विश्लेषण: गोरखपुर भूमि-आंदोलन से इतना क्यों डर गई सरकार
हाल ही में गोरखपुर में चर्चित अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवी और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता एस आर दारापुरी, पत्रकार सिद्धार्थ रामू , अंबेडकर जनमोर्चा के संयोजक श्रवण निराला व अन्य लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
दारापुरी जी और डॉ. सिद्धार्थ का "अपराध" यह था कि ये लोग गोरखपुर कमिश्नरी पर सभी गरीबों दलितों पीड़ितों के लिए न्यूनतम एक एकड़ जमीन की मांग को लेकर आयोजित एक शांतिपूर्ण कार्यक्रम में वक्ता के बतौर शामिल हुए थे। यह मांग न तो गैर-कानूनी है, न अजूबा है, वरन दलितों-गरीबों के सम्मानजनक आजीविका की जरूरी शर्त है। इस तरह का प्रावधान तेलंगाना में पहले से लागू है जहां जमीन उपलब्ध न होने पर सरकार द्वारा खरीद कर गरीबों को जमीन दी जाती है।
बताया जा रहा है कि उस दिन कमिश्नरी प्रांगण में हजारों की तादाद में भूमिहीन, गरीब दलित-पिछड़े किसान मजदूर पहुंचे थे। यह इस बात को दिखाता है कि गरीबों के लिए न्यूनतम एक एकड़ जमीन की मांग कितनी अहम है। लेकिन सरकार की प्राथमिकता में गरीब दलित किस निचले पायदान पर हैं, इसकी बानगी यह है कि सुबह से शाम हो गयी, कोई अधिकारी वहाँ उनका ज्ञापन लेने तक नहीं आया।
आक्रोशित आन्दोलनकारियों ने जब धरना जारी रखने का एलान किया, तब रात में अधिकारी उनका ज्ञापन ले गए।
बेहद सौहार्दपूर्ण वातावरण में ज्ञापन लेते हुए जिलाधिकारी महोदय ने, जिसके वीडियो सोशल मीडिया पर चल रहे हैं, सकारात्मक रुख का संकेत देते हुए डेलिगेशन के लिए नाम मांगे और 1-2 महीने में मांगों को पूरा करने की दिशा में बढ़ने का आश्वासन दिया, इससे वहाँ उपस्थित गरीब जनता में, जिनमें अधिकाँश महिलाएं थीं, खुशी की लहर दौड़ गयी और उन्हें लगा कि उनका आंदोलन सफल हो गया !
पर हुआ ठीक उल्टा, जनसमुदाय के प्रांगण से हटते ही नेताओं व वक्ताओं की गिरफ्तारी शुरू हो गई। अगले दिन सवेरे तक दारापुरी जी और डॉ. सिद्धार्थ समेत कई लोगों की गिरफ्तारी हो गई। बताया जा रहा है कि शुरू में हल्की धाराएं लगी थीं, लेकिन बाद में 307 और 120b जैसी संगीन जुर्म की धाराएं जोड़ दी गईं। और शाम होते होते विदेशी नागरिक की गिरफ्तारी के साथ विदेशी फंडिंग का नया angle भी चलने लगा। अंदोलन को कवर करने गए कुछ स्वतंत्र U-ट्यूबर्स को भी गिरफ्तार कर लिया गया और मीडिया में इस सब को एक बहुत बड़े षड्यंत्र के बतौर पेश कर दिया गया !
