Ajmer 92 : थोड़ा सच और बहुत कुछ काल्पनिक, जानें इस गैंगरेप और ब्लैकमेल कांड की असल कहानी
बीते दिनों बॉलीवुड के गलियारों से कई ऐसी फिल्में आईं जिन्हें अलग-अलग दौर की सत्य घटनाओं पर आधारित बताया गया। इन फिल्मों में आप कश्मीर फाइल्स, द केरला स्टोरी और अज़मेर92 का नाम ले सकते हैं। ये वो फिल्में हैं, जिन्होंने कुछ बड़ी त्रासदियों को हमारे सामने रखा। हालांकि ये सभी विवादों में खूब रही और राजनीतिक, धार्मिक तनाव से जोड़कर इन पर तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश करने का आरोप भी लगा और इन्हें फेक प्रोपेंगेडा भी कहा गया। कहीं कलात्मक छूट तो कहीं मनगढ़ंत कहानी के साथ यह फ़िल्में परदे पर उतारी गईं मगर आधी-अधूरी सच्चाई के साथ।
हालिया रिलीज हुई फिल्म अज़मेर92 की शुरुआत में एक पत्रकार का डायलॉग है कि 'अजमेर में 1992 में क्या हुआ था, इसकी सच्चाई मैं बताता हूं।' ये फिल्म जिस पत्रकार की कहानी से आगे बढ़ती है वास्तव में उनका नाम संतोष गुप्ता है, जिन्हें फिल्म में माधव के किरदार से दिखाने की कुछ हद तक कोशिश की गई है। ये कोशिश हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वास्तव में संतोष गुप्ता इस फिल्म की ज्यादातर कहानी से इत्तेफाक नहीं रखते। संतोष गुप्ता दैनिक नवज्योति के वही पत्रकार हैं, जिन्होंने 1992 में अजमेर ब्लैकमेल और बलात्कार कांड की पूरी खबर लोगों के सामने अपनी लेखनी के माध्यम से एक्सपोज़ किया था।
न्यूज़क्लिक से खास बातचीत में संतोष गुप्ता ने लगभग तीन दशक पुराने इस सामूहिक बलात्कार और ब्लैकमेल कांड की कहानी साझा करते हुए, मीडिया, राजनीति और पुलिस प्रशासन के नेक्सेस पर भी अपनी बात रखी। संतोष गुप्ता इस पूरे स्कैंडल के अब सनसनी बनने और गलत जानकारियों से इंटरनेट के पटने पर भी चिंता व्यक्त करते हैं। उनकी जानकारी में फिल्म आधी-अधूरी बात कहती है क्योंकि इसके मेकर्स ने कभी ग्राउंड ज़ीरो की सच्चाई को ठीक से समझा नहीं है।
फ़िल्म मेकर्स ने कोई संपर्क नहीं किया
संतोष गुप्ता कहते हैं कि फिल्म मेकर्स ने उनसे इस संबंध में कभी संपर्क नहीं किया, न ही पीड़िताओं से बात की है, फिर उन्हें इस पूरी घटना की सटीक सच्चाई कैसे पता चल सकती है। वो इस बात के लिए संतोष जाहिर करते हैं कि इस फिल्म के जरिए अब लोगों में इस घटना को जानने की उत्सुकता है लेकिन वो इसे उन पीड़िताओं के लिए मदद के तौर पर नहीं देखते जिन्हें 30 साल बाद भी न्याय नहीं मिला और अब भी एक अरसा बीतने के बाद उन्हें कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं।
ट्रेलर, फिल्म, मीडिया रिपोर्ट्स से ये तो अब तक लगभग सभी जान चुके हैं कि 90 के दशक में अज़मेर में कई स्कूल-कॉलेज की लड़कियों के साथ गैंगरेप और ब्लैकमेलिंग हुई। ये सब राजनीतिक रूप से जुड़े परिवारों के कुछ नौजवानों ने किया। पीड़ित लड़कियों की संख्या कुल कितनी थी और वास्तव में आरोपी कितने थे, इन नंबरों पर अभी भी अस्पष्टता है। हालांकि कुछ पुलिस और सरकारी दस्तावेज़ों को खंगाले ते पता चलता है कि आधिकारिक तौर पर पीड़िताओं की संख्या 16 थी और शुरुआती आरोपी आठ, जिसे बाद में बढ़ाकर 18 किया गया। फिलहाल सभी अपराधी जमानत पर बाहर हैं।
फ़िलहाल अजमेर की पॉक्सो अदालत में है केस
