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EXCLUSIVE: बनारसी पान और लंगड़ा आम को जीआई टैग का तमगा, इसे विकास की नई मंज़िल कहें या सिर्फ़ प्रोपेगंडा?

"जीआई टैग (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) हासिल करने वाले उत्पादों में लगे कारीगरों और श्रमिकों के हालात तो बद से बदतर हैं। इनकी चुनौतियों को न तो चिह्नित किया गया और न ही सरकार अथवा किसी संस्था ने कोई समाधान ढूंढने की कोशिश की।"
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दुनिया भर में मशहूर बनारसी पान और बनारसी लंगड़ा आम को अब जियोग्राफिकल इंडिकेशन (भौगोलिक संकेत-जीआई) का तमगा मिलने के बाद इसे पूर्वांचल में एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है। इस बीच एक बड़ा सवाल यह उभर कर सामने आया है कि जियोग्राफिकल इंडिकेशन वाले उत्पादों के उत्पादन में जुटे कारीगरों और श्रमिकों की जिंदगी में क्या कोई बदलाव आया हैक्या उनका रहन-सहन, उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थितियां बदली हैंजीआई टैग मिलने के बाद क्या किसी उत्पाद ने दुनिया भर में धूम मचानी शुरू कर दी? ऐसे ढेरों सवाल हैं जिनका जवाब किसी के पास नहीं है।

बनारस के इसी लंगड़ा आम को मिला है जीआई का खिताब

भारत के हर हिस्से में कई तरह की वस्तुएं बनती हैं। अब तक कुल 441 भारतीय और 34 विदेशी उत्पादों को जीआई टैग दिया गया है। जियोग्राफिकल इंडिकेशन के ज़रिए किसी क्षेत्र विशेष के उत्पाद अथवा चीज़ को किसी जगह से प्रमाणित कर मान्यता देने का प्रावधान है। साल 2023 में जिन 33 उत्पाद को जीआई टैग दिया गया हैउनमें दस सिर्फ उत्तर प्रदेश की हैं। इस राज्य में जीआई टैग वाले उत्पादों की तादाद बढ़कर 45 हो गई है। चेन्नई के भारत सरकार का जियोग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री कार्यालय ने बनारस के जिन उत्पादकों को कुछ रोज पहले जीआई टैग दिया है उनमें बनारसी पान, बनारसी लंगड़ा आम, रामनगर का भंटा (बैगन) और चंदौली का आदमचीनी चावल शामिल हैं। मेन स्टीम की मीडिया इसे पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में एक बड़े तोहफे के तौर पेश कर रही है।

 मिट रही बनारसी पान की हस्ती

ऐसे सजता है बनारसी पान

 भारत सरकार ने बनारसी पान (banarasi paan) को जीआई का तमगा अब दिया है, लेकिन धार्मिंक ग्रंथों, फिल्मों और भोजपुरी गानों में यह दशकों से छाया हुआ है। खइके पान बनारस वाला...गाने की धुन पर सिने स्टार अमिताभ बच्चन का ठुमका आज भी लोगों को जोश से भर देता है। समूची दुनिया जानती है कि काशी की शान है बनारसी पान। नेता हों या अभिनेता। सभी इसके दीवाने हैं। बनारस में पान की दुकानों पर देश भर के नेता-अभिनेता पहुंचते रहे हैं। चाहे बलराज साहनी रहे हों या फिर राजकपूर। देवानंदमीना कुमारीअमिताभ बच्चनसलमान खानशाहरूख खानआमिर खानजान्हवी कपूर से लेकर माधुरी दीक्षित तक बनारसी पान के दीवाने रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी बनारसी पान के शौकीन थे। अटल बिहारी वाजपेयी और लालू यादव की तो बात मत पूछिए। वो जब भी बनारस आएपहली डिमांड बनारसी पान की ही की।

