फ़र्ज़ी धर्मान्तरण मामले में बरेली की अदालत ने पुलिस अधिकारियों और शिकायतकर्ता के ख़िलाफ़ कार्रवाई के आदेश दिए
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ज्ञानेंद्र त्रिपाठी ने टिप्पणी करी कि यह मामला सभ्य समाज के लिए चिंताजनक है और कहा कि मामले में असली दोषी ज़िम्मेदार पुलिस अधिकारी और शिकायतकर्ता हैं।
यूपी-एंटी कंवर्जन लॉ के तहत दर्ज एक फ़र्ज़ी मामले में बरेली ज़िला व सत्र न्यायालय ने दोषी पुलिस अधिकारियों और शिकायतकर्ता के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई के आदेश दिए है। अदालत ने इसे दुर्भावनापूर्ण मामला क़रार दिया है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ज्ञानेंद्र त्रिपाठी ने पुलिस अधीक्षक (एसपी) बरेली को शिकायतकर्ता, गवाह अरविंद कुमार, देवेंद्र सिंह और रवींद्र कुमार, बिथरी चैनपुर के तत्कालीन थाना प्रभारी शितांशु शर्मा और जांचकर्ताओं व चार्जशीट को मंज़ूरी देने वाले सर्कल अधिकारी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का भी आदेश दिया। इंडियन एक्सप्रेस में ये रिपोर्ट प्रकाशित हुई है।
इस मामले में पहली बार 29 मई, 2022 को हिंदू जागरण मंच के बरेली जिला अध्यक्ष हिमांशु पटेल की शिकायत के आधार पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी। इस शिकायत में अभिषेक गुप्ता को आरोपी बनाया गया था और बाद में गुप्ता के बयान के आधार पर कुंदन लाल नाम के एक अन्य व्यक्ति पर भी मामला दर्ज किया गया। इस एफ़आईआर में आरोप लगाया गया कि गुप्ता अपनी 8 सदस्यीय टीम के साथ लोगों को ईसाई धर्मान्तरण करने के लिए धर्म परिवर्तन का रैकेट चलाने वाले गिरोह में शामिल थे। आरोपियों पर उत्तर प्रदेश प्रोहिबिशन ऑफ़ अनलॉफुल कंवर्जन ऑफ़ रिलिजन एक्ट, 2021 की धारा 3/5 के तहत आरोप लगाए गए थे। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार अदालत ने फ़ैसले में कहा कि शिकायतकर्ता, गवाह, थानाध्यक्ष, जांचकर्ता और आरोप पत्र को मंज़ूरी देने वाले क्षेत्राधिकारी "असली अपराधी हैं"।
अहम बात यह है कि इस फ़ैसले में कहा गया है कि शिकायतकर्ता उत्तर प्रदेश धर्मांतरण विरोधी क़ानून के तहत शिकायत दर्ज करने के लिए पात्र नहीं था। फिर भी, पुलिस अधिकारियों ने उसे शिकायत दर्ज करने की अनुमति दी और यहां तक कि मामले में आरोप पत्र भी स्वीकृत कर दिया जिससे पुलिसकर्मियों और शिकायतकर्ता की दुर्भावनापूर्ण मंशा का पता चलता है।
न्यायमूर्ति त्रिपाठी ने यह भी कहा कि इस मनगढ़ंत मामले ने दोनों आरोपियों को बुरी तरह प्रभावित किया। उन्होंने कहा कि अभिषेक गुप्ता को रोहिलखंड मेडिकल कॉलेज की अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा, साथ ही सामाजिक रूप से बदनामी भी झेलनी पड़ी। अदालत ने टिप्पणी में कहा कि "यह साफ है कि पुलिस ने शिकायतकर्ता जैसे व्यक्तियों द्वारा पब्लिसिटी के उद्देश्य से की गई शिकायतों पर किसी दबाव में काम किया। निराधार और मनगढ़ंत व काल्पनिक कहानी को क़ानूनी रूप देने के असफल प्रयास में यह कार्रवाई की गई। इसके कारण न केवल पुलिस, बल्कि अदालत का भी बहुमूल्य समय, श्रम और पैसा बर्बाद हुआ।"
इसके अलावा अदालत ने अभियोजन पक्ष के बयान पर सवाल उठाया और कहा कि "कथित घटना स्थल पर पुलिस द्वारा की गई कथित कार्रवाई का कोई सबूत नहीं है। मौक़े से किसी भी ऐसे व्यक्ति को गिरफ़्तार नहीं किया गया जो धर्म परिवर्तन के लिए उकसा रहा था या उस संबंध में प्रयास कर रहा था। इसके अलावा, जांच के दौरान, जांचकर्ता द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति की जांच नहीं की गई जो धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित था या उस संबंध में कोई प्रयास किया गया था। अभियोजन पक्ष के मुताबिक़ मौक़े से कोई भी पवित्र ग्रंथ जैसे बाइबिल, पुस्तक आदि बरामद नहीं हुए।"
अदालत ने मामले में आरोपियों को बरी कर दिया और कहा कि वे शिकायतकर्ता, दोषी पुलिसकर्मियों और गवाहों के ख़िलाफ़ दुर्भावनापूर्ण मुक़दमे में शामिल होने के लिए दीवानी मुक़दमा दायर कर सकते हैं।
वर्तमान निर्णय कानून में हाल के संशोधन की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण है जो "किसी को भी" यूपी धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत शिकायत दर्ज करने की अनुमति देता है, जिसकी धार्मिक अल्पसंख्यकों को लक्षित करने और इसके ज़बरदस्त दुरुपयोग के लिए अधिकार समूहों द्वारा पहले ही आलोचना की जा चुकी है।
जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धार्मिक रूपांतरण, अंतरधार्मिक विवाह और यूपी धर्मांतरण विरोधी क़ानून के तहत आरोपित लोगों के लिए ज़मानत आवेदनों से संबंधित मामलों पर अलग अलग असंगत फ़ैसला सुनाया है, जिला अदालत का यह आदेश क़ानून और पुलिस-तंत्र में निहित आधिकारिक शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए एक प्रगतिशील क़दम है।
अदालत के फ़ैसले की कॉपी यहां पढ़ सकते हैं:
साभार : सबरंग
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