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किताब: स्त्रियों और प्रकृति के अंतस की बात कहती कविताएं

रूपम की कविताएं अपनी बुनावट में भले कुछ अतिरिक्त खिंच गई हों, लेकिन वे पाठक में ऊब नहीं पैदा करती हैं। क्योंकि उन विवरणों में एक संवेदनात्मक ऊष्मा है। एक ईमानदारी है। एक टटकापन है।
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'और ये कविता है कि खत्म ही नहीं हो रही है...।' यह पंक्ति रूपम मिश्र के काव्य संग्रह “एक जीवन अलग से” 'वे जब आयीं' शीर्षक कविता से है। कविता के अंत में वे जैसे खीझकर कहती हैं- 'और ये कविता है कि खत्म ही नहीं हो रही है...।'

ये जो डॉट-डॉट है, यह एक संकेतक है कि कविता अभी भी ख़त्म नहीं हुई है, बल्कि कवयित्री किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाकर भाग रही है। एक बात और भी कि उन तमाम स्त्रियों के दुःख ही कहां ख़त्म हो रहे हैं।

हो सकता है कि रूपम की कविताएं अपनी बुनावट में कुछ अतिरिक्त खिंच गई हों, लेकिन वे पाठक में ऊब नहीं पैदा करती हैं। क्योंकि उन विवरणों में एक संवेदनात्मक ऊष्मा है। एक ईमानदारी है। एक टटकापन है।

रूपम मिश्र उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के गांव विनयका की रहने वाली हैं। उनका यह पहला कविता संग्रह है जो 2022 में लोकभारती प्रकाशन से आया है।

एक दुःखी, शोषित, उत्पीड़ित या अब तक न सुने गए व्यक्ति को जब कोई सुनने वाला, समझने वाला मिल जाता है तो वह अपना हृदय ही बिखेर देता है। बाद में भले उसे  संभालने में वक्त लगे। मन की सारी गिरहें खोल देता है। फिर बांधने में भले ही यथोचित गांठ न बंधे। स्त्रियों का व्यवहार भी कुछ ऐसा ही होता है। भाषा और कविता के रूप में रूपम को वही जिगरी दोस्त मिल गयी है, जिसके सम्मुख उन्होंने सारी परतें खो दी हैं।

अपनी कविता में जिन दुःखों, पीड़ाओं, वंचनाओं, चालाकियों, बेईमानियों की फेहरिस्त रूपम पेश कर रही हैं, क्या हम उसे नकार सकते हैं? क्या यह कह सकते हैं कि वे उसी रूप में नहीं हैं, जिस रूप में रूपम दर्ज़ कर रही हैं।

एक कविता में वे लिखती हैं-

"भीड़ की आंखें उस पल भर के दृश्य पर ऐसे अचकीं
जैसे तानाशाह राज्य में दो ग़ुलामों ने आज़ादी का परचम लहरा दिया हो
उन्हें यकीन नहीं हो रहा इस दृश्य पर कि
इतने हॉर्न, इतना शोर, इतने तरह के भय, भीड़ और इतनी धूप में
धूल भरी सड़क के किनारे एक औसत-सी स्त्री
एक धुमिलाए चांद से पुरुष के हृदय पर अपना माथा टिकाए प्रशांत खड़ी है।...”

उनकी कविताओं में यह टटकापन और ईमानदारी निर्बाध प्रवाहित अवध की भाषा, लोक, कहन-भंगिमा एवं मुहावरों के कारण भी है। उनकी कविता से ही कुछ उदाहरण-  'चैत का अलसहवा दिन', 'उजास से आंखें अमिलाती हैं', 'घाम जैसी अजोरिया', 'सनई के बोझ से गरुआई स्थानीयता', 'खरबिराही स्त्रियां' आदि। कविता में अनेक ऐसे वाक्य हैं जो भविष्य के मुहावरे में ढल जाएंगे।