बनारस में पान पैदा नहीं होता। सिर्फ चंद लोग इसकी खेती करते हैंलेकिन बनारस से इस पान की आपूर्ति ओडिशाबिहार और बंगाल तक होती है। फिर पान के हरे पत्तों को लघु उद्योग की तर्ज पर ईश्वरगंगी और औरंगाबाद इलाके के छोटे व्यापारी अपने घरों पर प्रोसेस करके पीले-सफेद यानी बनारसी पान की शक्ल में ढालते हैं। ऐसा करने वाले लगभग डेढ़ हज़ार व्यापारी बनारस के पानदरीबा मंडी में आकर पान बेचते हैं। पान दरीबा पूर्वांचल की सबसे बड़ी पान मंडी है, जिसमें हर रोज करीब दो करोड़ पान के पत्तों का कारोबार होता है।

पान व्यवसाय में लगे श्री बरई समाज काशी के अध्यक्ष रहे मुन्ना चौरसिया कहते हैं, "सियासतदानों ने बनारस के पान व्यवसाय पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। सरकार हमेशा बनारसी साड़ी उद्योग पर जोर देती रही है। जबर्दस्त उपेक्षा के चलते चौरसिया समाज के लोग दूसरे व्यापार की ओर तेजी से पलायन करते जा रहे हैं। दिक्कत यह है कि आपूर्ति के अनुसार पान की खपत नहीं हो पा रही है। हाल के सालों में बनारसी पान का व्यवसाय करीब 30 से 35 फीसदी तक घट गया है। पानदरीबा मंडी में पहले हर हफ़्ते पान के 15-16 ट्रक आते थे। अब तो आठ-दस ट्रक पान ही आ पाता है। गर्मी के दिनों में स्थिति और भी ज्यादा खराब हो जाती है। बनारसी पान के जो लोग शौकीन हैं उन्हें भी इसे बढ़ावा देने की फुर्सत नहीं है। पान के शौकीन मंत्रियोंसांसदों और विधायकों ने बनारस में इसकी खेती की मुकम्मल योजना तक नहीं बनवाई। यह धंधा तभी जिंदा रह पाएगाजब सरकार ब्याजमुक्त कर्ज की व्यवस्था करेगी। किसी टैग से बनारसी पान के उत्पादकों को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है।"

पूरी ज़िंदगी पान बेचकर अपनी और अपने परिवार की आजीविका चलाने वाले 65 वर्षीय विजय चौरसिया बताते हैं, "गर्मी के दिनों में पान तेजी से सड़ने लगता है। इस वजह से पानदरीबा मंडी में बहुत कम व्यापारी आ रहे हैं। रोज की कमाई आधी हो गई है। कई बार तो बोहनी के लिए दोपहर तक ग्राहकों का इंतजार करना पड़ता है। पान व्यापारी दूसरे रोज़गार की तरफ जा रहे हैं और जो अभी भी मंडी में हैं वो खाली बैठे हुए हैं।"

इन्हें तो पेट भरने का संकट

बनारस के पान दरीबा में पान के थोक व्यापारी दिनेश बताते हैं कि वो इस मंडी से पान खरीदकर लखनऊदिल्लीगोरखपुरबस्ती और मऊ तक सप्लाई करते थेलेकिन सरकार की उपेक्षा के चलते पान की सप्लाई नहीं के बराबर हो पा रही है। पानदरीबा में मंदी की चिंता वहां मुसहर समुदाय के उन लोगों को भी सता रही है जो पत्ता बेचकर अपनी जिंदगी चलाते हैं। सड़क के किनारे पत्ता बेचने वाली बिल्लो देवी कहती हैं, "अब परिवार का पेट भर पाना कठिन है। मालन बांधने को मिल रहा है और न ही ढोने को। दिन भर में सौ रुपये की कमाई नहीं हो पाती है।"

बनारस के ईश्वरगंगी और औरंगाबाद की संकरी गलियों में पककर पान का रंग जब सफेद हो जाता हैतब बनारसी हो जाता है। बनारसी पान खाया नहीं जाता। घुलाया जाता है। यूं कह सकते हैं कि मुंह में जाते ही घुल जाता है। इसकी लज्जत अनूठी होती है। पान को पकाने की कला सिर्फ बनारस का बरई समाज ही जानता है। बरई समाज के लोग बताते हैं कि घर की बेटियां भी पान पकाने की कला में दक्ष हैं। शादी के बाद ससुराल में ये जहां भी गईंउन्होंने पान पकाने का हुनर नहीं छोड़ा। ससुराल में ही पान पकाने के कारोबार को फैला लिया। हाल के सालों में इनका हुनर तेजी से हस्तांतरित हुआ और अब कई शहरों में पान पकाने की कला शिखर छूने लगी है। अलबत्ता अब बनारस पीछ छूटने लगा है।

