कब तक रहेगा पी एन ओक का सम्मोहन ?
एरिक एन्टन पाॅल वाॅन डाॅनिकेन, (Erich Von Doniken 1935-)स्विस मूल के इस लेखक का नाम दक्षिण एशिया के इस हिस्से में बहुत कम लोगों ने सुना है।
समूचे बुद्धिजीवी वर्ग ने ‘प्रारंभिक मानवीय संस्कृति परग्रह के असर’ को बयां करते उनके विचारों को भले ही सिरे से खारिज किया हो, उनकी रचनाओं को छद्मइतिहास, छद्मविज्ञान और यहां तक कि छद्मपुरातत्व विज्ञान घोषित किया गया हो, लेकिन 1968 में आयी अपनी पहली किताब ‘चैरियटस आफ गाॅडस’ से लेकर वह इसी विषय पर कई बेस्टसेलर किताबें लिख चुके है।
एक बार फ्राॅड के चलते वह जेल की हवा भी खा चुके हैं, अलबत्ता उनका लेखन जारी है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रबुद्ध समाज हो या पिछड़ेपन से मुक्त हो रहे समाज वहां कुछ ऐसे ‘विचारकों’ के लिए हमेशा जगह मौजूद रहती है - जिनके लेखन में भारी तार्किक एवं तथ्यपरक गलतियां हो।
पाॅल वाॅन डाॅनिकेन ‘मानवीय जीवन पर परग्रह से आए लोगों के असर’ के कई तरह के ‘प्रमाण’ देते दिखते हैं, जिनका प्रधान सिद्धांत बकौल विज्ञान लेखक कार्ल सागान यही बताना है कि ‘हमारे पुरखे नक़ली/बनावटी थे’ (principal thesis is that our ancestors were dummies) बरबस दक्षिण एशिया के इस हिस्से के एक पत्रकार एवं स्वयंभू इतिहासकार पी एन ओक (1928- 2007 ) की याद दिलाते हैं।
यह वही पी एन ओक है, जो 60-70 के दशक में पहली दफा देश के अन्दर एवं बाहर की तमाम ऐतिहासिक इमारतों/स्मारकों/यादगार स्थलों के बारे में अपनी अविश्वसनीयसी लगनेवाले सिद्धांतों के साथ नमूदार होते दिखे थे। ऐसे ही एक लेख का फोकस ताज़ महल था। इसमें दावा किया गया था वह ताज़ महल नहीं बल्कि तेजो महाआलय है, जो एक तरह से शिव नामक हिन्दू देवता का मूल स्थान रहा है। उन दिनों पूरे मुल्क में जिस तरह का आलम था, हिन्दुत्व की ताकतें सामाजिक एवं राजनीतिक स्तर पर लगभग हाशिये पर थी, सेक्युलर विचारों, आंदोलनों का बोलबाला था। तब जाहिर था कि उनकी बातें किसी अहमक का प्रलाप कह कर खारिज की गयी थी।
तब से लेकर आज तक एक लंबा वक्फ़ा गुजर गया है। चीजें बिल्कुल बदली सी हैं। सियासत में हाशिये पर रहने वाली ताकतें फिलवक्त उसके केंद्र में आयी है।लाजिम है कि आज वही पी एन ओक हिन्दुत्व खेमे के पॉपुलर इतिहासकार हो गए हैं।
पिछले दिनों भाजपा के एक कार्यकर्ता द्वारा ताजमहल के कथित ‘बंद कमरे’ खोलने को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका की ख़बर जबसे सूर्खियां बनी है, फिर एक बार पी एन ओक का नाम नए सिरे से चर्चा में आया है। लगभग पांच साल पहले जनाब विनय कटियार, जो उन दिनों राज्यसभा सदस्य थे, उन्होंने इसी किस्म का राग अलापा था जब उन्होंने यू पी के मुख्यमंत्राी योगी आदित्यनाथ को दी यह सलाह कि ‘‘उन्हें चाहिए कि वह ताज़ महल जाएं। उसमें हिन्दू चिन्हों को खुद देख लें’’।
