देश में 21.9 करोड़ आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे, गांवों की स्थिति गंभीर!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों में अक्सर मुफ़्त राशन वितरण का ज़िक्र सुना जा सकता है, इसे एक उपलब्धि के तौर पर पेश किया जाता है। अब इस राशन वितरण की ज़रूरत को समझने की कोशिश कीजिए...पैमाना कहता है कि ये उन्हीं लोगों को दिया जाता है जो ग़रीबी रेखा से नीचे होते हैं। यानी जब हमारे प्रधानमंत्री या कोई और बड़ा नेता इस राशन वितरण स्कीम को बहुत उत्साह के साथ आपके बीच रख रहा हो, तो दरअसल वो ये बता रहा होता है कि हमारे देश में आज भी बड़ी संख्या में ग़रीब हैं जिन्हें अपने भोजन संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी योजनाओं की आवश्यकता पड़ती है।
राशन वितरण स्कीम का हमने सिर्फ़ उदाहरण लिया है, बाकी ग़रीबी के आंकड़ों को कैबिनेट मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने संसद के शीतकालीन सत्र में पटल पर रखा है, जो अच्छे नहीं हैं। इंद्रजीत सिंह के मुताबिक़ आज भी देश में 21.9 करोड़ आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है। यहां ध्यान दीजिए कि ग़रीबी रेखा से भी नीचे...यानी जो पैमाना ग़रीबी के लिए तय है, 21.9 करोड़ लोग उससे भी ख़राब स्थिति में हैं।
राव ने ये भी बताया कि देश में ग़रीबी की स्थिति को बताने के लिए 2011-12 में इसे लेकर सर्वे करवाया गया था, जिसके बाद से अब तक इसे लेकर कोई आंकलन जारी नहीं हुआ है। इस सर्वे में ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 27 करोड़ आंकी गई थी।
अब सवाल ये उठता है कि ग़रीबी रेखा का स्तर तय कैसे होता है?
सरकार मानती है कि अगर गांव में रहने वाला व्यक्ति हर दिन 26 रुपये खर्च करने में असमर्थ है, और शहर में रहने वाला व्यक्ति 32 रुपये खर्च करने में असमर्थ है तो वो व्यक्ति ग़रीबी रेखा से नीचे माना जाएगा।
ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाला परिवार उनके बच्चों की मूलभूत सुविधाएं भी पूरी नहीं कर पाता, न तो वो परिवार अपने बच्चों को सही शिक्षा दिलवाने में समर्थ होता है और न ही स्वास्थ्य और पर्याप्त भोजन देने में।
यानी ये समझने वाली बात है कि अगर किसी परिवार में पांच लोग हैं, तो दो वक्त की सब्ज़ी का खर्च ही 100 रुपये के करीब होगा, कहने का अर्थ ये है कि ग़रीबी रेखा का पैमाना ही ग़रीबों का आंकलन बेईमानी से कर रहा है।
आपको बता दें कि कोरोना काल में ग़रीबी में जीवनयापन कर रहे लोगों के लिए भारी संकट का समय था, जब उन्हें ज़्यादा ब्याज़ पर क़र्ज़ लेकर अपना परिवार चलाना पड़ा। इस दौरान न सिर्फ़ उनके बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई बल्कि सही से भोजन मिलने में भी परेशानी का सामना करना पड़ा। इस समय हाशिए पर जो समुदाय थे, उन्हें और उनके परिवार को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा और कोविड ख़त्म होने के कुछ समय बाद तक उन्हें रोज़गार संबंधी परेशानियां आईं।
सीएमआईई यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने लॉकडाउन के बाद कुछ आंकड़े जारी किए थे, जिसमें बताया गया था कि बेरोज़गारी दर मई 2022 में 7.1 प्रतिशत से बढ़कर जून 2022 में 7.8 प्रतिशत हो गई, जिसमें ग्रामीण भारत में बेरोज़गारी दर में 1.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी।
नीति आयोग की रिपोर्ट क्या कहती है?
