'यह स्मृति को बचाने का वक़्त है' : प्रतिरोध और प्रेम की कविताएं
‘हत्यारे को हत्यारा कहना / भाषा के सही इस्तेमाल की / पहली सीढ़ी है’ , जैसी फासीवाद के गुब्बारे में पिन चुभोने वाली पंक्तियाँ लिखने वाले कवि अजय सिंह की कविताओं का दूसरा संग्रह ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है’, बीते बरस 2022 में गुलमोहर किताब से आया है। उनकी कविताएँ पढ़ते हुए आप उनसे असहमत हो सकते हैं लेकिन उनके धुर वामपंथी और जनवादी होने की निष्ठा पर सवाल नहीं कर सकते । अजय सिंह ऐसे कवि हैं जो मुक्तिबोध की तरह जीवन भर पॉलिटकली करेक्ट रह कर ‘वामपंथ के अंत’ के खिलाफ खड़े रहे और उसे झूठा सिद्ध किया।
उनकी कविताएँ प्रेम की जिजीविषा और क्रान्ति के साहस के कारण हमेशा चर्चा में बनी रहती हैं। इस कविता संग्रह में राजनीतिक समझ की अनेक कविताएँ हैं जो विस्मृति के खिलाफ अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं; विस्मृति जिसका भरपूर उपयोग सत्ता करती है।
इस कविता संग्रह में मुख्य रूप से दो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं- राजनीतिक और स्त्री विषयक। राजनीतिक कविताओं में हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिक जनविरोधी कार्य करने वाली व्यवस्था के प्रति तीखी नफरत है, जिसके विरुद्ध वे सड़क पर उतरने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। स्त्री विषयक कविताओं में एक तरफ महिला आन्दोलन, उनके विचार ,स्वप्न, संघर्ष और विडम्बनाएँ हैं तो दूसरी तरफ आज की बदलती हुई स्त्री के मनोभावों का चित्रण है।
कवि अजय सिंह की सामाजिकता उन्हें समृद्ध करती है। वे बहुत पढ़ते हैं और जिन्हें पढ़ते हैं उनके बारे में अपनी दो टूक राय रखते हैं। यह किताब उन्होंने चर्चित लेखिका किरण सिंह को समर्पित की है। अपने प्रियजनों को याद करते हुए उन्हें शुक्रिया कहा है। वे उन तमाम दंगे, बर्बताएँ और कत्लेआम की घटनाओं को याद करते हैं जिनमें जनता का हैरान-परेशान और सत्ता का भयावह चेहरा दिखाई देता है। अपने बारे में वे किसी मुगालते में नहीं रहते साफगोई उनके जीवन का हिस्सा है इसीलिए वे ‘शोक कविताएँ’ जैसी अनुपम कविताएँ लिख पाए।
उनकी कविताओं पर बात करना देश में घट रही घटनाओं को नए नज़रिए से देखना है। उनकी सहमति और असहमति की भावनाओं और विचारों के बड़े फलक से होकर गुजरना है। इस संग्रह की शीर्षक कविता ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है’ दरअसल उन घटनाओं का कोलाज है जिन्होंने देश के जन-जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया। इन कविताओं के लिखे जाने के आसपास नित नई करवट लेने वाले दो आन्दोलन चल रहे थे। ‘शाहीनबाग़’ जिसे वे नए भारत की खोज कहते हैं और ‘किसान आंदोलन’ जिसे वे लोकतंत्र का विस्तार कहते हैं। इन दोनों ही आंदोलनों को भारी संख्या में महिलाओं की भागीदारी के कारण देश- भर में काफी समर्थन मिला। ‘कोरोना महामारी’ ने सबको सबसे अलग कर दिया था। कवि इसके पीछे उस शातिर दिमाग को ढूँढते हैं जो पूँजी की खातिर लूट-खसोट और प्रकृति का शिकार कर रहा है। कवि का गुस्सा कारपोरेट घरानों को लेकर है जिनकी कमाई का ग्राफ प्रति घंटा बढ़ रहा है। साथ ही महामारी में अजब-गजब टोटके और अनचाही परिस्थितियों का जनता पर अनावश्यक दबाव को लेकर भी गुस्सा है । ‘कोरोना’ महामारी पर लिखी उनकी बेहद खूबसूरत कविता है-‘दुनिया बीमारी या महामारी से खतम नहीं होगी ’ जिसमें वे कहते हैं कि -
