बात बोलेगी: अब छिड़ ही गई INDIA और विभाजनकारी ताक़तों के बीच जंग
अगले लोकसभा चुनाव (वर्ष 2024) की तैयारी भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत दे रही है। वरना जिस तरह से सत्ता, सत्ता संस्थानों, लोकतंत्र के सारे खंभे, कॉरपोरेट, अकादमिया का बड़ा हिस्सा सेंगोल युग (राजदंड युग) के आगे सिर्फ नतमस्तक या लंबलेट ही नहीं बल्कि दक्षिणपंथी विचारधारा का झंडाबरदार बना हुआ है, उसमें चक दे इंडिया जैसे नारों की गुजाइंश दिखाई नहीं दे रही थी।
कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में 26 विपक्षी दलों की बैठक से जो INDIA (Indian National Developmental Inclusive Alliance) निकला है, उसने बताया है कि पिक्चर अभी बाकी है। भारत में लोकतंत्र को बचाने वाली ताकतें ताकतवर हैं और 2019 के लोकसभा चुनावों को भी अगर पैमाना माना जाए तो भारतीय जनता पार्टी को 37.7 फीसदी वोट और उसके नेतृत्व वाले गठबंधन को 45 फीसदी वोट मिले थे। यानी 55 फीसदी मतदाता विपक्षी दलों के साथ ही हैं। और उसके बाद से कई राज्यों में कांग्रेस व विपक्षी दलों की सरकारें बन गई हैं और जहां नहीं बन पाई हैं, वहां सरकारें ही नहीं है—जैसे जम्मू-कश्मीर।
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विपक्षी एकता, गठबंधन से बौखलाहट साफ-साफ समझ आती है। उनका डर वाजिब है भारत को कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा के साथ जोड़ चुके हैं और अब इंडिया पर ‘डाका’, तो फिर उनका ‘खेला’ होगा तो किस पर होगा। हकीकत भी है कि 2014 में चुनाव जीतने के बाद पहली बार मोदी और उनका पूरा तंत्र बैकफुट पर नजर आ रहा है। मोदी की बेचैनी-परेशानी को जिस शिद्दत के साथ मीडिया (प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक) ने प्रतिध्वनित किया है—वह कमाल ही है।
यहां मैं जिक्र सिर्फ ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादकीय (19 जुलाई 23) का कर रही हूं—जिसमें बताया गया है कि सिर्फ नाम इंडिया रख देने से काम नहीं चलेगा। साथ ही इसमें मोदी की पिच पर बैटिंग करते हुए कहा गया है कि विपक्ष किस तरह से परिवारवाद के चंगुल में है, यानी वह लड़ाई नहीं दे पाएगा। मोदी सरकार के प्रति अपना वैचारिक कमिटमेंट उसने यह लिखकर पूरा किया है कि इस इंडिया में जिस Inclusive यानी समावेशी— सबको साथ लेने की बात कही गई है, उसे राजनीतिक तौर पर भाजपा ने सफलता पूर्वक तुष्टिकरण से जोड़ दिया है। साथ ही ये भी जताने की कोशिश की है कि यह विपक्षी एकता दरअसल अपनी-अपनी जान ईडी-सीबीआई से बचाने के लिए हुई है। अंत में ऐलानिया अंदाज में इस कवायद को धता बताते हुए कहा कि एक कमजोर विपक्ष का नाम भले ही कुछ भी रख दिया जाए, वह रहेगा एक कमजोर विपक्ष ही (a week Opposition, by any name will remain a weak Opposition)। ये सिर्फ एक छोटी-सी बानगी है कि किस तरह से इस इंडिया को लेकर दुष्प्रचार की मशीनरी शुरू हो गई है। घबराने की ज़रूरत नहीं, आने वाले दिनों में इस तरह के तथाकथित बौद्धिक उद्गार और देखने को मिलेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिन शब्दों में विपक्षी एकता, इस बैठक पर निशाना साधा। राजनीतिक भाषणों में पहले से और ज्यादा निचले स्तर पर उतरते हुए प्रधानमंत्री ने शर्मनाक ढंग से यहां तक कहा कि `माल कुछ है’, `लेबल कुछ है’, गाने की लाइनें भी कही, `एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग’। पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाध्य होकर राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान पर परोक्ष रूप से निशाना साधते हुए कहा कि दरअसल इस दुकान पर जातिवादी का जहर और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलता। प्रधानमंत्री के भाषण की भाषा यह बता रही है कि INDIA की चोट बिल्कुल सीधी पड़ी है। यहां इस बात का भी जिक्र करने की जरूरत है कि जो लोग पटना में विपक्षी दलों की बैठक के बाद यह कह रहे थे कि इस तरह से तमाम दलों के जोड़ने से कुछ नहीं होगा, मोदी अकेला ही सब पर भारी है, वे गलत थे। जिस तरह से भाजपा ने एनडीए की बैठक बुलाकर यह संदेश दिया कि उनके साथ ज्यादा पार्टियां हैं और वह—एकला चलो रे—के सिद्धांत में विश्वास नहीं करती। यह बहुत अहम घटनाक्रम है—क्योंकि भाजपा को उन पार्टियों-नेताओं को भी भरोसा देना था—जिन्हें वह अपनी वाशिंग मशीन में धोकर लाए हैं। एनसीपी के अजित पवार खेमे, शिवसेना के एकनाथ शिंदे खेमे के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में खेमा बदलकर भाजपा में आये ओमप्रकाश राजभर का प्रथम पंक्ति में खड़े होकर मोदीजी को नमस्कार करते हुए फोटो सेशन को देखा जा सकता है।
पटना से लेकर बेंगलुरु में विपक्षी एकता का सफल सफर यह दिखा रहा है कि विपरीत परिस्थितियों में विपक्षी नेताओं में ट्यूनिंग हो गई है। खास तौर से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और केरल में वाम की सरकार के अन्य विपक्षी दलों से टकराव को जिस तरह से तूल दिया जा रहा था, वह इस बैठक में लगता है सेटेल हो गया है। कम से कम तमाम नेताओं की बॉडी लैंग्वेज यह बता रही थी।
इससे भी बड़ी बात यह कि 2024 के चुनावों को मिलकर लड़ने की पुख्ता जमीन, पुख्ता वैचारिक आधार, न्यूनतम साझा कार्य़क्रम की दिशा में ठोस पहल हुई है। इसी क्रम में INDIA नाम भी रखा गया है, यानी भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन। यह दरअसल, भारत के लोकतंत्र के सामने जो खतरे हैं, उनसे निपटने, लड़ने-भिड़ने वाले शब्द हैं। ध्यान से मूल्यांकन करिए तो यह मोदी सरकार के एक राष्ट्र-श्रेष्ठ राष्ट्र की फासीवादी धारणा का निषेध करते हैं। यह INDIA कहता है कि भारत समावेशी होकर ही विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है। अगर विविधता नहीं तो विकास नहीं। जिस तरह से जहरीली राजनीति का दौर चल रहा है, नफ़रत का कारोबार राजनीतिक शीर्ष के नेतृत्व में पल्लवित-पुष्पित हो रहा है, उसमें ये सारे कदम बहुत बड़े मील का पत्थर साबित हो सकते हैं। एक बात तय है कि विकास के चक्के को, सभ्यता को पीछे की ओर ढकेलने वाली मनुवादी सोच से टकराने के लिए विचारधारा की सान और जमीनी पकड़—दोनों बहुत ज़रूरी है। भारतीय लोकतंत्र में INDIA का उदय ठीक ऐसे ही समय हुआ है।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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