दिलचस्प है कि हिन्दुत्व के हिमायतियों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वर्ष 2000 में जब इन्ही जनाब ओक ने ‘ताज़महल को शिवमंदिर घोषित करने की मांग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका डाली थी, तब किस तरीके से सुप्रीम कोर्ट की द्वि सदस्यीय पीठ ने उनकी याचिका को सिरे से खारिज किया था। उन दिनों पहली दफा केन्द्र में हिन्दुत्व की हिमायती सरकार थी और पी एन ओक को लगा था कि मुमकिन है कि बदले वातावरण में उनके इस ‘सिद्धांत’ को तवज्जो मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय के दो सदस्यीय पीठ ने इस ‘‘मिथ्या’’ याचिका को खारिज करते हुए कहा था कि ‘‘किसी की बाॅनेट में मधुमक्खी घुस गयी है, इसलिए यह याचिका दायर की गयी है।’’ और न इस बात से कोई फरक पड़ता है कि खुद आर्किलोजिकल सर्वे आफ इंडिया अदालत में कह चुका है कि ‘ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि ताज़महल कभी मंदिर था, वह एक मकबरा है।’
गौरतलब है कि कभी सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज से जुड़े पी एन ओक के ‘सिद्धांत’ महज ऐतिहासिक इमारतों से जुड़े नहीं हैं, भारत में इस्लामिक आर्किटेक्चर से पूरी तरह इंकार तक सीमित नहीं हैं, वह यह भी मानते रहे हैं कि ‘क्रिश्चानिटी और इस्लाम दोनों हिन्दू धर्म से निर्मित हैं ’ या ‘ताज़ महल की तरह कैथोलिक वैटिकन, काबा, वेस्टमिन्स्टर अब्बे आदि शिवा के मंदिर थे या -‘‘वैटिकन मूलतः एक वैदिक निर्मिति है जिसे वाटिका कहा जाता था यहां तक पोप की प्रथा भी बुनियादी तौर पर वैदिक पुरोहितप्रथा थी आदि।
‘‘आक्रमणकारियों और उपनिवेशवादियों द्वारा तैयार पूर्वाग्रहों से लैस एवं विकृत भारतीय इतिहास को ’’ कथित तौर पर ठीक करने में जुटे रहे पी एन ओक के विचारों की इतिहास के जानकारों ने, भाषाविज्ञान के विशेषज्ञों की पर्याप्त छानबीन की है और एक दिलचस्प बात रेखांकित की हैै कि किस तरह वह खास तरीके से ‘संस्कृत के ध्वनियों के समकक्ष गैर संस्कृत धार्मिक शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं। मिसाल के तौर पर श्रीनिवास अरावामुदन रेखांकित करते हैं कि वह खास तरीके से ‘‘डीप पुनिंग deep punning ‘‘का सहारा लेकर संस्कृत के ध्वनियों के समकक्ष गैर संस्कृत धार्मिक शब्दावली का इस्तेमाल करता है। जैसे वैटिकन अर्थात वाटिका, क्रिश्चियानिटी अर्थात क्रष्ण नीति या क्रष्ण का मार्ग ; इस्लाम अर्थात ईशालयम यानी ईश्वर का मंदिर,अब्राहम जो ब्रह्म का विकृत रूप है आदि। इसी आधार पर ओक दावा करते हैं कि क्रिश्चियानिटी और इस्लाम दोनों ‘‘वैदिक’’ विश्वासों के तौर पर पैदा हुए।(Srinivas Aravamudan, Guru English: South Asian Religion in a Cosmopolitan Language Princeton University Press (2005), ISBN 0-691-11828-0).
दिलचस्प है कि पी एन ओक के विचारों में भले ही बेहद असंगतियां मालूम पड़ती हों, अपने तमाम ‘सिद्धांतों’ के लिए किसी भी किस्म का प्रमाण देने में वह असफल होते रहे हों, लेकिन इसका कत्तई मतलब यह नहीं कि हिन्दुत्व के विचारों के प्रबुद्ध जनों में उनके हिमायती नहीं हैं। ‘वी एस गोडबोले, परमेश चैधरी, एन एस राजारा, एस तालागेरी, फ्रांसिस गाॅटियर, स्टीफन क्नाप और डेविड फ्रायले जैसे लेखक प्राचीन दुनिया में हिन्दू विज्ञान एवं संस्कृति की प्रधानता के बारे में ओक के साथ’ सहमत दिखते हैं।
लेकिन हिन्दुत्व के हिमायती विद्वानों एक हिस्से में ओक के विचारों को लेकर ढेर सारे सवाल हैं, मिसाल के तौर पर सीताराम गोयल नामक हिन्दुत्व के इतिहासकार ओक को ‘हिन्दू विद्वता के लिए सबसे बड़ी आपदा’ (“the greatest disaster for Hindu scholarship”.) के तौर पर देखते हैं। बैल्जियन प्राच्यवादी और इंडोलोजिस्ट फलेमिश लेखक कोइनराड एल्स्ट ओक के प्रति ‘हिन्दुओं के इस सम्मोहन’ को लेकर जबरदस्त क्षुब्ध दिखते हैं।