‘दुनिया बीमारी या महामारी से खतम नहीं होगी / खत्म होगी / चुंबन व आलिंगन की कमी से /जब दिलों में प्यार / किसी के लिए तड़प नहीं होगी / दुनिया के होने की वजह नहीं होगी। दुनिया खत्म होगी उस पुकार से / आओ तानाशाह आओ / हमारी आत्मा का ध्वंस कर दो / जो सारी बुराइयों की जड़ है।’
कहा जाता है कि साम्प्रदायिक सौहार्द लोकतंत्र की कसौटी होती है। धूमिल ने कहा था कि वक्त की सच्चाई को जानना ही विरोध में होना है। यह विरोध यह छटपटाहट अजय सिंह की कविताओं में देखने को मिलती है। हालाँकि धूमिल की तरह उनकी भाषा भी कभी-कभी भदेस हो जाती है लेकिन असंवेदनशील नहीं। उनकी चर्चित कविता है- ‘हिन्दी के पक्ष में ललिता जयंती एस रामनाथन का मसौदा प्रस्ताव एक संक्षिप्त बयान’ जिसमें वे कहते हैं कि -
‘यदि हिन्दी को हिन्दू होने से बचाना है / तो उसे रामचन्द्र शुक्ल से बचाना होगा / और उन्हें / पाठ्यक्रम से बाहर करना होगा / और नए सिरे से लिखना होगा / हिन्दी साहित्य का इतिहास ।’ इस कविता में रामचंद्र शुक्ल के प्रति इतनी नाराज़गी क्यों दिखाई देती है। दरअसल वे कहना चाहते हैं कि यह हिंदी साहित्य के इतिहास का एकांगी नजरिया है, बहुत सी ऐसी प्रवृत्तियाँ रहीं जिनकी अनदेखी की गई, बहुत से महत्वपूर्ण कवि थे जिन्हें खारिज किया गया और सबसे बड़ी बात कि हिन्दी साहित्य का यह इतिहास सवर्ण मानसिकता को पोषित करता हुआ उर्दू विरोध और मुसलमान विरोध पर टिका था। जिस पहले स्वतंत्रता संग्राम में राजा-रानी-जनता, ब्राह्मण-शूद्र, कुलीन स्त्रियाँ-वेश्याएँ, ग्रामीण-शहरी, आदिवासी-जनजातियों ने मिल-जुल कर लड़ाई लड़ी और बलिदान दिया, जिसमें भारतीय एकता के सूत्र मिलते हैं उसके प्रति उदासीनता क्यों रही, असद ज़ैदी ने भी अपनी कविता ‘1857: सामान की तलाश’ में कहा था कि- हिन्दी के भद्र सहित्य में जिसकी पहली याद सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा को ही आई। साहित्य, समाज और राजनीति के इसी पहलू पर अपनी बात रखते हुए कविता के अंत में वे कहते हैं- ‘जो मीर ग़ालिब नज़ीर को / हिंदी न कहे / समझो / वो हिंद से बाहर हुआ।’
‘दो हत्यारे संविधान सम्मत, और वामपंथ’ इस कविता के माध्यम से गुजरात दंगे की याद दिलाते हुए कहते हैं कि हत्यारे, लुटेरे, बलात्कारी चारो तरफ छा गए हैं और फूल मालाओं से सम्मानित किए जा रहे हैं। कवि सवाल उठाते हैं कि- ‘सर्वनाश करने वाली ताक़तों का मुक़ाबला / सिर्फ़ संविधान के बल पर /हो पाया है कभी कहीं भी?’ बहरहाल यह बहस का विषय है और इस पर बहस होनी भी चाहिए।
कविता के सरोकारों की बात करें तो वह इन्हीं विषयों से होती हुई जीवन की ओर लौटती है। जो मनुष्य और मनुष्य को जोड़े वही प्रेम चाहिए। ‘राखी के मौके पर एक बहन की पुकार’ कविता में एक मार्मिक बयान है जिसमें सदियों का दर्द उमड़ा चला आता है। बयान देती हुई स्त्री रोती नहीं है बल्कि हौसले के साथ विरोध की धमकी देती है। घरेलू हिंसा और ऑनर कीलिंग के सम्भावित खतरे को भांपती हुई बहन कहती है- ‘‘भाई मेरे / मुझे जिन्दा रहने देना ! जैसे उस भाई ने अपनी बहन को काट डाला / जैसे उस भाई ने / अपनी बहन को विधवा बना डाला / वैसा न करना / मुझे घर की इज़्ज़त या निजी जायदाद / न समझना !’’
