आशंकाओं, अनिश्चितताओं और उथल-पुथल के बीच संभावनाओं से भरा दौर
अगला एक साल देश के लिए भारी आशंकाओं, अनिश्चितताओं और उथल-पुथल के बीच संभावनाओं से भरा रहने वाला है।
हाल के दिनों के घटनाक्रम से अब शायद ही किसी के मन में-वह सत्ता का समर्थक हो या विरोधी- रंचमात्र भी संशय बचा हो कि मौजूदा निज़ाम राजनीतिक फायदे के लिए, कानून के राज और संवैधानिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने में किसी भी हद तक जा सकता है, ( बेशक कानून-संविधान को मानने का ढोंग जारी रखते हुए), और उसे रोकने वाला कोई नहीं है।
सारी संवैधानिक संस्थाएं सत्ता की निरंकुशता को रोक पाने में निष्प्रभावी हो चुकी हैं, कारण संलिप्तता ( compliciity ), सहमति, डर, लालच, सामाजिक दबाव के आगे समर्पण, वर्गीय प्रतिबद्धता जो भी हो। यह राहुल गाँधी के disqualification, अडानी- प्रकरण, पुलवामा हादसे पर सत्यपाल मलिक के खुलासे, अतीक प्रकरण आदि में विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका से साफ है।
अब यह सब दिन दहाड़े हो रहा है। समाज में एक ऐसा अंध-समर्थक वर्ग तैयार कर लिया गया है जो सब कुछ जानते समझते हुए इन कानून/संविधान विरोधी कृत्यों का खुल कर समर्थन कर रहा है क्योंकि यह सब उसकी अपनी गैर-लोकतान्त्रिक, साम्प्रदायिक मनःस्थिति के अनुरूप है और राजनीतिक रूप से फायदेमंद लग रहा है।
विपक्ष और लोकतान्त्रिक जनमत तो इस सबके विरुद्ध है ही, अब fence-sitters का एक हिस्सा भी यह महसूस करने लगा है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। वह नए तथ्यों, खुलासों , घटनाक्रमों की रोशनी में नए ढंग से सोचने के लिए मजबूर हो रहा है। अडानी पर हिंडनबर्ग के खुलासे ने मोदी की incorruptibility की छवि को डेंट किया है, साथ ही मोदी-राज में अर्थव्यवस्था की मजबूती के प्रति लोगों के विश्वास को डिगा दिया है। ठीक इसी तरह पुलवामा कांड के समय के जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के बयानों ने तमाम लोगों को-जिनके अंदर संवेदनशीलता और तार्किकता बची हुई है-पूरे मामले पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया है। लोग shocked हैं और राष्ट्रवाद के आवरण में लिपटी मोदी की राजनीति की असलियत के बारे में नई अनुभूति पर पहुंच रहे हैं। यह बदलाव महत्वपूर्ण है। उम्मीद है आने वाले चुनावों पर इसका असर देखने को मिलेगा।
जनसमुदाय तक खौफनाक सच्चाइयों को पहुंचने से रोकने के लिए विपक्ष की आवाज को दबाने, असुविधाजनक खबरों से ध्यान भटकाने, उन्हें discourse से बाहर करने के लिए नित नए विभाजनकारी एजेंडा पर पूरे समाज को उलझाने और अपने गढ़े झूठे नैरेटिव को स्थापित करने में ही सरकार तथा संघ-भाजपा की सारी सामर्थ्य इस समय लगी हुई है। जाहिर है इस अभियान में कारपोरेट पूँजी और उसकी स्वामिभक्त मीडिया का उसे all-out समर्थन हासिल है।
कितनी बड़ी विडंबना है कि जय श्रीराम हत्या के उद्घोष में बदल दिया गया है, वह हत्यारों का रक्षा कवच बन गया है। क्या यह अनायास है कि पोस्ट-गोधरा हिंसा के समय जब मोदी जी वहां मुख्यमंत्री थे, पूर्व सांसद एहसान जाफरी को लिंच करने वालों ने यही नारा लगाने को उनसे कहा था, जिससे इनकार करने पर उनके टुकड़े-टुकड़े किये गए। और अब जब मोदी जी प्रधानमंत्री हैं और उन्हीं की तर्ज़ पर हिन्दू हृदय सम्राट और उनका उत्तराधिकारी बनने की होड़ में लगे योगी जी UP के मुखिया हैं, तब एक और पूर्व सांसद और पूर्व-विधायक, जो पुलिस कस्टडी में थे, के हत्यारे यही नारा लगाते हैं और पुलिस उन पर एक गोली तक नहीं चलाती। इसे इस आधार पर justify किया जा रहा है कि दोनों भाई माफिया थे। पर बचे तो एहसान जाफरी भी नहीं, वे कौन से माफिया थे? वे तो शायर और ट्रेड union लीडर रहे थे! जय श्रीराम के नारों के बीच एहसान जाफरी की हत्या से अतीक की हत्या तक की इस यात्रा में बेहद मानीखेज समानता और सन्देश है।
क्या यह महज संयोग था कि पुलिस अभिरक्षा में अतीक-अशरफ की हत्या उसी समय होती है जब पुलवामा हादसे पर सतपाल मलिक के खुलासों से मोदी सरकार बुरी तरह घिरी हुई थी ?