बनारस में गिने-चुने किसान ही पान की खेती करते हैं। एक जमाने में बनारस के कई गांवों में लोगों के जीवन का आधार पान ही हुआ करता था। निर्यातक खेती-बाड़ी के संपादक जगन्नाथ कुशवाहा कहते हैं, "भारत में सर्वाधिक पान की खेती बनारस में ही होती थी। बनारस के बच्छांवमीरजापुर व जौनपुर में देसी पान की खेती होती थी। यहां से पाकिस्ताननेपाल से लेकर चीन तक पान भेजा जाता था। बरई समाज के जीविकोपार्जन का जरिया पान की बागवानी हुआ करती थी। समय बदलालोग बदल गए। खेती बदल गई और लोग मंदिरों में चढ़ाने के लिए गेंदा-धतूर उगाने लगे। नई पीढ़ी ने तो इस धंधे से तौबा ही कर लिया। पान की खेती के लिए बनारस के अधिसंख्य गांवों में बने तालाबों के भीटों (बरेजा) का नामो-निशान मिटता जा रहा है। बरई समाज इसका मुख्य कारण सरकार की उदासीनता मानता है।"

बनारस में पान खाना सिर्फ शौक नहींएक परंपरा है। इस शहर में कई ऐसी दुकानें हैं जो आजादी के पहले की है। बनारस की कचौड़ी गली अगर कचौड़ी के लिए जानी जाती हैतो यह पान के लिए भी मशहूर है। इस गली में पान की एक ऐसी दुकान है जहां फायर ब्रांड का पान खाने के लिए शहर भर के दीवाने पहुंचते हैं। यहां गोपाल पान भंडार पर बिकता है आग वाला पान। मतलब पान में आग लगाकर ग्राहकों के मुंह में डाल दिया जाता है। इस पान को खाने पर मुंह नहीं जलता। लेकिन फायर पान गोपाल के हाथ से खाना पड़ता है।

विश्वनाथ गली में दीपक ताम्बूल की दुकान 140 साल पुरानी है। दुर्गा प्रसाद चौरसिया के दादा ने इस दुकान को खोला था। यहां हर तरह के पान मिलते हैं। मगही पान की खास डिमांड रहती है। लहरतारा निवासी गोपालजी केसरी यहां 40 साल से ब्रांडेड पान बेचते हैं। इनके यहां स्ट्राबेरी पानचॉकलेट पानपान वाला लड़डूबर्फी पानआइस पान के अलावा कीवी और बटर स्कॉच पान काफी फेमस है। फायर पान कैसे लगते हैं और उसमें क्या होता हैपूछने पर वो क्लू देने से साफ मना कर देते हैं। मगर वो दावा करते हैं कि पान से कभी मुंह नहीं जल सकता है।

नदेसर में सतीश ताम्बूल नामक दुकान प्रसिद्ध है। कुछ साल पहले सिने स्टार शाहरूख खान बनारस आए थे तब उन्होंने यहां पान खाया था। यह दुकान 70 साल पुरानी है। लोकप्रियता को भुनाने के लिए सतीश ने मीठे पान को नया नाम दिया है शाहरुख खान पान। नदेसर में कृष्णा पान भंडार भी सौ साल पुराना है। खासियत यह है पान का जर्दा घर पर ही बनाया जाता हैजो कैंसर जैसी बीमारी का खतरा काफी कम कर देता है। रथयात्रा इलाके में जाएंगे तो कुबेर कॉम्प्लेक्स के सामने गली में केशव तांबूल भंडार पर पान के दीवानों की लाइन दिखेगी। करीब 32 साल पुरानी दुकान की लंका में भी एक शाखा है। मघईजगन्नाथी पान हो या फिर देसी व सांची। हर सीजन में मनपसंद पान का लुफ्त उठाया जा सकता है।

