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‘सिक्किम आपदा के बाद...हिमालय में अब कोई हाईड्रो प्रोजेक्ट्स नहीं होने चाहिए’

जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. सीपी राजेंद्रन का कहना है कि भारत को एक ऑनलाइन आपदा सूचना नेटवर्क की ज़रूरत है जो पुराने और वर्तमान आंकड़ों पर निर्भर हो।
Sikkim Flood

उत्तरी सिक्किम में तीस्ता नदी में बुधवार, 4 अक्टूबर, 2023 को बाढ़ आ गई। फोटो: पीटीआई

भूकंप भूविज्ञान और टेक्टोनिक्स में विशेषज्ञता रखने वाले पृथ्वी वैज्ञानिक डॉ सीपी राजेंद्रन, जो हिमालय की प्लेट सीमा प्रणालियों के साथ भूकंप पैदा होने पर ख़ास ध्यान रखते हैं, उनका मानना है कि अब समय आ गया है जब सरकार हिमालय में जल विद्युत परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण के अपने कार्यक्रम का गंभीरता से पुनर्मूल्यांकन करे। सरकारी एजेंसियों को भी इन संवेदनशील इलाकों में उपचारात्मक कार्रवाई तेज़ करने की ज़रूरत है क्योंकि हाल ही में सिक्किम बांध आपदा के कारण कई लोगों ने अपनी जान गवाई या गायब हैं। खतरे के परिदृश्य को जांचने और मॉडलों के साथ-साथ भूमि जोनेशन मानचित्रों को विकसित करने के लिए एक ख़ास प्रयास करने की ज़रूरत है जो बाढ़ और भूस्खलन की संभावना वाले इलाकों का सीमांकन करते हों। पेश हैं रश्मि सहगल द्वारा लिए गए साक्षात्कार के संपादित अंश:

पिछले एक दशक में भारत के भीतर तीन बड़ी ग्लेशियर आपदाएं सामने आई हैं- जो केदारनाथ, चमोली और अब सिक्किम के दक्षिण लहोनक में केन्द्रित हैं। आपको क्या लगता है कि इन आपदाओं से हमें क्या सीख मिली?

सिक्किम आपदा, 2013 में केदारनाथ और 2021 में चमोली जैसी घटनाओं का दोहराव लगती हैं - घटनाओं का एक क्रम जो बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग प्रवृत्ति और पहाड़ी ग्लेशियरों के निरंतर पिघलने के कारण बढ़ते जोखिम को दर्शाता है। अनियमित निर्माण, पनबिजली परियोजनाओं और संबंधित मानवजनित गतिविधियों के समन्वय से ये घटनाएं बड़े पैमाने पर आपदाओं में विकसित होती हैं। हिमालय में बार-बार हिमनद आपदाओं के बावजूद, मुझे नहीं लगता कि हमने सीखने में कोई वास्तविक प्रगति की है।

आपको क्यों लगता है कि उपरोक्त से कोई सबक नहीं सीखा गया है?

2013 में केदारनाथ ग्लेशियर झील के फटने की त्रासदी इस तरह के खतरों से निपटने की तैयारी के लिए एक बड़ा बिगुल बजने जैसा था। 2023 की सिक्किम आपदा, जिसमें पहली बार एक बड़ी पनबिजली परियोजना को पूरी तरह से टूटते देखा गया था, हमें बताती है कि राज्य और केंद्र सरकारें निर्णय लेने में पूरी तरह से अप्रभावी रही हैं। वे वैज्ञानिक अध्ययनों में किए गए पूर्वानुमानों की अनदेखी करके संवेदनशील इलाकों में उपयुक्त उपचारात्मक कार्रवाई करने में विफल रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि सिक्किम विज्ञान और प्रौद्योगिकी इकाई 2013 के अध्ययन का खुद हिस्सा थीं।

