मोदी राज के 9 साल: संविधान और सामाजिक ताने-बाने पर हमले कभी नहीं रुके
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नेतृत्व के निष्ठावान स्वयंसेवक और देश के बड़े उद्योग घरानों के रक्षक-शुभचिंतक नरेंद्र मोदी का देश के प्रधानमंत्री के रूप में 10वां और दूसरे कार्यकाल काल का आखिरी साल शुरू हो गया है। नौ साल पहले मई 2014 में प्रधानमंत्री बनने से पहले वे करीब साढ़े बारह साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे। उनके मुख्यमंत्री बनने के थोड़े समय बाद ही गुजरात में मुसलमानों का भीषण नरसंहार हुआ था लेकिन बाद में प्रचार माध्यमों के जरिए उन्होंने अपनी विकास पुरुष की छवि बनाई थी। इसी छवि के सहारे वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उन्होंने देश की जनता से 60 महीने मांगते हुए कई वादे किए थे और तरह-तरह के सपने दिखाए थे। उन वादों और सपनों का लब्बोलुआब यह था कि वे पांच साल में भारत को विकसित देशों की कतार में ला खड़ा कर देंगे।
मोदी ने जिन वादों पर पांच साल जनता से मांगे थे, उनमें प्रमुख थे- किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी, देश का कोई व्यक्ति बेघर नहीं रहेगा, विदेशों में जमा अरबों-खरबों का काला धन वापस लाकर उसे देश के व्यक्ति में बांटेंगे, हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार देंगे, महंगाई पर लगाम लगाई जाएगी, देश के प्रमुख शहरों के बीच बुलेट ट्रेन चलाई जाएगी, देश में 100 स्मार्ट सिटी बनाई जाएंगी, जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मुकदमों के त्वरित निबटारे के लिए विशेष अदालत स्थापित की जाएगी और सुनिश्चित किया जाएगा कि आपराधिक प्रवृत्ति के लोग संसद और विधानसभाओं में न पहुंच सके।
देश की जनता ने उनके वादों पर एतबार करते हुए उन्हें न सिर्फ पांच साल का एक कार्यकाल सौपा बल्कि उस कार्यकाल में तमाम मोर्चों पर उनकी नाकामी के बावजूद उन्हें पूर्ण बहुमत के साथ पांच साल का दूसरा कार्यकाल भी दिया। यही नहीं, इस दौरान कई राज्यों में भी भाजपा की सरकारें बन गईं- कहीं स्पष्ट जनादेश से तो कहीं विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त और सीबीआई, ईडी आदि केंद्रीय एजेंसियों की मदद से जनादेश का अपहरण करके।
लेकिन दुनिया ने देखा है कि सत्ता में आने कुछ समय बाद ही मोदी की प्राथमिकताएं बदल गईं। वे अपने इन सारे वादों को भूल गए। आठ वर्षों के दौरान उनकी सरकार और पार्टी का एक ही मूल मंत्र हो गया- 'विकास का झंडा और नफरत का एजेंडा।’ इसी मंत्र के साथ काम करते हुए मोदी सरकार अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर तो बुरी तरह नाकाम साबित हो ही रही है, देश के अंदरुनी यानी सामाजिक हालात भी बेहद असामान्य बने हुए है। पिछले सात-आठ वर्षों के दौरान देश के भीतर बना जातीय और सांप्रदायिक तनाव-टकराव का समूचा परिदृश्य गृहयुद्ध जैसे हालात का आभास दे रहा है, जिसके लिए पूरी तरह उनकी सरकार और पार्टी की विभाजनकारी राजनीति जिम्मेदार है।
आठ साल पहले नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के ढाई महीने बाद जब 15 अगस्त 2014 को स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से पहली बार देश को संबोधित किया था तो उनके भाषण को समूचे देश ने ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों ने भी बड़े गौर से सुना था। विकास और हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की मिश्रित लहर पर सवार होकर सत्ता में आए मोदी ने अपने उस भाषण में देश की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर बदलने का इरादा जताते हुए देशवासियों और खासकर अपनी पार्टी तथा उसके सहमना संगठनों से अपील की थी कि वे अगले दस साल तक देश में सांप्रदायिक या जातीय तनाव के हालात पैदा न होने दें।
मोदी ने कहा था- ''जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक या आर्थिक आधार पर लोगों में विभेद, यह सब ऐसे जहर हैं, जो हमारे आगे बढ़ने में बाधा डालते हैं। आइए, हम सब अपने मन में एक संकल्प लें कि अगले दस साल तक हम इस तरह की किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे। हम आपस में लड़ने के बजाय गरीबी से, बेरोजगारी से, अशिक्षा से तथा तमाम सामाजिक बुराइयों से लड़ेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जो हर तरह के तनाव से मुक्त होगा। मैं अपील करता हूं कि यह प्रयोग एक बार अवश्य किया जाए।’’
