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'लोकतंत्र की समझ' हमारे बच्चों से सीखें

आज युवाओं के आंदोलन में गांधी और अंबेडकर की वापसी हुई है। आज युवा पंथनिरपेक्ष भारत, जिसमें सभी धर्मों के लिए जगह हो, उस विचार के लिए उठ खड़ा हुआ है।
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हाल के दिनों में बुरी खबरों की कोई कमी नहीं है। कश्मीर में जो हु्आ, वो हम सबने देखा। उसके बाद अब असम में जो हो रहा है, वह भी हम देख रहे हैं। बहुत सारे भारतीयों का असम और कश्मीर दूर दिखाई पड़ते हैं। इसलिए कश्मीर की आवाज और असम में अशांति की खबरें उन्हें प्रभावित नहीं करतीं। शर्म की बात है कि हमने अपनी आंखें बंद कर रखी हैं। सहानुभूति के लिए हम बस कुछ शब्दों का इस्तेमाल कर रह गए। चिंता के लिए हमारे पास दूसरे मुद्दे भी थे। देश की अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है, नौकरियों की बहुत कमी है, इस देश में एक महिला के साथ गैंगरेप और हत्या जैसा जघन्य अपराध होता है। ऊपर से इस बीच विपक्ष नदारद है, जिससे सरकार को अपनी मनमर्जी करने के लिए खुली छूट मिल रही है।

सरकार ने यह मनमर्जी की भी है। नागरिकता संशोधन अधिनियम हमारे एक ''ऑर्वेलियन स्टेट'' के बनने की शुरुआत भर है। संसद के भाषणों में विपक्ष ने भले ही अपनी आवाज जिंदा रखी हो, लेकिन वो स्थितियों के सामने मजबूर है। क्योंकि सरकार के पास संख्याबल है। जैसा अनुमान था- कानून पास हो गया। लेकिन इसके बाद जो हुआ, वो किसी ने नहीं सोचा था।

अचानक ''नागरिकता संशोधन कानून'' और ''नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स'' के खिलाफ जबरदस्त प्रतिरोध शुरू हो गया। आश्चर्यजनक तौर पर युवाओं ने इस प्रतिरोध का नेतृत्व किया। यह एक अचानक उभरा प्रतिरोध है। हम सभी को लगता था कि आज का युवा सिर्फ अपनी खुशियों के लिए जीता है। अपने गैजेट्स, सफलता के मंत्र और एक अच्छी जिंदगी की बस परवाह करता है। लेकिन यह लोग सड़कों पर आ गए। बैनर लेकर नारे लगाते हुए। हमें यकीन ही नहीं हुआ कि यह लोग गांधी, अंबेडकर और संविधान की बातें कर रहे हैं।

हमने वह आवाजें सुनीं, जिनमें युवा चीख-चीखकर कह रहे थे कि ''हमें बांटा नहीं जा सकता'',''वे हमें बांट नहीं सकते'',''यह हमारा देश है''। आखिर  युवाओं ने प्रतिरोध की तलवारें निकाल लीं।

यह तो केवल वक्त ही बताएगा कि यह आंदोलन सफल होता है या नहीं। या फिर यह गलत हाथों में पहुंचकर हिंसा का शिकार होगा। या आंदोलन इतिहास का एक अहम मोड़ है या सरकार इसे सफलता के साथ दबा देगी और हम इसे भूल जाएंगे। लोगों की याददाश्त बूढ़े लोगों की तरह बहुत कमजोर होती है। अंबेडकर ने कहा कि ''इंसान अमर है''। ठीक इसी तरह विचार भी अमर हैं और आंदोलन भी। अगर आग बुझ भी जाती है तो भी कुछ लकड़ियां जलती रहती हैं। यह हमें याद दिलाता रहेगा कि इस अहम वक्त में कितना कुछ अच्छा हुआ।