गोदौलिया के जाने-माने गामा पान भंडार पर शहर भर के रसूखदार लाइन लगाने से नहीं चूकते। लगभग 70 साल पुरानी है यह दुकान। यहां पान की स्पेशल गिल्लौरी सबसे ज्यादा बिकती है। मैदागिनलहुराबीरतेलियाबाग से लेकर वरुणापार इलाके में पान की तमाम दुकानें हैं। बनारस के नामी पनखौव्वा अशोक मौर्य कहते हैं, "बनारसी पान किसी जीआई टैग का मोहताज नहीं है। बनारस ही ऐसा शहर है जहां पान के दुकानों की अपनी मर्यादा होती है। आप न पानवाड़ी के बर्तन को छू सकते हैं और न ही उसकी चौकी पर हाथ रख सकते हैं। आप चाहे जितने भी रसूखदार क्यों न होंपान के लिए लाइन तो लगानी ही पड़ेगी। पान का बीड़ा बांधने की खासियत भी बनारसी पान को देश के अन्य इलाकों के पान से अलग करता है। वैसे भी सरकार बनारस से पहले यूपी में ही महोबा पान को जीआई टैग का तमगा दे चुकी है।"

 सिमटता जा रहा बनारसी लंगड़ा

बनारसी आम का जलवा, लेकिन बागवान मायूस

देश-दुनिया में बनारस कई चीजों के लिए मशहूर है, उन्हीं में एक है आम की प्रजाति बनारसी लंगड़ा। इसकी प्रसिद्धि का आलम यह है कि गर्मी का सीजन आते ही लंगड़ा आम की मीठी सुगंध हवाओं में घुलने लगती है। इसकी मिठास और महक के दीवाने विदेशों तक में हैं। बनारस जिले में पहले करीब छह हजार हेक्टेयर में आम की पैदावार होती थी, लेकिन विकास और निर्माण के चलते बगीचे कटते चले गए। अब इसका दायरा सिमटकर 700 हेक्टेयर रह गया है, जिसमें  बनारसी लंगड़ा आम के अलावा दशहरी, चौसा और रामखेड़ा आम के बगीचे हैं। आम के जो पेड़ बचे हैं उनकी उम्र करीब 50 से 55 साल हो गई है। बनारस के चिरईगांव में इसकी सबसे अधिक पैदावार होती है। बनारसी लंगड़ा आम का रकबा करीब 1200 हेक्टेयर रह गया है। आराजीलाइनकाशी विद्यापीठहरहुआबड़ागांवसेवापुरी सहित आठों ब्लॉकों में इसके बगान हैं।

पूर्वांचल के कई और जिलों में लंगड़ा आम के बगीचे हैं। लेकिन बनारस का सफेद लंगड़ा सिर्फ बनारस में ही फलता है और अपने अनूठे स्वाद का एहसास कराता है। दरअसल लंगड़ा अपने लजीज स्वाद व सुगंध के लिए विख्यात है। बनारसी लंगड़ा ही एक ऐसा आम है जो पाकिस्तान के सिंदड़ी आम को भी पछाड़ने की खूबी रखता है।  हालांकि पूर्वांचल में वाराणसी के अलावा गाजीपुरआजमगढ़ चंदौलीमीरजापुर समेत कई जिलों में बनारसी लंगड़ादशहरी, चौसा फजलीमल्लिकागुलाब खास और आम्रपाली आम के बड़े-बड़े बाग हैं। आम का सबसे बड़ा बाजार उत्तर प्रदेश है। संयुक्त अरब अमीरातब्रिटेनसऊदी अरबकतरकुवैत और अमेरिका में भी भारतीय आम का जलवा है। एपीडा के अनुसारसाल 2018-19 में 406.45 करोड़ रुपये का 46,510.23 मीट्रिक टन आम निर्यात किया गया था। अमेरिकायूरोप और खाड़ी के देशों में भारतीय अल्फांसो आम की डिमांड बहुत ज्यादा है, लेकिन स्वाद के मामले में यह आम न बनारसी लंगड़ा के आगे ठहरता है और न ही दशहरी के आगे।