सिक्किम की घटना एक बार फिर इस बात की याद दिलाती है कि वर्तमान में भारत में प्राकृतिक आपदाओं को जांचने या अनुमान लगाने की क्षमताओं का अभी भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। आधिकारिक एजेंसियों के दावों के बावजूद, बादल फटने का पता लगाने में सक्षम डॉपलर मौसम रडार ठीक से संचालित नहीं हो रहे हैं और राष्ट्रीय आपदा संचार नेटवर्क और सूचना विज्ञान प्रणाली ड्राइंग बोर्ड पर बनी हुई है। भारत को एक ऑनलाइन आपदा सूचना नेटवर्क की ज़रूरत है जो पिछली घटनाओं पर अभिलेखीय डेटा का इस्तेमाल कर वर्तमान डाटा के साथ मिलान कर सके।

आपको क्यों लगता है कि हम उचित प्रक्रियाओं और निवारक तरीकों को लागू नहीं करंगे जो ऐसी आपदाओं के प्रभाव को कम करने में मदद करे सकते हैं?

सिक्किम आपदा से पता चलता है कि इस तरह के खतरों पर दी गई बार-बार चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया गया था। वैज्ञानिकों के साथ परामर्श करने और उनकी सिफारिशों को गंभीरता से लेने के लिए सरकारों की ओर से रुचि और प्रतिबद्धता की कमी है।

इसके मूल में लगातार चलाए जाने वाले आउटरीच कार्यक्रम के साथ-साथ आपदा से निपटने की तैयारी के साथ बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है। हिमालय के पूरे खंड को भूकंप के साथ-साथ बाढ़ आपदाओं की संभावना के संदर्भ में विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।

खतरे के परिदृश्य और मॉडलों के साथ-साथ भूमि जोनेशन मानचित्रों को विकसित करने के लिए एक ख़ास प्रयास करने की ज़रूरत है जो बाढ़ और भूस्खलन की संभावना वाले इलाकों का सीमांकन करते हों। साथ ही, राजमार्ग निर्माण और बांध निर्माण सहित मेगा बुनियादी ढांचा परियोजनायें जिन्हें पर्यावरणीय प्रभाव को ध्यान में रखे बिना युद्ध स्तर पर लागू किया गया है।

मानव गतिविधियों को बाढ़ के मैदानों और जहाँ नदी का जलस्तर बहुत अधिक होता है से दूर सुरक्षित इलाकों तक सीमित किया जाना चाहिए।

आज के कंप्यूटिंग पैकेज, स्थिरता के साथ-साथ भूमि इस्तेमाल पर मांगों को संतुलित कर सकते हैं और जोखिम के स्वीकार्य स्तरों के भीतर अधिकतम परिदृश्य के बाते में बता सकते हैं। एक यथार्थवादी शमन रणनीति किसी एक ब्लूप्रिंट पर आधारित होनी चाहिए जो विकास और जोखिम और अर्थशास्त्र के स्वीकार्य स्तरों के बीच संतुलन बनाती है।

प्रमुख ग्लेशियोलॉजिस्ट और भूवैज्ञानिकों द्वारा सरकार को दिए गए वैज्ञानिक इनपुट को बार-बार नजरअंदाज क्यों किया जाता है? यह हमारे राजनेताओं और नौकरशाहों से कैसे प्रतिबिंबित होता है?

शोधकर्ताओं के विभिन्न समूहों द्वारा किए गए उपग्रह-जनित रिमोट सेंसिंग डेटा के विश्लेषण से पता चला है कि सिक्किम हिमालय में कई ग्लेशियल झीलों ने ग्लेशियरों के पीछे हटने के साथ उसने अपनी स्थानिक सीमा का विस्तार किया है। 45 वर्षों के अंतराल में ल्होनाक और दक्षिण ल्होनाक ग्लेशियल झीलों का विस्तार भी महत्वपूर्ण पाया गया और दोनों को संभावित ग्लोफ या ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड स्रोतों के रूप में चिह्नित किया गया है।