एक बार महिलाओं के चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी। रिर्पोट लिखते हुए संवाददाता अपनी टिप्पणी में लिखती हैं कि- ‘पूरी प्रदर्शनी को देखकर मन में यह वाक्य उभरता है कि- ‘आई जस्ट वांट टु बी वुमेन, आई डोन्ट वांट टु बी समवन्स वुमेन’ ( मैं केवल औरत होना चाहती हूँ, मैं किसी की औरत नहीं बनना चाहती हूँ ।)’
अजय सिंह इसी औरत की बात करते हैं। यह आज की औरत है जिसकी सहमति और असहमतियों को समझने की जरूरत है। खासकर उसकी अपनी स्वतंत्रता और निजता के संदर्भ में, जिसमें उसकी यौन- आजादी और चाहत भी शामिल है। इस संग्रह की तमाम कविताओं में स्त्री के अलग-अलग रूप और मनोभाव दिखाई देते हैं। ‘मैं’ की शैली में लिखी कविताओं में कवि भी खूब जूझते हैं। उनकी कविताओं में दो प्रकार की स्त्रियाँ हैं एक वह जो लेखक, विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जैसे- अन्ना अख्मातोव, परवीन अहंगार, कौसल्या बैसंत्री, सारा शगुफ़्ता, अमर शेख़, कमलादास, सोनी सोरी ,शीतल साठे, नारायण अम्मा, राधिका वेमुला, फातिमा नफ़ीस आदि जिनके विचारों से वे प्रभावित हैं और उनके संघर्षों को सलाम करते हैं। दूसरी ओर वे स्त्रियाँ हैं जिनके जीवन में दोस्ती, प्रेम, महात्वाकांक्षा के लिए स्थान है। वे विचारधारा में वाम की ओर झुकी हैं। उनमें नैतिकतावादी, शुद्धतावादी मान्यताओं के प्रति विद्रोह और आज़ादी की तीव्र आकांक्षा दिखाई देती है।
यह वही स्त्री है जो अपनी छूटी हुई ऐतिहासिक लड़ाई लड़ रही है कभी समाज से तो कभी प्रेमी से। एक कविता है ‘प्यार का ट्रक। इस कविता की स्त्री मंटो की कहानियों की स्त्रियों की याद दिलाती है जिसमें वह बेधड़क अंदाज में गाली देती है और अटूट प्रेम करती है। वह प्रेमी के जालबट्टे वाली बातों पर खरी-खोटी सुनाने को तैयार रहती है। यह स्त्री अपनी यौनिकता की दावेदारी जताने और अपनी शर्तों पर जीने की बात करती है। वह अपने प्रेमी से बेइंतहा प्रेम करती है बावजूद इसके अपनी शक्की निगाहें इधर-उधर दौड़ाती रहती है। वह कहती है- ‘सारे मर्दो का तर्क एक जैसा होता है / वे औरत की आज़ादी, निजता को बर्दाश्त नहीं कर सकते।’
‘सुंदर औरत की मुश्किल’ कविता की स्त्री अपनी प्रतिभा, बौद्धिकता और सुंदरता के प्रति सजग और सावधान है। स्त्री को पालतू बनाने की साजिशों को वह खूब पहचानती है। फासीवाद, अमेरिकी साम्राज्यवाद, ब्राह्मणवाद से उसे तीखी नफरत है, इसके खिलाफ वह नारा लगाना चाहती है। बराबरी का दावा करती हुई यह स्त्री अपनी सेक्सुआलिटी के बारे में फख्र से बात करती है। वह समाज को सुंदर, मानवीय, न्यायोचित और यौनिक रूप से संवेदनशील बनाना चाहती है। वह जनपक्षधरता को लेकर राजनीति की अगली कतार में चलना चाहती है। कुछ पंक्तियां-
‘वह सुंदर औरत / सुंदर औरत के बारे में बने सारे मिथ / को ध्वस्त करती हुई / सुंदरता का जनवाद रचती है।’
कविता आग नहीं होती लेकिन कवि उससे आंच का काम लेता है, कविता फूल नहीं होती लेकिन कवि उससे सुगंध का काम लेता है , इसी प्रकार कवि अपनी कविता ‘प्रेम एक संभावना’ में गत्यात्मक बिम्ब ले आते हैं- ‘दौड़ना क्रिया नहीं / जीवन विधान है उसका गोया कि / वह फलांगती हुई सीढ़ियाँ चढ़ती है / छलांग लगाती हुई उतरती है। यह स्त्री हारने वाली नहीं बल्कि अपनी मुश्किलों का डट कर सामना करने वाली है। ‘पुराने ढंग की प्रेम कविता’ में भी ढेर सारे गत्यात्मक दृश्य हैं। जिसमें स्वाद है सुगन्ध है। उन प्रेमी-प्रेमिका के बीच में कविताएँ हैं, गीत हैं, एक दूसरे के लिए चाहतें और बेकरारी है। जैसे-