संतोष गुप्ता संख्या बल को लेकर कहते हैं कि अपराध चाहे एक लड़की के साथ हो या सैकड़ों के, इससे न्याय मिलने का अधिकार कम या ज्यादा नहीं होता। ये हमारे सिस्टम की नाकामी है कि आज भी ये केस पीड़िताओं का पीछा नहीं छोड़ रहा, न ही उन्हें न्याय ही मिल पाया है। ये यह मामला जिला अदालत से राजस्थान उच्च न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट, फास्ट ट्रैक कोर्ट, महिला अत्याचार न्यायालय में घूमते हुए और फ़िलहाल अजमेर की पॉक्सो अदालत में है।
उस दौर को याद करते हुए संतोष गुप्ता कहते हैं कि 21 अप्रैल 1992 को उन्होंने इस यौन शोषण के बारे में ‘दैनिक नवज्योति’ के लिए अपनी पहली रिपोर्ट फाइल की। इसके बाद 15 मई को उनकी दूसरी रिपोर्ट छपी, जिसके बाद इस मामले ने तूल पकड़ना शुरू कर दिया। इस खबर में पीड़िताओं की बिना कपड़ों वाली धुंधली की गईं तस्वीर पर फोकस किया गया था। क्योंकि ये लोगों को इस मामले की गंभीरता बताने के लिए जरूरी था।
संतोष गुप्ता कहते हैं कि अजमेर एक छोटा शहर जरूर है लेकिन इस समय संसाधनों की भी कमी थी। किसी खबर के लिए आपको मोबाइल फोन घुमाते ही जानकारी नहीं मिल जाती थी और न ही किसी के पास उस जमाने में पर्सनल फोन ही हुआ करते थे। किसी एक बात को वेरीफाई करने के लिए भी आपको की जगह के चक्कर काटने पड़ते थे। मोबिलिटी भी आज जितनी आसान नहीं थी। एक खबर के अलग-अलग पहलुओं को तलाशने में लंबा समय निकल जाता था।
पुलिस-प्रशासन का ढीला रवैया, पक्ष-विपक्ष की राजनीति
हालांकि संतोष गुप्ता बताते हैं कि ये मामला राजनीति और धार्मिक तनाव दोनों के आस-पास था। क्योंकि उस समय लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा थोड़े समय पहले ही निकली थी और मुख्य आरोपी यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पदों पर होने के साथ ही दरगाह के खादिम परिवार से भी ताल्लुक रखते थे। लेकिन बावजूद इसके उन पर इस खबर को लेकर किसी तरह का कोई दबाव नहीं था, उन्हें किसी तरह की कोई धमकी या उनके परिवार पर कोई हमला नहीं हुआ था, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है। हां, उन्हें पुलिस प्रशासन की ओर से जरूर बोला गया था कि 'गलत जगह पर हाथ डाल रहे हो।' यहां तक कि पुलिस द्वारा सरेआम पीड़िताओं को प्रेस कांफ्रेंस में बदनाम करने की भी कोशिश की गई थी।
वैसे आज के दौर में भी हाथरस से लेकर उन्नाव तक ऐसी कई यौन शोषण की शिकायतें आईं, जिसमें पीड़ित को ही प्रताड़ना झेलनी पड़ी और उस पर ही पुलिस महकमें द्वारा सवाल भी उठाए गए। आज के दौर की राजनीति और मीडिया तीस साल पुराने अपने परिदृश्य से बदल जरूर गए हैं, लेकिन अब इसमें अधिक अवसरवादिता और आक्रोश देखने को मिलता है। संतोष गुप्ता मानते हैं कि आज का मीडिया गंभीर और मर्यादित नहीं है। हर खबर को सनसनी बनाने की एक होड़ दिखाई देती है, जो राजनीतिक स्वार्थ को साधने के काम आ रही है।
अजमेर में जब ये गैंगरेप और ब्लैकमेलिंग की घटनाएं सामने आईं, तब राजस्थान में तत्कालीन भैरोंसिंह शेखावत की बीजेपी सरकार थी, वहीं सेंटर यानी दिल्ली की बात करें तो यहां सत्ता पर कांग्रेस काबिज थी। इसलिए जहां तक राज्य में विपक्ष के विरोध की गूंज उठनी थी, वो सक्रियता दिखाई नहीं दी क्योंकि आरोपी कांग्रेज पार्टी से जुड़े थे और वो इस मामले में चुप ही रहना चाहती थी। वहीं सत्ता पक्ष बीजेपी इसे हिंदू-मुस्लिम के तनाव से दूर रखना चाहती थी, इसलिए फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी। लेकिन पुलिस महकमा तमाम दांव-पेच लगा रहा था, इस कांड को दबाने के लिए क्योंकि ये घटना सिर्फ 1992 की नहीं थी ये इससे भी पिछले सालों से चली आ रही थी।