बनारस में लंगड़ा आम के सबसे बड़े उत्पादक शीलू सिंह

बनारसी लंगड़ा आम को जीआई टैग मिलने से अराजीलाइन प्रखंड के भिखारीपुर गांव के प्रगतिशील बागबान शार्दूल विक्रम चौधरी उर्फ शीलू सिंह तनिक भी उत्साहित नहीं हैं। इनके पास 35 एकड़ में बनारसी लंगड़ा आम के पेड़ों को लंबी श्रृंखला है। शीलू कहते हैं, "बागबानों को इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि बनारसी लंगड़ा को जीआई का दर्जा मिल गया है। सबको लगता है कि बनारस के बागबान मालामाल हैं। अच्छा खाते और पीते हैं। हमारे हालात को समझने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। हाल ही में हुई आंधी-बारिश और ओलावृष्टि ने हमें बर्बाद कर दिया है, लेकिन मुआवजा मिलने की कोई उम्मीद नहीं है।"

रामनगरी बैगन का रंग नहीं चोखा

 रामनगर भंटे के नाम से प्रसिद्ध बैगन को चेन्नई के जियोग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री दफ्तर ने जीआई टैग तब दिया है जब इसे पूछने वाला कोई नहीं है। एक वक्त वह भी था जब इस बैगन को विदेशों में निर्यात किया जाता था। इस समय गिने-चुने किसान ही इसकी खेती करते हैं। भारतीय मूल की इस सब्जी को रामनगर जाइंट के नाम से जाना जाता है। लोग इसे बैगन का राजा भी कहते हैं। रामनगर के वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोकी प्रसाद कहते हैं, "एक जमाना वह भी था जब रामनगर जाइंट रेलगाड़ियों में भर कर देश के विभिन्न शहरों में ले जाया जाता था।  कोलकाता और बिहार में इसकी जबर्दस्त खपत होती थी। अब इस बैगन को देखने के लिए लोग तरस जाते हैं। इसका फल आकार में काफी बड़ा, हरा, चिकना, चमकदार और मुलायम होता है। कद्दू की शक्ल वाले इसके फलों का आकार 15 से 20 सेमी लंबा और 12 से 15 सेमी व्यास वाले होते हैं। इसके पौधों की ऊंचाई एक से डेढ़ मीटर होती है। हर फल का वजन  औसतन डेढ़ से दो किलो ग्राम होता है। फलों का वजन ज्यादा होने की वजह से इसके पौधों को सहारा देने की जरूरत पड़ती है। आमतौर पर इसका इस्तेमाल चोखा (भरता) बनाने में किया जाता है। एक पौधे में चार से पांच फल ही लगते हैं। रामनगर जाइंट में फल छेदक कीट कम लगते हैं। यह देसी और सहनशील प्रजाति है।"

रामनगर का बैगन

बनारस में बैगन की बात करें तो आठ सौ हेक्टेयर में करीब दस हजार टन पैदावार होती थी। बैगन की खेती में लागत बढ़ने से शुद्ध लाभ तो घटा ही, इसका रकबा भी सिमटता चला गया। आमतौर पर बैगन की प्रति हेक्टेयर पैदावार 16 टन है। पहले बनारस से 400 मीट्रिक टन बैगन का निर्यात होता था। साल 1994-95 से नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका को होने वाला बैगन का निर्यात बंद है। कुछ गिने-चुने किसान ही पारंपरिक तौर पर रामनगरी बैगन उगा रहे हैं। कई पीढ़ियों से बैगन की खेती करने वाले बनारस के दीनापुर के किसान राम दुलार मौर्य, मदन मोहन मौर्य, गुलाब, राधे साफ-साफ कहते हैं, "जीआई टैग का तमगा देने से किसानों का भला होने वाला नहीं है। रामनगर जाइंट की बाजार में डिमांड नहीं रह गई है। इसका छिलका मुलायम होता है, इसलिए सस्ता बिकता है। पहले बैगन की ज्यादा प्रजातियां नहीं थीं। तब रामनगर जाइंट की आपूर्ति कोलकाता से दिल्ली तक हुआ करती थी।  अब पंत पुष्पराज, पूसा क्रांति, पंत सम्राट, पूसा हाईब्रिड-6, अभिषेक समेत बैगन तमाम लोकप्रिय प्रजातियां हैं। इन प्रजातियों के आगे रामनगर जाइंट कहीं टिकता ही नहीं है। रामनगर जाइंट को जीआई ही नहीं, चाहे जो भी दर्जा दे दिया जाए, इसके जरिये किसानों के दिन फिरने वाले नहीं हैं।"

