विश्लेषण: वर्ल्ड बैंक पर ही सवाल उठाती है उसकी ग़रीबी रिपोर्ट
गरीबी को लेकर वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट आई है। यह रिपोर्ट दुनिया भर में गरीबी के हालात के बारे में बताती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया गरीबी खत्म करने के अपने लक्ष्य से बहुत पीछे चल रही है। साल 2030 तक गरीबी खत्म कर देने का लक्ष्य रखा गया था। मगर गरीबी खत्म करने को लेकर जिस तरह की नीतियां और रफ्तार है, उसके मुताबिक पूरी दुनिया से 2030 क्या 2050 तक भी गरीबी खत्म नहीं हो सकती। हक़ीक़त तो ये है कि आज ग़रीबी और असमानता घटने की बजाय बढ़ रही है।
चूंकि वर्ल्ड बैंक की नीतियां ही पूरी दुनिया में लागू होती हैं। कई जानकारों ने कई बार कहा है कि ज्यादातर देश अपने देश की जमीनी परिस्थितियों को भुलाकर वर्ल्ड बैंक की आर्थिक नीतियां अपनाते हैं, इसलिए वह आर्थिक नीतियां नहीं बन पाती जो उस देश के लिए जरूरी है। सब कुछ कॉपी पेस्ट बनकर रह जाता है। यह भी एक कारण है जिसकी वजह से पूरी दुनिया में गरीबी और आर्थिक असमानता बढ़ी है। जानकारों की इस बात को ध्यान में रखते हुए वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट को बड़े संदेह के साथ देखने की जरूरत है।
सबसे महत्वपूर्ण बिंदू है कि वर्ल्ड बैंक ने 2.15 डॉलर प्रतिदिन से कम खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से नीचे माना है। इसके मुताबिक साल 2019 में दुनिया भर में तकरीबन 64 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे थे। अब आप पूछेंगे कि 2.15 डॉलर का मतलब कितना हुआ? गूगल पर $1 बराबर ₹82 देखेंगे और सोचेंगे की 2.15 डॉलर बराबर तकरीबन ₹170 के आसपास हुआ। मतलब अगर कोई ₹170 से कम प्रतिदिन खर्च कर रहा है तो वह गरीबी रेखा से नीचे हैं। लेकिन आप यहीं पर गलत है। यह 2.15 डॉलर परचेसिंग पावर पैरिटी के आधार पर बनी हुई सीमा है।
सरल शब्दों में समझें 2.15 डॉलर में जितना सामान कोई अमेरिकी व्यक्ति अमेरिका में खरीद सकता है उतना ही सामान खरीदने में किसी भारतीय व्यक्ति को भारत में कितना रुपए खर्च करना पड़ेगा? इस आधार पर यह ₹46 प्रतिदिन निकल कर आता है। कहने का मतलब वर्ल्ड बैंक का आंकड़ा यह बता रहा है कि दुनिया भर में ₹46 प्रतिदिन से कम खर्च करने वाले तकरीबन 64 करोड लोग हैं।
आप खुद ही सोचिए कि ₹46 में आज के जमाने में क्या मिलता है? ढंग का एक वक्त का खाना भी नहीं मिलता है।अगर गरीबी निर्धारण करने की सीमा महज ₹46 है तो कैसे कहा जा सकता है कि वर्ल्ड बैंक ने जो गरीबी का आंकड़ा पेश किया है उससे ज्यादा गरीबी पूरी दुनिया में नहीं हो सकती है?
वर्ल्ड बैंक के मुताबिक साल 2020 में पूरी दुनिया की पहले की गरीबी में तकरीबन सात करोड़ का इजाफा हुआ। इसमें से 80% केवल भारत के लोग हैं। यह संख्या 5 करोड़ 60 लाख के आसपास बनती है।
वर्ल्ड बैंक के आंकड़े बताते हैं कि भारत में ₹84 प्रतिदिन से कम खर्च करने वाले लोगों की संख्या तकरीबन 60 करोड़ है। इस हिसाब से अब खुद अंदाजा लगाइए कि भारत की गरीबी कितनी बड़ी है? कोई कह सकता है कि वर्ल्ड बैंक ने इन आंकड़ों का अंदाजा सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी से लिए गए आंकड़ों से लगाया है, यह एक सरकारी संस्था नहीं है, इसलिए इस पर भरोसा ना किया जाए। मगर सवाल यही है कि जब सरकार ने साल 2011—12 के बाद गरीबी के आंकड़े पेश ही नहीं किए तो क्या किया जा सकता है?