इतना ही नहीं, मोदी ने अपने उस भाषण में पड़ोसी देश पाकिस्तान की ओर भी दोस्ती का हाथ बढ़ाने का संकेत दिया था। उन्होंने गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आतंकवाद आदि को भारत और पाकिस्तान की समान समस्याएं बताते हुए आह्वान किया था कि दोनों देश आपस में लड़ने के बजाय कंधे से कंधा मिलाकर इन समस्याओं से लड़ेंगे तो दोनों देशों की तस्वीर बदल जाएगी।
मोदी का यह भाषण उनकी स्थापित और बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल विपरीत, सकारात्मकता और सदिच्छा से भरपूर माना गया था। देश-दुनिया में इस भाषण को व्यापक सराहना मिली थी, जो स्वाभाविक ही थी। राजनीतिक और कारोबारी जगत में भी यही माना गया था कि जब तक देश में सामाजिक-सांप्रदायिक तनाव या संघर्ष के हालात रहेंगे, तब तक कोई विदेशी निवेशक भारत में पूंजी निवेश नहीं करेगा और विकास संबंधी दूसरी गतिविधियां भी सुचारु रूप से नहीं चल सकती है, इस बात को जानते-समझते हुए ही मोदी ने यह आह्वान किया है।
प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद उम्मीद लगाई जा रही थी कि उनकी पार्टी तथा उसके उग्रपंथी सहमना संगठनों के लोग अपने और देश के सर्वोच्च नेता के आह्वान का सम्मान करते हुए अपनी वाणी और व्यवहार में संयम बरतेंगे। लेकिन ऐसा रत्तीभर भी नहीं हुआ। प्रधानमंत्री की नसीहत को उनकी पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ता तो दूर, केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियो, सांसदों, विधायकों और पार्टी के प्रवक्ताओं-पदाधिकारियों ने भी तवज्जो नहीं दी। इन सबके मुंह से सामाजिक और सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाले नए-नए बयानों के आने का सिलसिला न सिर्फ जारी रहा बल्कि वह नए-नए रूपों में और तेज हो गया।
इसे संयोग कहे या सुनियोजित साजिश कि प्रधानमंत्री के इसी भाषण के बाद देश में चारों तरफ से सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की खबरें आने लगी। कहीं गोरक्षा और धर्मांतरण के नाम पर, तो कहीं मंदिर-मस्जिद और आरक्षण के नाम पर और कहीं वंदे मातरम्, भारतमाता की जय और जय श्रीराम के नारे लगवाने को लेकर। इसी सिलसिले में कई जगह महात्मा गांधी और बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्तियों को भी विकृत और अपमानित करने तथा कुछ जगहों पर नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने जैसी घटनाएं भी हुईं। हैरानी और अफसोस की बात तो यह है कि इन सारी घटनाओं का सिलसिला कोरोना जैसी भीषण महामारी के दौर में भी नहीं थमा और आज तो चरम पर है।
खुद प्रधानमंत्री मोदी का सार्वजनिक आचरण भी कभी एक धर्मनिरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री जैसा नहीं रहा है। वे अक्सर सरकारी संसाधनों से धार्मिक पर्यटन करते रहते हैं और उनके इस कार्यक्रमों का टीवी चैनलों पर सीधा प्रसारण होता है। ऐसा वे सामान्य दिनों में ही नहीं बल्कि चुनाव के दौरान भी करते हैं। उन्हें अपनी रैलियों में मतदाताओं से वोट के लिए धार्मिक अपील करने और मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने में भी कोई संकोच नहीं होता है।
पिछले नौ वर्षों के दौरान ही पुणे में तर्कशील आंदोलन के कार्यकर्ता डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कोल्हापुर में कम्युनिस्ट नेता गोविंद पानसरे, धारवाड़ में कर्नाटक विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति एमएम कलबुर्गी, बेंगलुरू में पत्रकार गौरी लंकेश आदि प्रतिष्ठित हस्तियां हिंदुत्ववादी संगठनों के कार्यकर्ताओं के हाथों मारी गईं तब भी प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे। उन्होंने इन हत्याओं की निंदा तक नहीं की।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश में एक और विचित्र चलन शुरू हुआ है, वह यह कि सरकार के किसी भी विरोधी या आलोचक रहे व्यक्ति की मौत पर खुशी मनाना और सोशल मीडिया में उस दिवंगत व्यक्ति का तरह-तरह से चरित्र हनन करना। किसी विरोधी नेता के गंभीर रूप से बीमार हो जाने पर उसकी बीमारी को लेकर मजाक उड़ाना भी आम बात हो गई है।