ब्लैक राइस जैसा आदमचीनी का हाल

आदमचीनी चावल

बनारसी पान, बनारसी लंगड़ा आम और रामनगर जाइंट के साथ ही चंदौली के आदमचीनी चावल को भी जीआई टैग (भौगोलिक संकेत) मिला है। अब इस धान का उत्पादन कहीं हो, लेकिन उत्पाद चंदौली का ही माना जाएगा। चंदौली के ईशानी एग्रो प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के अजय सिंह ने ह्यूमन वेलफेयर एसोसिएशननाबार्ड और राज्य सरकार के सहयोग से इसके जीआई टैग के लिए आवेदन किया था। धान के कटोरा का रुतबा हासिल करने वाले चंदौली जिले में विंध्य पर्वत श्रृंखला के मैदानी इलाकों में आदमचीनी धान की छिटपुट खेती होती रही है। चकिया के किसान छोटेलाल मौर्या और रामकुमार मौर्या दावा करते हैं"चंदौली और मिर्जापुर जिले के किसान करीब 70 हेक्टेयर में आदमचीनी की खेती कर रहे हैं। जीआई टैग मिलने बाद इस चावल का उत्पादन बढ़ जाएगा। मौजूदा समय में बाजार में इसका मूल्य 140 रुपया प्रति किलो है।"

चंदौली के प्रगतिशील किसान रतन सिंह न्यूजक्लिक से कहते हैं, " जीआई टैग मिलने से आदमचीनी की बहार आ जाएगी, यह कह पाना कठिन है। आदमचीनी धान की फसल पांच फीट तक लंबी होती है। इस धान के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसकी फसल पक जाती है, लेकिन इसके डंठल हरे ही रहते हैं। ऐसे में इसकी खेती मैन्युवल ही संभव है। जिस तरह से चंदौली में काला चावल की खेती टांय-टांय फिस हो गई, वही हाल आदमचीनी की भी होगी।"

चंदौली में सिर्फ आदमचीनी ही नहींजीआर-32काला नमकबादशाह भोगगोविंद भोग जैसे धान की सुगंधित प्रजातियों खेती की जा रही हैलेकिन इनमें सुगंध नहीं के बराबर रह गया है। दो दशक पूर्व इन प्रजातियों के चावल की खुशबू से खेत-खलिहान गमकने लगते थे, लेकिन अब सुगंध गायब है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान संस्थान के पूर्व निदेशक एवं प्रसिद्ध चावल वैज्ञानिक प्रो. आरपी सिंह कहते हैं, "रासायनिक उर्वरकोंकीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से सुगंधित चावल अब साधारण चावल के रूप में परिवर्तित हो गया है। सुगंधित चावल उत्पादन के लिए हरी खादकंपोस्ट की खादजैविक खादट्राईकोडरमा, जैव कीटनाशकों और रोगनाशकों का प्रयोग जरूरी है।"

 कैसे मिलता है जीआई टैग?