साफ़गोई और साधारणता में नयेपन को साधना एक चुनौती होती है। रूपम ने इस चुनौती को स्वीकार किया है। उनकी कविताओं में यह नयापन अब तक इतनी साफ़गोई से न कहे गए उन दुखों के कारण भी है, जिन तक कलम इसलिए नहीं पहुंची कि उनके चेहरे बहुत धूमिल थे, एकदम मिट्टी के रंग के थे। वे भूगोल में कहीं खो गए थे। दरारों में छिप गए थे। कोई सोच भी नहीं सकता है कि यहां इतनी गहन पीड़ा, एक दुत्कार, एक आत्म-निर्वासन भी बसता है। उन पर किसी तरह का एक पर्दा था जो अब एक नया यथार्थ बनकर इन कविताओं में उद्घाटित हुआ है।

रूपम लिखती हैं -

"तुम कायदे से तफ़सील करके देखना
ढरकता राष्ट्रहित व अभिजात्यता का भगल बनाए चंद लोग
नहीं होते उस गांव की पहचान
सही मायने में ये डीह सी खरबिरही स्त्रियां ही उस गांव की पहचान हैं
इनसे ही गांव मनई का गांव लगता है।"

कह सकते हैं कि रूपम की कविताएं अनुभव से बनी हैं। और उसके बिम्ब आंखो देखे हैं। जहां तक वे अनुभव और आंखों देखी हैं, वहां तक वे स्वयं प्रमाणित हैं। किसी कविता में वे कहती भी हैं कि- 'हमनें तानाशाही को किसी किताब से नहीं सीखा है। जिसके पास जितना बल है वह उतना बड़ा तानाशाह है।’  स्त्रियों के सम्मुख नामालूम-सी अनेक सत्ताएं हैं जिससे उनका हर क्षण सामना होता है। वे अपनी सत्ता का स्थायी बैरिकेड लगा चुनौती बनकर खड़े हैं। जिसे रूपम नाम बताकर कहती हैं।

लेकिन जहां वे अपने आस-पास के अनुभव और यथार्थ की भूमि से हटकर कुछ कहने की कोशिश करती हैं, एक नए भूगोल और नए यथार्थ से जुड़ने की कोशिश करती हैं, वहां बहुत सारे प्रचलित मुहावरों का भी इस्तेमाल करती हैं- जैसे हिटलरी थीम ,सत्ता के चरण दबाते अख़बार, डायरों ,नादिरशाही, तलवार आदि। तब यह भी कहा जा सकता है कि यह पूरी यात्रा सिर्फ अनुभव की दिशा से नहीं तय की गई है बल्कि बाहरी दुनिया का भी इसमें कुछ निवेश है। यानी विचार की दिशा से भी यह यात्रा की गई है।

रूपम अवध प्रान्त के एक छोटे से गांव में भले रह रही हों, लेकिन उनकी दृष्टि विस्तारित है। कुछ मामले में वह गांव भी एक वैश्विक गांव है। वे उन विमर्शों से परिचित हैं, जिसके आलोक में आज की हिंदी कविता लिखी जा रही है। इसकी शिनाख़्त उनकी कविताओं में की जा सकती है।

लेकिन किसी कवि या कविता की ताकत सिर्फ़ यह नहीं होती कि वह देश-दुनिया को कितना जानता है, उससे कितना जुड़ा हुआ है। बल्कि उपलब्ध पाठ के संदर्भ में यह भी  होती है कि जितना उसने कहा है, उसकी समझ उसे है कि नहीं। इस संदर्भ में रूपम की कविताएं स्वयं प्रमाणित हैं।

रूपम अपनी कविताओं के ज़रिए अवध की स्त्री के यथार्थ को उद्घाटित करती हैं। अवध की स्त्रियां, नदियां, मिट्टी, अवध की पूरी प्रकृति उनके प्रति भरपूर उदार हो उठती है। वह उनके सम्मुख उन दुखों को कहने के लिए भाषा और संवेदना का कोष लिए खड़ी है। उम्मीद है कि भविष्य में भी वह रूपम के लिए ऐसे ही खड़ी रहेंगीं। लेकिन रूपम उसका उचित उपयोग ही करेंगीं। क्योंकि कई बार हम लोक के शब्दों, मुहावरों के ब्यामोह में बहते-फंसते चले जाते हैं।

रूपम की कविताओं में दुख आक्रोश में बदल गया है। उम्मीद यह भी है कि आगे भी इनकी कविताएं सत्ता के जितने सूक्ष्म रूपों से परिचित होंगी आक्रोश और क्षुब्धता बढ़ती ही जाएगी। 

(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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