सबसे आश्चर्यजनक और सुखद बात यह है कि गांधी हमारे बीच वापस आ चुके हैं। न केवल उनकी तस्वीर पोस्टर और बैनरों पर दिखाई दे रही है, बल्कि उनके शब्दों को भी उद्धरित किया जा रहा है। उनके सपनों के भारत का जो विचार था, वह वापस दोहराया जा रहा है। एक ऐसा विचार जिसमें सभी समुदायों, खासकर मुस्लिम और हिंदू आपस में शांति और भाईचारे के साथ रह सकें। इसी विचार पर वह जिंदा रहे और इसी के लिए शहीद हुए। इसी खूबसूरत विचार को प्रदर्शनकारी आगे लेकर बढ़ रहे हैं।

शायद यह सही वक्त है जब हम बताएं कि गांधी ने आजादी की खुशी में रखे गए सभी कार्यक्रमों से किनारा कर लिया था। जबकि यह वो आजादी थी, जिसके लिए वे दशकों से लड़ाई लड़ रहे थे। पहले स्वतंत्रता दिवस के दिन वे पूर्वी बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हुए लोगों के आंसू पोंछ रहे थे और हिंसा में शामिल लोगों के हृद्य परिवर्तन की कोशिश में लगे थे। हमें याद रखने की जरूरत है कि गांधी राम राज्य चाहते थे, न कि राम का बड़ा मंदिर।

अंबेडकर भी वापस आए हैं। उनकी वो तस्वीरें, जो सिर्फ झुग्गी-झोपड़ियों में लगी होती थीं, शर्म की बात ही कि जहां आज भी उनके हजारों लोगों को रहने पर मजबूर होना पड़ रहा है, आज अंबेडकर की वो तस्वीरें सड़कों पर हैं। जैसा एक छात्र ने कहा- ''यही वो बाबा साहेब थे, जिन्होंने हमारा संविधान बनाया।''

हम अंबेडकर को एक ऐसे इंसान के तौर पर जानते हैं, जिसने हिंदू धर्म द्वारा निचली जाति के लोगों के साथ हुए अन्याय को बदलने की कोशिश की। लेकिन अंबेडकर वो आदमी भी हैं, जिन्होंने हिंदू कोड बिल को सरकार द्वारा अचानक वापस लिए जाने पर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। यह एक ऐसा बिल था जिसमें धर्म के नाम पर महिलाओं के साथ होने वाले गलत व्यवहार को ठीक करने की बात थी। उस वक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि बिल का विरोध बहुत ज्यादा है। अंबेडकर के न्याय का विचार इस बात को सहन नहीं कर सका। हां, हम कह सकते हैं कि आज भी अंबेडकर प्रासंगिक हैं।

संविधान भी कोर्ट और वकीलों के हाथ से बाहर निकलकर आया है। प्रदर्शनकारियों को समझ में आ रहा है कि संविधान ने उन्हें कुछ ऐसे अधिकार दिए हैं, जिन्हें आसानी से छीना नहीं जा सकता। वह अनुच्छेद 14, 15 और 21 की बात करते हैं। अपने अधिकारों को पहचानना, उनपर दावे करने की पहली शर्त है।

''पंथनिरपेक्ष'' शब्द वापस आया है। इसे प्रस्तावना में रखा गया था, जो हमारे देश के मूल ढांचे का आधार है। लेकिन सालों-साल राजनेता इस शब्द का मजाक बनाते रहे। अब हम इसे को एक विशेष मतलब के साथ दोबारा देख रहे हैं। कई धर्मों वाले हमारे देश में ऐसे शब्द की निहायत जरूरत है। हमारे लिए पंथनिरपेक्ष का अर्थ शब्दकोष में दिए गए मतलब-''धर्म से न जुड़ा हुआ'' से नहीं हो सकता। इसका अर्थ हमारे लिए सभी ''धर्मों का समावेश'' है। मतलब सभी धर्मों की समानता।

देशभक्ति इस आंदोलन से वापस आई है। वह वाली नहीं, जिसमें किसी दूसरे को नीचा दिखाया जाता है। जिसमें आपके मुताबिक काम न करने पर दूसरे की देशभक्ति पर सवालिया निशान लगा दिए जाते हैं। यह वो देशभक्ति है, जिसमें आपसी नफरतों की कोई जगह नहीं है और हमारी असहमतियों के लिए भरपूर स्थान है। एक ऐसा भारत जिसमें सभी नागरिक समान हैं।