दरअसल, मोदी-राज के 9 साल बाद भी कोई चुनाव जिताऊ उपलब्धि showcase कर पाने में विफल संघ-भाजपा back to basics हैं, सारी कोशिश येनकेन प्रकारेण naked polarisation, बहुसंख्यकवादी उन्माद उभारने पर केंद्रित होकर रह गई है।
पर लगता है अब यह सब पहले की तरह काम नहीं कर रहा। कर्नाटक में जो हो रहा है, वह कुछ ही दिनों पहले तक अकल्पनीय था। जिस कर्नाटक के हिजाब विवाद पर UP का चुनाव लड़ा गया, उसी कर्नाटक में ध्रुवीकरण की सारी तरकीबें लगता है fail हो गयी हैं। ' 40% कमीशन सरकार ' का नारा भाजपा पर चिपक गया है। मोदी और शाह की भाजपा में बगावत तो कोई सोच भी नहीं सकता था, पर आज छोटे स्थानीय नेता ही नहीं, पूर्व मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री तक इस्तीफा देकर विपक्षी खेमे में शामिल हो रहे हैं।
यह सब इसी विकासमान यथार्थ की अभिव्यक्ति है कि जनता के बेहद कठिन हो चुके जीवन के असली सवाल भारी पड़ रहे हैं- साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, अवसरवादी सोशल इंजीनियरिंग तथा लाभार्थी बनाकर 5 किलो अनाज के बदले वोट के शातिर खेल पर। जाहिर है deliver कर पाने और जनता की उम्मीदों पर खरा उतर पाने में नाकाम मोदी का प्रभामण्डल ( cult ) भी आकर्षण खोता जा रहा है, कर्नाटक में इसका भी परीक्षण होने जा रहा है।
राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के दलों के बीच वृहत्तर एकता की बढ़ती संभावना स्वागत योग्य है। जरूरत है कि एकताबद्ध होता विपक्ष राष्ट्रीय पुनर्निर्माण तथा लोक-कल्याण का ऐसा वैकल्पिक एजेंडा पेश करे जो मोदी-भाजपा द्वारा रचे गए व्यामोह की कारगर काट कर सके तथा बदहाल जनता को राहत और बेहतरी का ठोस आश्वासन दे सके।
इस वैकल्पिक कार्यक्रम में ऐसे ठोस नीतिगत बदलाव के सूत्र होने चाहिए जो पिछले 9 साल में हुए संवैधानिक व्यवस्था के ध्वंस को undo कर सकें तथा भविष्य में लोकतंत्र के साथ ऐसे खिलवाड़ को असम्भव बना दें, जो हर हाल में संवैधानिक मूल्यों के आधार पर राज्य के संचालन, सभी संस्थाओं तथा मीडिया की स्वतंत्रता एवं नागरिकों के अभिव्यक्ति और विरोध की आज़ादी जैसे मूलभूत अधिकारों की हर हाल में गारंटी करें, उन सारे काले कानूनों का खात्मा इसका अहम हिस्सा हो, जिन्होंने अनगिनत प्रतिरोध की आवाजों को कुचल दिया है और उन्हें जेल के सींकचों में जकड़े हुए है।
विपक्ष के वैकल्पिक एजेंडा का दूसरा प्रमुख घटक जनता के विभिन्न तबकों को मौजूदा बदहाली से निकालने और उनकी बेहतरी पर केंद्रित हो। किसानों को MSP की कानूनी गारंटी तथा युवाओं के रोजगार को कानूनी/संवैधानिक अधिकार का दर्जा देने तथा 1 करोड़ से ऊपर सरकारी खाली पदों को time-bound भरने का वायदा तथा सब के लिए सुलभ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवम स्वास्थ्य के अधिकार की कानूनी गारंटी वैकल्पिक एजेंडा का अनिवार्य अंग हों।
सामाजिक न्याय का सवाल जो मोदी राज में दलित-आदिवासी राष्ट्रपति-राज्यपाल जैसी प्रतीकात्मकता में सिमट कर रह गया है, वह विपक्ष के लिए डॉ. अंबेडकर या कांशीराम के नाम पर प्रतीकात्मक कार्यक्रमों या महज जाति जनगणना के सवाल में reduce होकर न रह जाय, वरन सामाजिक अन्याय के सभी मूलभूत सवालों को सुसंगत ढंग से एड्रेस करे और यह हमारे बहुस्तरीय social pyramid के सबसे निचले पायदान तक, सभी वंचित तबकों तक पहुंच सके, इसके लिए ठोस नीतिगत बदलाव का विपक्ष आश्वासन दे।
चौतरफा बढ़ती anti-incumbency-जनता की बदहाली, संवैधानिक राज के ध्वंस, भ्रष्टाचार-घोटालों, जवानों की रक्षा-राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ जैसे आरोपों में घिरते संघ-भाजपा के failed राज के बरख़िलाफ़ संविधान के राज की पुनर्बहाली, आर्थिक बेहतरी तथा सुसंगत सामाजिक न्याय के ठोस वैकल्पिक कार्यक्रम के साथ एकताबद्ध विपक्ष निश्चय ही जनता की उम्मीद और आकर्षण का केंद्र बन सकता है और 2024 की बाजी पलट सकता है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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