जिन्हें सत्ताधारियों की मदद और प्रोत्साहन मिल रहा है, या कैसे उनके शहर के 'सौंदर्यीकरण' से केवल सत्तारूढ़ दल के लोगों के एक वर्ग और अडानी जैसे लोगों को फायदा हो रहा है।
अंततः उन्होंने स्थिति पर अपना असंतोष जताते हुए बोलने का निर्णय लिया।
शायद हिंदुत्व वर्चस्ववादी ताकतों के सरगनाओं के लिए आदर्श स्थिति तो यह होती कि अयोध्या के लोग विनम्रतापूर्वक अपने भाग्य को स्वीकार कर लेते, बावजूद इसके कि उन्हें भू-माफियाओं, असंवेदनशील और निर्दयी प्रशासन और पूंजीपतियों की इस घातक तिकड़ी की दया पर छोड़ दिया गया है, जो कथित तौर पर अयोध्या को एक पर्यटक-अनुकूल शहर बनाने में लगे हुए हैं, जहां अंतरराष्ट्रीय पर्यटक भी अर्ध-निर्मित राम मंदिर के दर्शन के लिए आ सकते हैं।
भाजपा के लिए यह समझना अभी भी कठिन होगा कि अयोध्या में उसकी आसन्न हार का अंदाजा पहले से ही लगाया जा चुका था।
अयोध्या/फैजाबाद के दैनिक समाचार पत्र जनमोर्चा की संपादक सुमन गुप्ता के साथ साक्षात्कार को आंखें खोलने वाला माना जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि कैसे 'भारत के संविधान ने भाजपा को पराजित किया है।
वे कहती हैं कि,.. "बाहरी लोगों ने कभी नहीं सोचा था कि अयोध्या में भाजपा हार जाएगी, लेकिन अंदरूनी लोगों को हमेशा से पता था कि भाजपा इस बार सीट नहीं जीत पाएगी। उत्तर प्रदेश के अवध और पूर्वांचल क्षेत्रों में भाजपा के खिलाफ एक अंडरकरंट था। दूसरी बात, भाजपा के लिए समस्या अयोध्या के सौंदर्यीकरण को लेकर आई। अयोध्या में कई लोगों ने सरकारी फरमान के चलते अपनी जमीन, घर और दुकानें खो दीं। उन्हें उचित मुआवजा भी नहीं मिला और इससे मतदाताओं में नाराजगी थी।"
"डर के कारण कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था। उन्हें डर था कि अगर उन्होंने अपनी दुकान गिराए जाने की शिकायत की तो अधिकारी बिना किसी कारण के उनके घर भी तोड़ देंगे।"
यह सच है कि अयोध्या में भाजपा को मिली पराजय पार्टी और व्यापक संघ परिवार के लिए बड़ा नुकसान है।
इतिहास गवाह है कि वे 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में भी अयोध्या से भी इसी तरह बुरी तरह हारे थे। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए चुनाव (6 दिसंबर, 1992) में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के नेतृत्व में सपा और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन ने तब चुनावों में भारी जीत हासिल की थी। तब एक नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था 'मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्री राम'।
गौर से देखने पर पता चलता है कि 2024 के चुनावों में वाराणसी में भी उनकी हार उनके लिए उतनी ही चिंताजनक है, जहां पीएम मोदी चुनाव बड़ी मुश्किल से जीते। बड़े जोर-शोर से दावा किया गया था कि मोदी 10 लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से जीतेंगे, लेकिन अंत में उनकी जीत का अंतर महज 1.5 लाख वोट रहा, जो पिछली बार (2019) से करीब तीन लाख वोट कम है।
यह तथ्य कि मोदी के एक-चौथाई कैबिनेट सहयोगी इन चुनावों में हार गए, भाजपा के लिए भी उतनी ही बड़ी हार है।
हिंदुत्व एजेंडे को इस तरह से ध्वस्त करने के पीछे के कारणों को समझना कठिन नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि हिंदुत्व दक्षिणपंथी उन 'पांचवें स्तंभकारों' की तलाश करने के बजाय, जिन्होंने कथित तौर पर केंद्र में स्पष्ट बहुमत की उनकी हैट्रिक को विफल कर दिया था, बारीकी से देखने के लिए तैयार होते, तो वे आसानी से समझ सकते थे कि 'डबल इंजन' सरकार के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ व्यवस्था को अयोध्या और शेष उत्तर प्रदेश में बड़ा झटका क्यों मिला है।
इस चुनाव में हिंदू या मुसलमान होने का सवाल नहीं था, बल्कि लोगों के जीवन और आजीविका के मुद्दे ही चर्चा में छाए रहे। महंगाई, बेरोजगारी, आवारा पशु, सामाजिक न्याय सब कुछ लोगों के लिए मायने रखता था।
जिस तरह से सत्ताधारी पार्टी के एक वर्ग ने चुनाव के बाद संविधान बदलने की बात को बेपरवाही से उठाया, उससे सामाजिक रूप से उत्पीड़ित और दलित वर्ग के एक बड़े वर्ग में खलबली मच गई थी। इसका असर इन चुनावों में न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश में भाजपा की सीटों पर भी पड़ा।
इस चुनाव में आरएसएस-भाजपा के लिए एक बड़ा सबक (यदि उनमें अभी भी आलोचनात्मक आवाजों को सुनने और समझने की क्षमता है) बहुत सरल है।
राजनीतिक दलों द्वारा उठाए जाने वाले हर मुद्दे की एक 'एक्सपायरी डेट' होती है और राम मंदिर मुद्दे के साथ भी यही हुआ है। करीब चार दशक से वे इस मुद्दे पर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं और काफी हद तक लाभ भी उठा चुके हैं, लेकिन अब उनकी सीमा समाप्त हो गई है। आधा-अधूरा मंदिर अब एक वास्तविकता है और अब उनके लिए इस मुद्दे पर 'गुस्साए लोगों की भीड़ तैयार करना' संभव नहीं होगा।
दूसरा, उनकी ध्रुवीकरण की राजनीति ने भी लोगों को संगठित करने में अपनी प्रभावशीलता धीरे-धीरे खो दी है।
इन चुनावों के दौरान कांग्रेस को 'मुस्लिम तुष्टीकरण' के मुद्दे पर घेरने या मुस्लिम आरक्षण के इर्द-गिर्द कहानी गढ़कर उसे निशाना बनाने के उनके सभी प्रयास उलटे साबित हुए हैं।
तीसरा, अब तक उन्हें यह स्पष्ट हो गया होगा कि इन चुनावों का मुख्य नारा 'संविधान बचाओ' था, जिससे विपक्ष को वोट के साथ-साथ समर्थन भी हासिल करने में मदद मिली।
अब यह एक खुला प्रश्न है कि क्या आरएसएस-भाजपा कभी मनुस्मृति के प्रति अपने जबरदस्त आकर्षण से उबर पाएंगे - जो गोलवलकर और सावरकर के दिनों से जारी है - और संविधान के प्रति उनकी अंतहीन असहजता से, या फिर वे अपनी दुविधा को तब भी बरकरार रखेंगे जब हम इसके अपनाए जाने के 75 साल पूरे होने का जश्न मनाने की तैयारी कर रहे हैं। (जबकि प्रधानमंत्री ने संविधान को अपने माथे से लगाया है)।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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