बनारसी पान और लंगड़ा आम को जीआई दिलाने वाले एक्टिविस्ट डा.रजनीकांत

 बनारस में जीआई के विशेषज्ञ पद्मश्री डॉ रजनीकांत मीडिया से कहते हैं, "पूर्वांचल के जितने भी जीआई उत्पाद हैं उससे करीब 20 लाख लोग जुड़े हैं। इनके जरिये करीब  25,500 करोड़ का सालाना कारोबार होता है। नाबार्डराष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंकयूपी सरकार के सहयोग से 20 उत्पादों के लिए जियोग्राफिकल इंडिकेशन के लिए आवेदन किया गया था। लंबी प्रक्रिया के बाद 11 उत्पादों को बौद्धिक संपदा का टैग मिल गया है। जल्द ही बनारस के पेड़ा, तिरंगा बर्फीबनारसी ठंडई, बनारस के  लाल भरवा मिर्च के अलावा चिरईगांव के करौदे को जीआई टैग मिलने के आसार हैं।"

डॉ रजनीकांत के मुताबिक, "किसी उत्पाद के लिए जियोग्राफिकल इंडिकेश (जीआई)  हासिल करने के लिए सबसे पहले तो आवेदन की प्रक्रिया को पूरा करना होता है। इसके लिए कोई भी व्यक्तिगत निर्मातासंगठन आवेदन कर सकता है। जीआई टैग सिर्फ दस साल के लिए मिलता है। अब से पहले पूर्वांचल के 18 उत्पादों को जीआई टैग मिल चुका है, जिसमें बनारस का ब्रोकेड एवं साड़ी, भदोही की कालीनमिर्जापुर की हस्तनिर्मित दरीबनारस का मेटल रिपोजी क्राफ्टगुलाबी मीनाकारीवूडेन लेकरवेयर एंड ट्वायज, ग्लास बीड्ससाफ्ट स्टोन जाली वर्कबनारस की जरदोजीवुड कार्विंग, निजामाबाद की ब्लैक पाटरीगाजीपुर की वाल हैगिगचुनार का बलुआ पत्थर और ग्लेज पाटरीगोरखपुर का टेराकोटा क्राफ्टबनारस हैंड ब्लाक प्रिंट, मिर्जापुर के पीतल बर्तन,  मऊ की साड़ी शामिल हैं।"

बनारस के जाने-माने पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं,  "किसी भी उत्पाद पर जीआई टैग अथवा चाहे जो भी टैग लगा दें, उत्पादकों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। जीआई टैग से  दो जिज्ञासा पैदा होती है। पहली प्रोडक्ट की क्वालिटी अच्छी होगी और कारोबार का विकास हो जाएगा। अब तक जितने भी भारतीय प्रोडक्ट को टैग मिले हैं उससे किसी प्रोडक्ट की सेहत में सुधार हुआ है, ऐसा देखने को नहीं मिला है। मिसाल के तौर पर आम को लिया जाए तो इसकी भारतीय नस्लों की जीआई टैग से पहले देश-विदेश काफी डिमांड हुआ करती थी।  उसमें कोई फर्क आया है, वो दिखता नहीं है।"

"जीआई टैग मिलने से किसी उत्पाद को विशेष सुविधाएं अथवा अनुदान मिलने लगे, ऐसा देखने-सुनने को नहीं मिला है। जीआई मिलने के बाद उत्पादकों के लिए सरकार ने कुछ स्पेशल देना शुरू कर दिया हो, ऐसा भी कभी नहीं हुआ। जियोग्राफिकल टैग का कोई मतलब नहीं है। इससे भारी मुनाफे का प्रचार एक जुमला हो सकता है। कोई एक उदाहरण पेश किया जाए कि जीआई  टैग मिलने से उत्पादकों के जीवन, रहन-सहन और उनकी आर्थिक व सामाजिक स्थितियों में कोई बदलाव आया हो अथवा उस उत्पाद के उत्पादन की मात्रा बढ़ गई हो। जीआई टैग का सिलसिला स्वांतःसुखाय जैसा है। इसे यूं भी कह सकते हैं जीआई सिर्फ अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने जैसा है।"