कुछ तस्वीरें भी रह जाएंगी। एक पुस्तकालय की दुखदायी तस्वीर, जिसमें शीशे टूटे हुए हैं, किताबें बिखरी हैं और छात्रों के बस्ते इधर-उधर पड़े हुए हैं। एक ऐसा पुस्तकालय, जहां पुलिस छात्रों के पीछे घुसी। कोई किसी पुस्तकालय में हिंसा और तोड़फोड़ पर क्या कह सकता है!!!
अच्छी बात यह है कि कुछ दूसरी तस्वीरें भी हमारे साथ रह जाएंगी। जिन्हें देखकर हम अपना सिर गर्व से ऊंचा उठा सकेंगे। ऐसी ही एक तस्वीर है, जिसमें युवा लड़कियां अपने साथी पुरुष को पुलिसवालों की लाठियों से बचा रही हैं। हमने देखा वो अपने दोस्त के आसपास गुस्से में खड़ी हैं और उसकी मदद करना चाहती हैं। जबकि पुलिस लड़िकयों के बीच से उसे बुरी तरह मार रही है।

एक युवा से जब पूछा गया कि वो कौन सी पार्टी से है, तो उसने अपने कंधे उचकाते हुए शरीर पर लपेटे तिरंगे की तरफ इशारा कर जवाब दिया कि ''यही मेरी पार्टी है''।

एक भूरे बाल वाली महिला से जब पूछा गया कि वो विरोध प्रदर्शन में क्यों और किसके साथ आई है। महिला ने कहा- ''सिर्फ मैं और मेरी बेटी। मुझे लगा कि हमें प्रदर्शनों में जाना चाहिए। मैं एक क्रिश्चियन हूं। मेरे पति हिंदू हैं और मेरे बच्चे भारतीय।'' यह एक ऐसी स्थिति है, जो लाखों भारतीयों की है। केवल धर्मों के नाम बदल जाते हैं।
 
अब हमसे CAA के बाद देशव्यापी NRC का वायदा किया गया है, इसके बीच में NPR है। हमसे कहा जा रहा है कि हमें NPR, NRC या इस प्रक्रिया के लिए जो भी शब्द हों, उनके लिए अपने दस्तावेज़ तैयार रखने चाहिए। मुझे शक है कि मेरे पास ऐसे दस्तावेज हैं, जो यह साबित कर पाएं कि यह देश मेरा है। लेकिन मैं उन लोगों में से हूं, जिनके पास सहूलियत है। मैं ऐसे परिवार से आती हूं, जहां शताब्दियों पुराने मेरे पुरखों का भी रिकॉर्ड है। इसलिए मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं है। फिर क्यों मैं चिंता कर रही हूं? देश में जो हो रहा है, उसे मैं इतने डर से क्यों देख रही हूं? क्या यह इसलिए है कि हमने अपने युवा प्रदर्शनकारियों के भाईचारे से कुछ सीखा है। यह वही सीख है जिसके बारे में पांच शताब्दियों पहले कवि जॉन डॉन ने लिखा ''कोई अकेला आदमी पूरा द्वीप नहीं हो सकता''?

सबसे खुशी की बात यह है कि किसी राजनीतिक पार्टी के बजाए, युवाओं ने यह लड़ाई शुरू की है। यह लड़ाई उस कानून के खिलाफ है जो संविधान में दिए गए हमारे समता के अधिकार को खतरे में डालता है। यह देखना सुखद है कि हमारे बच्चे और हमारे नाती-पोते भारत के पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र के विचार को वापस ला रहे हैं। उन्हें लड़ना ही चाहिए। यह अब उनकी दुनिया है।

(शशि देशपांडे ने कई उपन्यास, लघु कथाएं, निबंध और बच्चों के लिए कई दशकों तक किताबें लिखी हैं। उन्होंने मराठी और कन्नड़ से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। उनका हालिया उपन्यास 'स्ट्रेंजर टू अवरसेल्वस' है।)

साभार : आईसीएफ 

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