लगभग बारह साल कोइनराड एल्स्ट ने एक दिलचस्प लेख लिखा था, जिसमें ‘पत्राकार और स्वयंभू इतिहासकार पी एन ओक के प्रति हिन्दुओं की बढ़ती जा रही आसक्ति’ को रेखांकित किया था जिसका शीर्षक था: ‘पी एन ओक के प्रति लाइलाज होता हिन्दू अनुराग’।
यह वही कोइनराड एल्स्ट हैं, जो अमेरिकी लेखक, ज्योतिर्विज्ञानी पदमभूषण डेविड फा्रॅले, उर्फ पंडित रामदेव शास्त्राी ; पत्राकार फ्रांसिस गाॅटियर /Francois Gautier / या पाकिस्तानी कनाडाई लेखक तारक फतेह आदि की तरह भारत में हिन्दुत्व वर्चस्ववाद की राजनीति के उभार के हिमायती कहे जाते हैं।
‘डीकालोनायजिंग हिन्दू माइंड; जैसी किताबों के इस रचयिता का साफ कहना था कि बीस साल पहले मेरी अपेक्षा थी कि जैसे - जैस हिन्दू ऐतिहासिक सुधारवाद में अधिक संतुलित आवाज़े बुलंद होती जाएंगी, ओक जैसों की हैसियत कम होती जाएगी, लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा। ‘कितनी विचित्र बात है कि आप्रवासी भारतीयों और भारतीय मूल के लोगों में उनकी शोहरत बढ़ती जा रही हैै। उन्होंने साफ लिखा था:
"... पी एन ओक के सिद्धांतों की लोकप्रियता समकालीन हिन्दू कार्यकर्ताओं की भारी अपरिपक्वता को दर्शाता है। वह भारतीय इतिहास में धार्मिक विवादों के तथ्यों को लेकर व्याप्त भ्रम को रेखांकित करता है। इतना ही नहीं बाहरी लोगों द्वारा निर्मित किए गए मूल्यवान वस्तुओं आदि पर मिल्कियत का दावा करने की विचित्रा सी ख्वाहिश प्रदर्शित करता है / गोया हिन्दू धर्म की वास्तविक उपलब्धियां गर्व करने लायक न हों/"
दिलचस्प है कि ‘हिन्दू कार्यकर्ताओं की भारी अपरिपक्वता’ या एक तरह से उनमें जड़मूल हीनभावना - जिसके तहत वह ‘हिन्दू धर्म की वास्तविक उपलब्धियों’ पर भी गर्व नहीं कर पाता, उजागर होने के बावजूद ओक का सितारा हिन्दुत्व में बुलंदियों पर ही रहा है।
हम याद कर सकते हैं कि वर्ष 2014 में जब भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में लौटी, तब उसके अग्रणी नेताओं के प्रलापों से तथा उसके कदमों से ही यही उजागर हो रहा था कि पी एन ओक की उनके लिए क्या अहमियत है। इंडियन कौन्सिल आफ हिस्टारिकल रिसर्च जैसी अग्रणी एवं प्रतिष्ठित संस्थन के चेअरमैन के तौर पर उन्होंने प्रो वाई सुदर्शन राव को नियुक्त किया था, यह वही प्रोफेसर थे ‘जिनके आलेख जो भारतीय महाकाव्यों की ऐतिहासिकता पर फोकस्ड थे, वह किसी अग्रणी जर्नल में नहीं बल्कि अख़बारों, पत्रा-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे।’ इस पद के लिए उनकी सबसे अधिक योग्यता यही समझी गयी थी कि वे पी एन ओक द्वारा स्थापित ‘भारत इतिहास संकलन समिति’ से लंबे समय से जुड़े थे।
अंत में प्रश्न उठता है कि तमाम विसंगतियों के बावजूद पी एन ओक के चाहने वाले क्यों बढ़ रहे हैं ?
वह यही है कि ‘प्राचीन वैदिक वर्चस्व का सिद्धांत - जो एक तरह से समग्र हिन्दुत्व परियोजना की विचारधारात्मक जड़ है, और भारत पर समग्र मिल्कियत तथा अन्य वैश्विक संस्कृतियों पर दबदबे के उसके दावे’ हिन्दुत्व सियासत के साथ कदमताल करते चल रहे हैं।
वही लाजिम है कि कभी अहमक के तौर पर खारिज किए जाते रहे ओक आज पढ़े लिखें लोगों, एनआरआई अंकलों एवं आंटियों के बीच ‘कल्ट स्टेटस’ हासिल कर चुके हैं।
भारतीय मानस के अच्छे खासे हिस्से के बौद्धिक दिवालियापन का इससे बेहतर सबूत कहाँ मिल सकता है।
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