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, नीति आयोग ने 'राष्ट्रीय बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक: एक प्रगति संबंधी समीक्षा 2023' नाम से एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसके अनुसार साल 2015-16 से 2019-21 के दौरान 13.5 करोड़ लोग बहुआयामी ग़रीबी से मुक्त हुए हैं। नीति आयोग ने राष्ट्रीय बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक का ये दूसरा संस्करण पेश किया है, इसका पहला संस्करण नवंबर 2021 में पेश किया गया था।
देश में क्या है बहुआयामी ग़रीबों की संख्या?
भारत में साल 2015-16 में 24.85 प्रतिशत आबादी बहुआयामी ग़रीब थी, जो 2019-21 में घटकर 14.96 प्रतिशत पर आ गई, हालांकि इससे मुंह नहीं फेरा जा सकता कि देश की 15 प्रतिशत आबादी अभी भी बहुआयामी ग़रीबी में जीवनयापन कर रही है, जो चिंताजनक आंकड़े हैं।
अब अगर इस बहुआयामी ग़रीबी को लेकर शहर और गावों में तुलना की जाए, तो अब भी गांव अव्वल है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ शहरी क्षेत्रों में ग़रीबी जहां 8.65% से घटकर 5.27% हो गई, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबी 32.59% से घटकर 19.28% प्रतिशत पर ही आई है। हालांकि नीति आयोग ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच इस अंतर पर चिंता भी ज़ाहिर की है।
ग्रामीण इलाकों में ग़रीबी बरकरार रहने के बहुत से कारण हैं, जैसे शिक्षा व्यवस्था अच्छी नहीं होना, दिन भर में अनगिनत बिजली कटौती होना, खाद्य, डीजल जैसी खेती के लिए महत्वपूर्ण चीज़ों का महंगा हो जाना, वक्त पर बारिश नहीं होना, खेती ख़राब हो जाना, फिर शिक्षा की हालत किसी से छिपी हुई नहीं है।
ये वो चीज़ें हैं जो गावों में परिवार चलाने के लिए मिलने वाली आमदनी का एक अहम हिस्सा हैं, लेकिन इनका अभाव और इनकी अनदेखी अब भी हालात जस के तस बनाए हुए हैं।
अब जैसे हमने शुरुआत में एक उदाहरण राशन वितरण का लिया था, कि कैसे राशन वितरण कर ग़रीब को ग़रीब ही बनाए रखने का पूरा राजनीतिक तानाबाना है। जबकि सरकारों को राशन की बजाए या फिर राशन के साथ-साथ नौकरी वाले वादों पर भी अमल करना चाहिए। लोगों को रोज़गार देना चाहिए।
लेकिन सवाल ये भी है कि रोज़गार मिले तो मिले कैसे? जब केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह खुद यह जानकारी लोकसभा में दे रहे हैं कि साल 2018-19 से 2023-24 तक 1,06,561 कंपनियां किसी न किसी कारण से बंद हो गई हैं।
केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने बताया कि पिछले पांच सालों में 1168 कंपनियां दिवालिया हो गईं, इनमें से 633 को दिवालिया घोषित कर दिया गया है बाकी मामलों में प्रक्रिया जारी है। कंपनियां बंद होने में ज़्यादातर मामलों में 6 से 8 महीने लगे और कुछ मामलों में यह वक्त 12 से 18 महीने तक पहुंच गया।
वैसे तो इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि ग़रीबी का सबसे बड़ा कारण लोगों के पास रोज़गार का न होना है, जिस पर हमारी सरकारों को ध्यान देनें की ज़रूरत है। मग़र रोज़गार देकर देश के परिवारों की ग़रीबी दूर करने की बजाए, सरकारें तत्काल वोट पाने के लिए मुफ़्त वाला फॉर्मूला लागू करती हैं। ये मुफ़्त का फॉर्मूला मौजूदा वक्त में तो अपना साइड इफेक्ट दिखा ही रहा है, लेकिन भविष्य में भी ये देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ने का कारण बन सकता है।
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