न्यूज़क्लिक से बात करते हुए वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती ने बताया कि चीन ने जिस दर से गरीबी को कम किया है अगर उसको हटा दें तो यह दिखेगा कि 1990 के बाद से लेकर अब तक वर्ल्ड बैंक की नीतियों से गरीबी के आंकड़ों में कोई कमी नहीं आई है। वह जस की तस बनी हुई है। वह तो भला कीजिए चीन की नीतियों का जिसकी वजह से दुनिया में गरीबी पहले के मुकाबले कम दिख रही है। नहीं तो अगर चीन को हटाकर देखें तो यही दिखेगा कि वर्ल्ड बैंक के द्वारा साल 1990 के बाद के उदारीकरण की नीतियों का पोल खुल गई है। उसका कोई फायदा नहीं हुआ है। उसके बाद गरीबी, आर्थिक असमानता और बेरोजगारी की हालत बहुत अधिक गंभीर बनी है।
दुनिया के अधिकतर विकासशील देशों को चीन से सीखना चाहिए। चीन के वित्त मंत्रालय और वर्ल्ड बैंक ने मिलकर के साल 2019 में इस बात पर अध्ययन किया कि चीन ने अपनी गरीबी को किस तरह से कम किया? इस अध्ययन की रिपोर्ट इसी साल की शुरुआत में प्रकाशित हुई है। इसका जिक्र इंडियन एक्सप्रेस के उदित मिश्रा ने अपने लेख में किया है।
वर्ल्ड बैंक ने अपने विश्लेषण में पाया कि साल 1978 में चीन में तकरीबन 77 करोड़ आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। साल 2019 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी की संख्या घटकर महज 50 लाख के आसपास रह गई है। यानी चीन ने 40 साल में गरीबी से तकरीबन 76 करोड़ आबादी को बाहर निकाला है। हर साल के हिसाब से देखा जाए तो तकरीबन 2 करोड़ के आसपास आबादी गरीबी रेखा से बाहर निकलती गई है।
अब सवाल आता है कि चीन ने ऐसा किया कैसे? भारत चीन से क्या सीखे? सबसे पहली बात तो यह है कि एक देश की परिस्थिति दूसरे देश से बिल्कुल अलग होती है। इसलिए कॉपी पेस्ट से काम नहीं चलने वाला। चीन ने भी यही किया। वर्ल्ड बैंक की आर्थिक नीतियों को सीधे-सीधे कॉपी पेस्ट नहीं किया। जो भारत करता आ रहा है।
वर्ल्ड बैंक और चीन के वित्त मंत्रालय का अध्ययन बताता है कि चीन ने एक लंबे समय तक बड़े व्यापक स्तर पर आर्थिक बढ़ोतरी की। आर्थिक बढ़ोतरी होने से लोगों की प्रति व्यक्ति आय बढ़ी। जिसका फायदा अर्थव्यवस्था को मिला।
सारा जोर केवल आर्थिक बढ़ोतरी पर नहीं था। बल्कि उन तमाम क्षेत्रों पर था जहां पर चीन की बड़ी आबादी कार्यरत थी। जैसे कि कृषि क्षेत्र। कृषि क्षेत्र में जमकर ध्यान दिया गया। उत्पादकता बढ़ाई गई। सरकारी नीतियां इस तरह से बनाई गई जिसमें केवल बाजार को नहीं बल्कि किसानों को भी लाभ मिले। इसका फायदा यह हुआ कि चीन की एक बड़ी आबादी आर्थिक तौर पर आगे बढ़ने लगी।
चूंकि एक गरीब मुल्क में ज्यादातर आबादी अकुशल होती है। बहुत अधिक कुशल और पारंगत नहीं होती है। इसलिए चीन ने ऐसे उद्योगों का विकास किया जहां पर अकुशल श्रमिकों को रोजगार मिल सके। यहां पर चीन की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अपने जीवन में रोजगार की कमी को दूर कर सका।
चीन के बहुत बड़े इलाके आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए थे। आर्थिक विकास के अवसर बहुत कम थे। चीन ने उन इलाकों को टारगेट किया। वहां के गरीब परिवारों को टारगेट किया। उन्हें आगे बढ़ाने का काम किया। इन गरीब परिवारों के लिए सामाजिक सुरक्षा की नीतियां बनाईं।
चीन ने विकेंद्रीकरण की नीति अपनाई। यानी सब कुछ केवल केंद्र सरकार और राज्य सरकार नहीं है बल्कि स्थानीय स्तर का शासन भी है। भारत का संविधान भी इसी को मुकम्मल विकास का रास्ता मानता है। मगर भारत की सरकारें डिसेंट्रलाइजेशन ऑफ पावर से घबराती हैं। सारी कोशिश इस बात की रहती है कि सारा पावर या तो केंद्र सरकार के पास रहे या राज्य सरकार के पास। इससे प्रभावशाली शासन नहीं हो पाता है। चीन ने लोकल स्तर पर गवर्नमेंट को ठीक करके बहुत ही कमाल काम किया।
चीन के विकास में बाजार की भी भूमिका रही है। मगर ऐसा नहीं हुआ है कि चीन ने सार्वजनिक संपत्तियों को बाजार के हवाले कर दिया हो। भारत में जिस तरह से विकास का पर्याय बाजार को मान लिया गया है। चीन ने वैसा कभी नहीं किया। चीन में वह सारे क्षेत्र जो देश की बहुत बड़ी आबादी पर असर डालते हैं और रणनीतिक तौर पर महत्व है चीनी सरकार के पास हैं।
और सबसे जरूरी बात की बिना स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च किए मानव संसाधन बनाया नहीं जा सकता है। चीन ने इस पर जबरदस्त काम किया। जमकर स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च किया। साल 1949 में चीन की महज 7% आबादी प्राइमरी क्लास से ज्यादा पढ़ी हुई थी। इसकी संख्या बढ़कर 98% तक पहुंच गई है।
यह उस चीन की बहुत ही छोटी और मोटी सी कहानी है जिसके गरीबी से बाहर निकलने वाले लोगों की संख्या निकाल दी जाए तो वर्ल्ड बैंक की गरीबी की रिपोर्ट धरी की धरी रह जाए।
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