मैं चार धाम सड़क चौड़ीकरण कार्यक्रम या जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण सहित कई उदाहरण दे सकता हूं, जिस पर हमारे राजनेता और नौकरशाह वैज्ञानिकों के अध्ययन किए गए विचारों को ध्यान में नहीं रखते हैं। सरकार के अधिकांश निर्णय राजनीतिक और अल्पकालिक वित्तीय हितों से प्रेरित होते हैं और विज्ञान और दीर्घकालिक कल्याणकारी उपायों से कम प्रेरित होते हैं। हमारी [वैज्ञानिकों की] ओर से, मैं दृढ़ता से तर्क देता हूं कि वैज्ञानिकों को, वैज्ञानिक प्रगति के लिए अपनी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता के हिस्से के रूप में, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि सरकारी एजेंसियों द्वारा और नीति निर्माण प्रक्रिया में उनके शोध और अंतर्दृष्टि का उपयोग कैसे किया जा रहा है।

एक उदाहरण पर गौर करें तो दक्षिण ल्होनाक झील के बढ़ते आकार पर पहली चेतावनी साल 2001 में दी गई थी। तब से इसका आकार केवल बढ़ा ही है। और फिर खराब मौसम आया। यह सब क्या दर्शाता है? क्या हर कोई साइलो में काम कर रहा है?

सिक्किम की पहली मानव विकास रिपोर्ट, जो 2001 में तैयार की गई थी, ग्लेशियर के पीछे हटने और ग्लेशियल झील के फटने पर चर्चा करती है। पुणे में सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग द्वारा सिक्किम स्टेट काउंसिल ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के साथ 2013 में किए गए उपग्रह जनित रिमोट सेंसिंग डेटा के संयुक्त विश्लेषण से यह भी पता चला है कि सिक्किम ने हिमालय में कई ग्लेशियल झीलों ने ग्लेशियरों के पीछे हटने के साथ अपनी स्थानिक सीमा का विस्तार किया है।

45 साल के अंतराल में ल्होनाक और दक्षिण ल्होनाक ग्लेशियल झीलों का विस्तार महत्वपूर्ण पाया गया, और दोनों को संभावित झील विस्फोट स्रोतों के रूप में चिह्नित किया गया है। भारतीय विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में बाद के अध्ययनों द्वारा भी सिक्किम की घटना का पूर्वानुमान लगाया गया था। अध्ययनों से पता चलता है कि पिछले 29 वर्षों में झील को फीड करने वाले ग्लेशियर की लंबाई 6.4 हजार से घटकर 5.1 किलोमीटर हो गई है, जबकि समग्र ग्लेशियर 0.96 वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ गया है। ग्लेशियर के पीछे हटने के अनुरूप, झील वर्षों से तेजी से बड़ी होती जा रही है। यह एक रहस्य है कि सिक्किम सरकार ने इन सभी अध्ययनों को नजरअंदाज करने का विकल्प क्यों चुना है। यह अन्य हिमालयी राज्यों की सरकारों के लिए भी एक सबक है जो कुछ तथाकथित विकास परियोजनाओं के ख़िलाफ़ सलाह देने वाले वैज्ञानिक अध्ययनों की आसानी से अनदेखी करते नज़र आते हैं।

नौ साल पहले वैज्ञानिक डॉ. रवि चोपड़ा ने हिमस्खलन संभावित इलाकों में स्थापित की जा रही जल विद्युत परियोजनाओं में पूर्व चेतावनी प्रणाली स्थापित करने की ज़रूरत पर बल दिया था, लेकिन चमोली में ऐसा नहीं किया गया और तीस्ता III बांध में भी ऐसा नहीं किया गया था। नतीजा यह हुआ कि 1200 मेगावाट का महत्वपूर्ण तीस्ता ऊर्जा बांध ल्होनक झील से बहने वाले बाढ़ के पानी की ताक़त से दस मिनट में नष्ट हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इन अर्ली वॉर्निंग सिस्टम को लगाने का आदेश दिया था लेकिन इसे भी नजरअंदाज कर दिया गया। इस पर आपका क्या कहना है?