कई परिवार अजमेर छोड़ गए
संतोष गुप्ता बताते हैं कि इसमें सिर्फ एक या दो कॉलेज की नहीं बल्कि कई स्कूल-कॉलेज की नाबालिग-बालिग लड़कियां थी, जिनके साथ यौन शोषण किया गया और फिर बाद में उनकी नग्न तस्वीरों को लेकर उन्हे ब्लैकमेल भी किया गया। इन युवतियों को ज्यादातर ‘आईएएस-आईपीएस की बेटियां‘ कहा गया लेकिन इनमें से कई सरकारी कर्मचारियों के मामूली, मध्यमवर्गीय परिवारों से भी आती थीं, जिनमें से कई इस सारे हो-हंगामे के मद्देनजर अजमेर छोड़ के चले गईं। और जो बची हैं उन्हें आज भी कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं।
गौरतलब है कि 1992 में इस केस में कुल अठारह लोगों को आरोपी बनाया गया था। जिनमें से एक, पुरुषोत्तम ने 1994 में आत्महत्या कर ली थी। वहीं मुकदमे चलाये जाने वाले पहले आठ संदिग्धों को 1998 में जिला सत्र अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, लेकिन साल 2001 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने उनमें से चार को बरी कर दिया था और फिर सुप्रीम कोर्ट ने साल 2003 में बाकी आरोपियों की सजा को घटाकर 10 साल कर दिया।
कई मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बाकी संदिग्धों को अगले कुछ दशकों में गिरफ्तार किया गया और उनके मामलों को अलग-अलग समय पर मुकदमे के लिए भेजा गया। फारूक चिश्ती ने दावा किया कि वह मुकदमे का सामना करने के लिए मानसिक रूप से अक्षम है, लेकिन 2007 में, एक फास्ट-ट्रैक अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई। और फिर 2013 में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने माना कि उसने पर्याप्त समय कैद में बिता दिया है और इस वजह से उसे रिहा कर दिया गया।
नफीस चिश्ती, जो एक आपराधिक इतिहास वाला व्यक्ति था और लगातार फरार चल रहा था, उसे 2003 में दिल्ली पुलिस ने पकड़ा था। एक अन्य संदिग्ध इकबाल भट 2005 तक गिरफ्तारी से बचता रहा, जबकि सुहैल गनी चिश्ती ने 2018 में आत्मसमर्पण कर दिया। इस तरह के हर घटनाक्रम के बाद वैसी पीड़िताओं को जो अभी भी गवाही देने की इच्छुक या सक्षम थीं, वापस अदालत में घसीटा गया। फिलहाल छह आरोपियों- नफीस चिश्ती, इकबाल भट, सलीम चिश्ती, सैयद जमीर हुसैन, नसीम उर्फ टार्जन और सुहैल गनी पर पॉक्सो कोर्ट में मुकदमा चल रहा है, लेकिन वे सभी जमानत पर बाहर हैं।
जाहिर है, राजस्थान विधानसभा चुनाव और 2024 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ये फिल्म राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है। इस मुद्दे का भी ध्रुवीकरण होने की संभावना है, जो पीड़िताओं के साथ ही अन्य लोगों के लिए भी इस पूरे मामले का गलत इस्तेमाल होगा। न्याय पहले ही पीड़िताओं से दूर है, ऐसे में राजनीतिक फायदा पूरे केस और समाज को भटकाने वाला, उकसाने वाला साबित हो सकता है।
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