ये जज हैं या बीजेपी-आरएसएस के नेता?
मेघालय हाईकोर्ट के जज ने एक चौंकाने वाला बयान दिया है। उनका कहना है कि आज़ादी के समय भारत को हिन्दू राष्ट्र बन जाना चाहिए था। यह बयान उन्होंने एक पेटीशन पर अपना आदेश देते हुए दिया। इस बात के अलावा भी जज साहब ने कई और भी आपत्तिजनक बातें कहीं।
मेघालय हाईकोर्ट के जज एसआर सेन ने कहा “पाकिस्तान ने खुद को इस्लामिक देश घोषित कर दिया था और क्योंकि भारत भी धर्म के आधार पर अलग हुआ था इसीलिए उसे भी हिन्दू राज्य बनना चाहिए था, लेकिन वह धर्मनिरपेक्ष रहा।’’
उन्होंने आगे कहा “मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि कोई भारत को इस्लामिक देश बनाने की कोशिश न करे। अगर यह इस्लामिक देश हो गया तो भारत और दुनिया में कयामत आ जाएगी। मुझे इसका पूरा भरोसा है कि मोदीजी की सरकार मामले की गंभीरता को समझेगी और जरूरी कदम उठाएगी और हमारी मुख्यमंत्री ममताजी राष्ट्रहित में हर तरह से उसका समर्थन करेंगी।’’
जस्टिस सेन ने एक याचिका को खारिज करते हुए यह बातें की। यह याचिका अमोन राना नाम के एक शख्स ने दायर की थी और मामला नागरिक प्रमाण पत्र से जुड़ा हुआ था। जस्टिस सेन ने इसीलिए नागरिकता से जुड़े हुए अपने ये ख्याल सामने रखे ।
इन बातों के साथ जस्टिस सेन ने यह भी कहा कि केंद्र सरकार को एक कानून बनाना चाहिए जिससे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम को बिना किसी प्रमाण पत्र के भारत कि नागरिकता मिल सके। उनके कहने से यह साफ हो जाता है कि वह मानते हैं कि हिन्दू भारत के मूल निवासी हैं। उनका कहना था कि भारत एक हिन्दू राज्य था जिसपर मुग़लों ने कब्ज़ा किया और उन्होंने ज़बरदस्ती लोगों को इस्लाम से जोड़ा ।
इन सब बातों से यह लगता है कि जस्टिस सेन संघ की सांप्रदायिक विचारधारा से प्रेरित हैं। हालांकि वह कह रहे हैं कि वह भारतीय मुसलमानों के खिलाफ नहीं है, लेकिन अगर ऐसा है तो इन बयानों का क्या मतलब है?
क्या किसी जज को इस तरह की विचाधारा से प्रेरित होना चाहिए जो इतिहास को जानबूझकर सांप्रदायिक नज़रिये से देखे? फिर तर्क और वैज्ञानिक सोच की संवैधानिक भावना का क्या अर्थ है? क्या किसी जज को खुले तौर पर किसी पार्टी या नेता के समर्थन में खड़ा होना चाहिये? अगर ऐसा होगा तो क्या जज निष्पक्ष हो सकता है? यहाँ एक और सवाल महत्वपूर्ण है, वह है कि क्या एक जज की इस तरह की बातें संविधान की धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना का उल्लंघन नहीं है?
इन बयानों से वह बहस वापस शुरू हो जाती है जो जून में सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने शुरू की थी। बहस यह थी कि क्या हमारी न्याय प्रणाली निष्पक्ष है? सभी चार जजों ने उस समय के चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा पर सरकार के दबाव में काम करने के गंभीर सवाल उठाए थे।
इससे पहले राजस्थान हाईकोर्ट से रिटायर हो रहे जज ने भी इसी तरह का बेतुका बयान दिया था। राजस्थान के हाईकोर्ट जज महेश चन्द्र शर्मा ने कहा था कि मोर सेक्स नहीं करते बल्कि मोरनी मोर के आंसुओं से गर्भवती होती है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि गाय के अंदर 33 करोड़ देवी देवता होते हैं और गाय ऑक्सीज़न अंदर भी लेती है और बाहर भी छोड़ती है।
इस तरह के बयान साफ तौर पर वैज्ञानिक सोच और संविधान की भावना पर एक चोट हैं क्योंकि हमारा संविधान समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा हमारे सामने रखता है और वैज्ञानिक सोच के प्रचार-प्रसार पर ज़ोर देता है, लेकिन क्या किया जाए जब मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री तक धर्म विशेष के प्रचार में लगे हों और गैर तार्किक, गैर वैज्ञानिक बातों को भी दावे के साथ मंचों से दोहरा रहे हों तो फिर अन्य लोग भी कुछ लाभ की आकांक्षा में उन्हीं का अनुसरण करने लगते हैं। लेकिन फिर भी जजों का इस तरह की विचारधारा रखना खतरनाक संदेश हैं और निष्पक्ष न्याय प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
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