अवार्ड झटकने का हथियार बना जीआई

प्रदीप यह भी कहते हैं, "जीआई टैग की महत्ता तब समझ में आती जब इस तरह के उत्पाद को कोई विशेष पैकेज मुहैया कराया जाता। कुछ लोग अपना प्रचार करने और अपने दबदबे को बढ़ाने के लिए जीआई टैग का खेल, खेल रहे हैं। ऐसे उत्पाद और उसके उत्पादन में लगे लोगों को फायदा भले ही न मिले, लेकिन इस टैग को देने और दिलाने वाली संस्थाओं के कर्ता-धर्ताओं का रंग जरूर चोखा हो जाता है। ये लोग अपने लिए सरकार से बड़े-बड़े अवार्ड और सुविधाएं एक झटके में जरूर झटक लेते हैं। हमें लगता है कि जीआई टैग प्रोपगंडा बनता जा रहा है। गौर करने की बात यह है कि चुनार पाटरी को जीआई मिला है, लेकिन वहां तो पूरा बाजार प्लास्टर आफ पेरिस के उत्पादों से भरा पड़ा है। ऐसे में जीआई दिलाने का फायदा क्या है? यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि उत्पादकों की वास्तविक जिंदगी में बदलाव आए अथवा न आए, लेकिन जीआई पंजीकरण कराने वाले पुरोधाओं की जिंदगी जरूर बदल गई है।"

बनारस के एक्टिविस्ट डा. लेनिन भी प्रदीप कुमार के बातों से इत्तिफाक रखते हैं। वह सवाल खड़ा करते हैं कि किसी उत्पाद को जीआई टैग मिलने से क्या उसके उत्पादकों की समस्याएं हल हो जाएंगीउत्पादकों की पहुंच बाजार में कैसे हो पाएगी इससे क्या बिचौलियों का खेल खत्म हो जाएगा? जीआई टैग हासिल करने वाले उत्पादों में लगे कारीगरों और श्रमिकों के हालात तो बद से बदतर हैं। इनकी चुनौतियों को न तो चिह्नित किया गया और न ही सरकार अथवा किसी संस्था ने कोई समाधान ढूंढने की कोशिश की। उत्पादकों की जिंदगी में कोई रंग नहीं है। झंझावतों से भरी अपनी जिंदगी की गाड़ी को वह किसी तरह से खींच पा रहे हैं। हैंडलूम, पावरलूम में बदल गए। हैंडलूम का एक बड़ा बाजार खत्म हो गया, लेकिन सरकार आंख मूंदे बैठी रही। बनारसी हैंडलूम की रीयल ब्रांडिंग आज तक नहीं हुई। बुनकर अब मजूरी से अधिक बिजली की लड़ाई लड़ रहे हैं।"

डा.लेनिन यह भी कहते हैं, "जीआई टैग (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) तो सिर्फ फैशन है, प्रोपेगंडा है। भौगोलिक संकेतक मिलने के बावजूद जब बनारस के वुड कार्विंग, गुलाबी मीनाकारी, जरदोजी के कारीगरों को सुविधाएं मयस्सर नहीं हुईं तो बनारसी पान, लंगड़ा आम, रामनगरी बैगन और आदमचीनी चावल के उत्पादकों को क्या मिलेगाजीआई दिलाने से ज्यादा दम तोड़ रही कला के हुनरमंदों की तरक्की पर काम करने की जरूरत है। अफसोस की बात यह है कि अपने देश में उत्पादों को विश्व बाजार में उतारने के लिए कोई पुख्ता रणनीति नहीं है। बाजार खोजे बगैर ही यहां उत्पादन की नई रवायत शुरू हो गई है। न कोई रणनीति है, न ही काम करने का माद्दा। कोई इन्वेस्टमेंट भी नहीं है।"

"भारत में जीआई टैग के नाम पर क्या खेल चल रहा है, उसे समझने की जरूरत है? जीआई कराने वालों से उस उत्पाद को बढ़ाने, उत्पादकों को जागरूक बनाने और उनकी जिंदगी को बदलने तक मुकम्मल योजना भी मांगी जानी चाहिए। साथ ही उत्पादों को विश्व बाजार में पहुंचने के लिए मार्केट भी ढूंढा जाना चाहिए। जिस तरह से जीआई दिया और दिलाया जा रहा है, उससे किसी उत्पाद को विश्व बाजार में पहुंचाने की मुहिम नहीं, बल्कि यह टैग महज एक प्रोपेगंडा बनता जा रह गया है।"

बनारस के जीआई कुछ और उत्पादों की झलक: 

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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