सुप्रीम कोर्ट के अलावा, एक संसदीय समिति ने 29 मार्च, 2023 को लोकसभा में पेश अपनी रिपोर्ट में "हिमालयी इलाकों में मौसम विज्ञान और निगरानी स्टेशनों की गंभीर कमी" का मुद्दा उठाया था।

इस आपदा के प्रभाव को कम किया जा सकता था यदि तीस्ता III के बांध के गेट खोलने में उचित प्रक्रियाओं का पालन किया गया होता। ऐसा करने के लिए, बाढ़ पर पूर्व चेतावनी प्रणाली कार्य कर रही होनी चाहिए थी। इससे बांध के इंजीनियरिंग डिजाइन पर भी सवाल खड़े होते हैं। क्या तीस्ता बांध, जो 2017 में बनकर तैयार हुआ था, एक इंजीनियर शोध की कमी से बनी संरचना थी जो 4 अक्टूबर की बाढ़ की ताक़त का सामना करने में असमर्थ थी? यदि हां, तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए?

वैज्ञानिकों ने 2,000 मीटर से अधिक ऊंची पनबिजली परियोजनाएं स्थापित करने के ख़िलाफ़ भी चेतावनी दी है और कहा है कि ऊपरी हिमालयी इलाके ऐसी परियोजनाओं के लिए उपयुक्त नहीं हैं।

अरुणाचल प्रदेश से कश्मीर तक हिमालय के पूरे इलाके में कई बांध बनाए गए हैं या बनाए जा रहे हैं - एक ऐसा इलाका जो मेगा भूकंप सहित विभिन्न प्रकार के खतरों के लिए सबसे अधिक संवेदनशील है। सिक्किम आपदा इस इलाके में बनाई जा रही विभिन्न जल विद्युत परियोजनाओं पर पुनर्विचार करने का एक मजबूत इशारा है। क्या होता अगर निचले हिस्से में तीस्ता V ने बाढ़ के पानी का सामना नहीं किया होता और इसके बजाय तीस्ता III की तरह टूट गया होता? इन दोनों बांधों से निकलने वाले पानी से पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग हिस्से में नीचे की ओर और ज़्यादा बांध टूट सकते थे, जिसके परिणामस्वरूप एक अभूतपूर्व मानवीय त्रासदी हो सकती थी। सिक्किम की घटना हमें पीछे हटने और हिमालय में बड़े पैमाने पर बांधों के निर्माण में निहित खतरों का पुनर्मूल्यांकन करने पर मजबूर कर रही है।

क्या आप इन बाढ़ों की उतनी सावधानी से निगरानी न करने में केन्द्रीय जल आयोग की भूमिका के बारे में उठाए जा रहे प्रश्नों के बारे में भी बात कर सकते हैं, जितनी सावधानी से उन्हें करनी चाहिए थी।

केन्द्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने तीस्ता नदी के ऊपरी हिस्से में कुछ स्थानों पर बाढ़ निगरानी केन्द्र बनाए हुए हैं। यदि उन्होंने डेटा एकत्र किया था, तो वे आने वाली बाढ़ की समय पर चेतावनी क्यों नहीं जारी कर सकते थे? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए, मैं संसदीय समिति द्वारा "देश में ग्लेशियर प्रबंधन- हिमनदों/झीलों की निगरानी- हिमनदों के प्रकोप सहित ग्लेशियरों/झीलों की निगरानी" पर प्रस्तुत रिपोर्ट के एक अंश को उद्धृत करना चाहूँगा, जिसके कारण हिमालयी इलाके में अचानक बाढ़ आती है:

उन्होंने कहा, "सीडब्ल्यूसी नदियों में बाढ़ के बारे में सूचना देने के लिए नोडल संगठन है. केन्द्रीय जल आयोग की बाढ़ पूर्वानुमान प्रक्रिया में एक मानक प्रचालन प्रक्रिया (एसओपी) होती है जिसका निष्ठापूर्वक पालन किया जाता है। इस एसओपी को हर साल अप्रैल और सितंबर के दौरान दो बार अपडेट किया जाता है। इसके अलावा, भारी वर्षा, बांध टूटने, ग्लेशियल झील के फटने, भूस्खलन बांध टूटने, बांधों से छोड़े जाने आदि के कारण बाढ़ की आपात स्थिति का जवाब देने के लिए उपयुक्त प्रशासनिक प्राधिकरण से संबंधित संकट से निपटने और पूर्व चेतावनी देने के लिए, केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय (जल संसाधन विभाग, आरडी एंड जीआर) की संकट प्रबंधन योजना (सीएमपी) तैयार की गई है। ऐसे किसी भी संकट के मामले में, सीएमपी में दिए गए प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन किया जाता है। सीएमपी को हर साल अपडेट किया जाता है।

यदि एसओपी लागू है और बाढ़ पूर्वानुमान उपाय फुलप्रूफ थे जैसा कि सीडब्ल्यूसी ने दावा किया है, तो सिक्किम संकट को संबंधित एजेंसियों द्वारा इतनी घटिया तरीके से क्यों संभाला गया? जाहिर है, इन इलाकों में सभी तरह के मौसम की निगरानी प्रणाली बनाए रखने के लिए बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है। यदि एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली काम करती होती, तो दक्षिण ल्होनाक झील का प्रकोप कोई आपदा नहीं बन पता।

ग्लेशियर तेजी से घट रहे हैं। ग्लेशियल झीलों की संख्या बढ़ रही है और उनसे खतरा केवल बढ़ने वाला है। इन त्रासदियों की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए सरकार को क्या कार्रवाई करनी चाहिए?

सिक्किम आपदा और केदारनाथ व चमोली की पिछली आपदा मानव निर्मित हैं - चेतावनी और पूर्वानुमान के बावजूद खराब निर्माण और तैयारियों की कमी का परिणाम है। जलवायु परिवर्तन और भूकंप की क्षमता के संदर्भ में हिमालयी राज्यों के लिए विकास मॉडल पर गंभीरता से पुनर्विचार किया जाना चाहिए। एक विकेन्द्रीकृत और सहभागी नियोजन प्रक्रिया को व्यवहार में लाया जाना चाहिए, जिसमें प्रमुख हितधारकों- लोगों उनकी प्रतिक्रिया को ध्यान में रखा जाना चाहिए, न कि एक टॉप-डाउन कमांड सिस्टम का किया जाए, वह भी जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिक कमजोरियों और स्थिरता की पृष्ठभूमि में तो ऐसा नहीं किया जाना चाहिए।

जिस संसदीय समिति का मैंने पहले जिक्र किया था, उसने ग्लेशियर प्रबंधन पर अपनी रिपोर्ट में, ग्लेशियल झील के प्रकोप पर चर्चा करते समय, हिमालयी भू-भाग में सड़क-चौड़ीकरण और बांधों के निर्माण जैसी विशाल बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर आसानी से चुप रहना चुना, जो हिमनदों की बाढ़ और हिमस्खलन के प्रभावों को बढ़ाते हैं।

इसके लिए, हम हानिकारक भूकंपों की क्षमता को भी ध्यान में रख सकते हैं। हमें हिमालय में सभी जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर रोक लगानी चाहिए। हिमालय में अब कोई पनबिजली परियोजनाएं नहीं होनी चाहिए और न ही सुरंगों का निर्माण या सड़कों को चौड़ा करना चाहिए। सिक्किम आपदा इस तर्क को खारिज करती है कि जल विद्युत परियोजनाएं हानिरहित और पर्यावरण के अनुकूल हैं। 2019 क्लाइमेट एक्शन समिट में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा था: "प्रकृति नाराज़ है। अगर हमें लगता है कि हम प्रकृति को मूर्ख बना सकते हैं तो हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं। क्योंकि प्रकृति हमेशा पलटवार करती है। और दुनिया भर में, प्रकृति बड़ी नाराज़गी के साथ वापस आ रही है।

(रश्मि सहगल स्वतंत्र पत्रकार हैं)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

‘After Sikkim Disaster…There Should be no More Hydro Projects in Himalayas’

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