इस सिलसिले की शुरुआत मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद ही प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति की मौत से हो गई थी। अनंतमूर्ति मोदी के आलोचक थे। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई थी, तब मोदी समर्थकों ने पटाखे जलाकर और मिठाई बांट कर उनकी मृत्यु का जश्न मनाया था। उसके बाद सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश, अभिनेता इरफान, शायर राहत इंदौरी, पत्रकार विनोद दुआ आदि कई नाम हैं, जिनके मरने पर प्रधानमंत्री मोदी के मुरीदों ने खुलकर जश्न मनाया और दिवंगतों को तरह-तरह से अपमानित किया। ऐसा नहीं कि सोशल मीडिया में नियमित सक्रिय रहने वाले मोदी को इन सब बातों की जानकारी न हो, मगर उन्होंने अपने समर्थकों की इस प्रवृत्ति पर न तो कभी नाराजगी जताई और न उन्हें ऐसा करने से मना किया।
प्रधानमंत्री मोदी अगर चाहते तो इस तरह की घटनाओं और प्रवृत्तियों पर लगाम लग सकती थी। लेकिन उन्होंने इस बारे में कभी कोई पहल की ही नहीं। पूछा जा सकता है कि आखिर मोदी ने क्यों नहीं चाहा कि इस तरह की नफरत फैलाने वाली तमाम बातों और सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर अंकुश लगे? क्यों नहीं उन्होंने अपने समर्थकों को ऐसा करने से बाज आने को कहा? जब वे लोगों से गैस सब्सिडी छोड़ने को कह सकते हैं, स्वच्छ भारत अभियान का हिस्सा बनने की अपील कर सकते हैं, कोरोना काल में लोगों से ताली-थाली बजवा सकते हैं और लोग उनके कहने पर अपने घरों की लाइट बंद कर मोमबत्तियां जला सकते हैं, तो वे अपने समर्थकों से सांप्रदायिक नफरत और हिंसा रोकने को क्यों नहीं कह सकते?
दरअसल अव्वल तो जिस विचार परंपरा में मोदी की राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा हुई है, उसके चलते मोदी ऐसा कर ही नहीं सकते। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से लेकर देश के प्रधानमंत्री पद तक का सफर उन्होंने नफरत की राजनीति पर विकास और राष्ट्रवाद की चाशनी लपेट कर ही तय किया है। इसी राजनीति की वजह से ही वे अपने समर्थकों के नायक बने हुए हैं और उनके समर्थक उन्हें दैवीय शक्ति का प्रतीक और भगवान विष्णु का अवतार तक बताने में संकोच नहीं करते हैं।
मोदी भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि आरएसएस-भाजपा के कार्यकर्ताओं के बीच उनकी जो लोकप्रियता है, उसके पीछे यही सांप्रदायिक नफरत या मुसलमानों के प्रति द्वेष की राजनीति है। वे यह भी जानते हैं कि देश का जो खाया-अघाया और पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग उन्हें प्रकट तौर पर 'विकास पुरुष’ मान कर उनका मुरीद बना हुआ है, उसके भी अंतर्मन में उनकी हिंदू नायक की छवि ही पैठी हुई है और इसी छवि की वजह से वह महंगाई और बेरोजगारी के अभूतपूर्व संकट सहित तमाम तरह की दुश्वारियों को झेल रहा है।
परपीड़क मानसिकता के उनके इस समर्थक वर्ग को मुसलमानों के उत्पीडन और अपमान से राहत मिलती है। वह आश्वस्त है कि मोदी की वजह से ही आज देश में मुसलमान दोयम दर्जे का नागरिक बना हुआ है और आगे भी उसकी यह स्थिति मोदी की वजह से ही बनी रहेगी। इसीलिए मोदी के इस समर्थक वर्ग को न तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपये की गिरती हालत परेशान करती है और न ही चीन द्वारा भारतीय सीमाओं के अतिक्रमण पर वह उद्वेलित होता है।
चूंकि मोदी अपने समर्थकों के इस मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझते हैं, इसीलिए वे सांप्रदायिक नफरत और हिंसा की घटनाओं पर हमेशा न सिर्फ खामोश बने रहते हैं, बल्कि उपद्रवियों को कपड़े से पहचाने जाने वाले जैसे बयान देकर अपने समर्थकों को उकसाने का काम भी करते हैं। इन्हीं सबके बीच वे थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद किसी न किसी बहाने धार्मिक स्थानों पर जाकर वहां धार्मिक वेशभूषा धारण कर धार्मिक कर्मकांड के जरिए अपनी धर्मनिष्ठ हिंदू नायक की छवि भी बनाए रखते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में अपने आठ साल के कार्यकाल में उन्होंने यही सब किया है और कहने की आवश्यकता नहीं कि वे आगे भी यही करते रहेंगे। वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि जिस दिन उनकी यह छवि दरक गई उस दिन उनके समर्थकों की निगाह में उनकी कोई हैसियत नहीं रह जाएगी।
ये लेखक के निजी विचार हैं।
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