‘मैं चाहता हूँ / सारी रात / तुम्हारे साथ / पैदल शहर को नापूं’, वयस्क स्त्री-पुरुष का यह प्रेम आकर्षित करता है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में ऐसे प्रेम के लिए जगह होनी चाहिए।
‘प्रेम एक बुरा सपना और ‘महान प्रेम का अंत’ कविता में प्रेम की विडम्बना दिखाई देती है। स्त्री प्रेम में सहज नहीं हो पाती। प्रेम और प्रेमी के संभावनाओं के बावजूद ऐसी अनेक बातें आती हैं जिसके कारण दोनों के ही विचारों और दिनचर्या में उदासीनता भर जाती है। असफल प्रेम कटुताओं का अंबार छोड़ जाता है। कविता की स्त्री प्रेम की महानता को मोम की तरह गलते हुए देखती है, और धीरे-धीरे ब्रेक-अप की तरफ बढ़ने लगती है। वह मानती है कि आज की स्त्री स्वयं सक्षम है। वह इस बात को सिरे से नकारती है कि औरत मर्द की छाया है। लेकिन उसके भीतर प्रेम का भरोसा हर हाल में जीवित रहता है। उसे विश्वास है कि प्रेम लौटकर फिर आएगा वह कहती है- ‘जैसे कड़ियल चट्टानों के बीच से / नन्ही हरी दूब बाहर झांकती है / वैसे ही प्रेम झांकेगा / और मुझे ढूँढ लेगा। '
‘प्रेम एक पड़ाव’ की स्त्री वह जागी हुई स्त्री है जिसमें सौंदर्य है, यौवन का आवेग है वह आज़ाद-ख़्याल है और इसकी हिफाजत करना भी खूब जानती है। ये स्त्रियाँ स्वयं से प्रकृति और जिन्दगी से प्रेम करती हैं। ये साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, थियेटर आर्टिस्ट, मॉडल, अभिनेत्री और अन्य कलाओं में दक्ष हैं। उनके तार्किक और सशक्त विचारों को कवि ने संवेद और आवेग से सहेजा है। प्रेम की कविताओं में स्त्रियों के जो रूप इस कविता- संग्रह में देखने को मिलता है वह आधुनिक और मनोहारी तो है ही अन्यत्र दुर्लभ हैं।
कवि अजय सिंह की सशक्त कविता है- ‘मर्द खेत है औरत हल चला रही है ’। इस कविता को पढ़ते हुए यह बात स्पष्ट होती है कि पितृसत्ता का सवाल केवल संस्कृति से ही नहीं बल्कि राजनीति और अर्थव्यवस्था से भी जुड़ा हुआ है। उनका कहना है कि सभ्यताएं केवल नदियों के किनारे ही नहीं पलीं बल्कि औरतों की गोद में भी पली बढ़ीं हैं। "जब से धान की खेती शुरू हुई / औरतें खेती किसानी करती आयी हैं / लेकिन औरतों को किसान नहीं माना गया / जमीन का पट्टा उनके नाम नहीं रहा / खेत का मलिकाना उनके नाम नहीं रहा / हमेशा ‘किसान भाई’ कहा जाता रहा / ‘किसान बहन’ कभी नहीं / जबकि औरत ही दुनिया की पहली किसान रही है।"
इस कविता के द्वारा वे याद दिलाते हैं कि मातृसत्तात्मक व्यवस्था का सुनहरा दौर आए या न आए लेकिन सत्ता और सम्पत्ति पर कब्जे का सपना औरतों को नहीं छोड़ना चाहिए। अंततः यह कविता संग्रह अपने कथ्य की स्पष्टता और भाषा की तीव्रता, तीक्ष्णता एवं साहस के कारण सबसे अलग अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
(लेखिका कवि और कहानीकार हैं। आपसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।)
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