मनगढ़ंत case बनाने की ऐसी हड़बड़ी कि दारापुरी जी की गिरफ्तारी दोपहर बाद स्टेशन तिराहे से दिखा दी गयी जबकि उनकी फेसबुक पोस्ट में दर्ज है कि वे कार्यक्रम के बाद जिस होटल में रात्रि विश्राम कर रहे थे, वहाँ सुबह ही पुलिस उन्हें थाने ले जाने के लिए पहुंच गई थी।
गरीब दलितों भूमिहीनों की एक एकड़ जमीन की माँग पृष्ठभूमि में चली गई। उसकी जरूरत और औचित्य के सवाल पर, जिसके लिए इतनी बड़ी तादाद में गरीब गांव से चलकर मण्डलाधिकारी कार्यालय तक आये थे, न तो सरकार ने अपना stand स्पष्ट किया, न ही मीडिया ने उसे मुद्दा बनाया। बल्कि नेताओं को गिरफ्तार करके और षडयंत्र का angle जोड़कर बहस की दिशा ही बदल दी गयी।
शासन-प्रशासन के रुख पर लोग चकित हैं। आखिर भूमिहीनों के लिए जमीन की मांग पर एक दिन के एक शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन को लेकर इस अभूतपूर्व सख्ती का राज क्या है? उन लोगों तक को गिरफ्तार कर 307 जैसी धारा में जेल भेज दिया गया, जो कार्यक्रम में महज वक्ता के रूप में शरीक हुए थे।
यह सुविदित तथ्य है कि भूमिहीनता का अभिशाप ग्रामीण गरीबों- दलितों की चौतरफा तबाही-उनकी आर्थिक विपन्नता, सामाजिक पिछड़ेपन व अपमान तथा राजनीतिक शक्तिहीनता के मूल में है। इन गरीबों में से अधिकांश अपनी बदहाल स्थिति के कारण आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों का भी लाभ उठा पाने की स्थिति में नहीं है।
भाजपा राज में आज वैसे भी सरकारी नौकरियां, शिक्षा, उनमें आरक्षण के अवसर खत्म होते जा रहे हैं। अंधाधुंध निजीकरण के फलस्वरूप शिक्षा, स्वास्थ्य के दरवाजे गरीबों के लिए पूरी तरह बंद ही होते जा रहे हैं। उधर ग्रामीण इलाकों में दबंग सामंती तत्वों के हौसले बुलंद हैं और गरीबों दलितों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं, उनकी महिलाओं पर यौन हिंसा की घटनाओं की बाढ़ आ गयी है।
स्वाभाविक रूप से गरीबों-दलितों में बेचैनी बढ़ती जा रही है। इन हालात में शायद किसी भी और समय की तुलना में भूमिहीनों के लिए जमीन की मांग आज और भी प्रासंगिक हो उठी है।
दुर्भग्यवश अतीत की तमाम सरकारों ने इसे हल करने में कोई रुचि नहीं ली। दलित हित और सामाजिक न्याय की बात करने वाले दलों के अंदर भी इसके लिए जरूरी राजनीतिक इच्छा- शक्ति का अभाव है।
उत्तरप्रदेश में बसपा के पराभव से दलितों के बीच जो राजनीतिक शून्य पैदा हुआ है, उसमें जमीन की मांग जैसे मुद्दों के माध्यम से उनके बीच नए तरह का नेतृत्व विकसित हो रहा है। जाहिर है सत्ताधारी दल जमीन के मुद्दे के एक बड़े लोकप्रिय सवाल के रूप में उभरने से भयभीत है। गरीबों को 5 किलो अनाज बाँटकर और हिंदुत्व की घुट्टी पिलाकर जहां वह अपने पीछे लामबंद करने की कवायद में लगा था, वहीं जमीन आंदोलन के माध्यम से उनका radicalisation तथा वैकल्पिक राजनीति की ओर बढ़ना उसके लिए खतरे की घण्टी है।
दारापुरी जी ने हाल ही में एक लेख में अधःपतन, बिखराव, अवसरवाद एवं सिद्धांतहीनता की शिकार वर्तमान दलित राजनीति की त्रासदी पर लिखा, " अब यह स्पष्ट हो चुका है कि केवल जाति की राजनीति से दलितों का कोई भला होने वाला नहीं है। इसलिए दलित राजनीति को एक रेडिकल दलित एजंडा (भूमि वितरण, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, अत्याचार से मुक्ति, ग्लोबल वित्तीय पूंजी के हमले का विरोध तथा लोकतंत्र का बचाव) अपनाने और उसके लिए सौदेबाजी और वर्तमान लूट की राजनीति में हिस्सेदारी के बजाए संघर्ष की स्वतंत्र राजनीति अपनानी होगी। "
गोरखपुर भूमि-आंदोलन के अप्रत्याशित दमन के पीछे दलितों के बीच लोकतांत्रिक एजेंडा के साथ उभरती नई राजनीति का भय और चिंता दिखती है।
बहरहाल दमन की सरकारी रणनीति का backfire करना तय है क्योंकि इससे गरीबों दलितों के बीच सरकारी की गिरती साख को और धक्का लगेगा।
क्या विपक्ष इस दमन का प्रतिकार करेगा तथा अपने कार्यक्रम में भूमिहीन गरीबों दलितों के लिए न्यूनतम गारंटीशुदा जमीन आबंटन को मुद्दा बनाएगा ?
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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