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बजट 2024-25: डरावनी हठधर्मिता

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में बेरोज़गारी की समस्या का ज़िक्र तो किया है, लेकिन इसका जो समाधान उन्होंने पेश किया है, इस मामले की कोई समझ ही नहीं होने को ही दिखाता है।
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देश में भारी बेरोजगारी है, जिससे युवा खासतौर पर त्रस्त हैं। खाने-पीने की चीजों की कीमतों में भारी मुद्रास्फीति है, जो बराबर बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्र में तीव्र और अभूतपूर्व संकट बना हुआ है। लघु उत्पादन क्षेत्र में संंकट है। और हमारे देश में आय और संपदा की असमानता इतनी ऊंचाइयों पर पहुंच गयी है कि अब सारी दुनिया में इसके चर्चे हो रहे हैं। कोई भी यही सोचेगा कि इस सब के बीच पेश किए जा रहे बजट में, इन मुद्दों से निपटने के प्रति कुछ उतावली, कुछ हिम्मत दिखाई जाएगी। लेकिन नहीं, एनडीए सरकार द्वारा 2& जुलाई को संसद में पेश किए गए 2024-25 के बजट ने ऐसा कुछ नहीं किया।

उसी घिसी-पिटी लीक पर

जीडीपी के अनुपात के रूप में न तो कुल मिलाकर राजकीय खर्च में बढ़ोतरी हुई है (जिससे सकल मांग तथा इसलिए रोजगार में बढ़ोतरी होती) और न रोजगार पैदा करने की खास योजनाओं पर खर्च में बढ़ोतरी हुई है, न कल्याणकारी कार्यक्रमों पर खर्च में बढ़ोतरी हुई है और न ही शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए आवंटन में कोई बढ़ोतरी हुई है; उल्टे आम तौर पर कटौती ही की गयी है। इस सब के लिए राजकोषीय संसाधनों की कमी का बहाना भी नहीं बनाया जा सकता है क्योंकि किसी तरह का राजकोषीय प्रयास दिखाई ही नहीं दिया है।

इस बजट के पीछे ठीक वही रणनीति है, जो पिछले वर्षों के बजट के पीछे रही है। यह रणनीति यह है कि अतिरिक्त राजकोषीय संसाधन जुटाने के लिए कोई प्रयास करो ही मत। गैर-कर राजस्व में बढ़ोतरी का (जिसका बड़ा हिस्सा भारतीय रिजर्व बैंक के मुनाफों से आ रहा है) का इस्तेमाल एक हद तक पूंजी खर्च में बढ़ोतरी के लिए करो, जिसमें बुनियादी ढांचे पर खर्च में बढ़ोतरी भी शामिल है। अगर कुछ खास मदों में कल्याणकारी खर्च में बढ़ोतरी होती है तो, अन्य मदों में इसी खर्च में कटौतियां कर दो। और जो भी ज्वलंत समस्याएं सामने खड़ी हों, उनका हल निकालने के लिए, बड़ी पूंजी के लिए बजटीय हस्तांतरणों का प्रावधान करो।

राजस्व और खर्च

मैं एक-एक कर अपनी उपरोक्त तथ्यों को साबित करूंगा। 202&-24 (संशोधित अनुमान) और 2024-25 (बजट अनुमान) के बीच केंद्र सरकार के कुल खर्च में, जिसमें राज्यों के लिए हस्तांतरण भी शामिल हैं, कुल 7.5 फीसद बढ़ोतरी की जानी है। इसका अर्थ है, जीडीपी के अनुपात के रूप में केंद्र सरकार के खर्च में गिरावट आना। यह अर्थव्यवस्था में रोजगार को उत्प्रेरित करने के लिए जिसकी जरूरत थी, उससे ठीक उल्टा है। यह उलट-चाल किसी राजकोषीय तंगी की वजह से नहीं है। वास्तव में जीडीपी के अनुपात के रूप में कर प्राप्तियां, जो अब मुख्यत: केंद्र सरकार के विवेक पर निर्भर हैं, 2021-22 के 11.5 फीसद से बढक़र, 202&-24 में 11.7 फीसद हो गयी थीं और अब 2024-25 में 11.8 फीसद हो जाने वाली हैं। यह दिखाता है कि सरकार की ओर से राजकोषीय प्रयास सिरे से गायब है और अतीत के अनुभव को ही आगे के लिए प्रक्षेपित किया जा रहा है। सकल गैर-कर राजस्व ही है, जिसमें 202&-24 और 2024-25 के बीच 6 फीसद की बढ़ोतरी का अनुमान है, जिसमें सबसे बड़ा आइटम ‘लाभांशों तथा मुनाफों’ का है और इसमें सबसे बढक़र भारतीय रिजर्व बैंक से आने वाले मुनाफे शामिल हैं। बजट में लाभांशों और मुनाफों के हिस्से में 70 फीसद की बढ़ोतरी का प्रस्ताव है।

जहां तक खर्चों का सवाल है, जहां केंद्र सरकार के कुल खर्चों में सिर्फ 7.&5 फीसद बढ़ोतरी का प्रस्ताव है, उसके पूंजी खर्चों में, जिनमें पूंजीगत परियोजनाओं के लिए राज्यों के लिए किए जाने वाले उसके हस्तांतरण शामिल नहीं हैं, 17 फीसद बढ़ोतरी का प्रस्ताव है। यह ऐसा रुझान है जो पिछले कुछ वर्षों से देखने को मिल रहा है। किसी को यह एक सकारात्मक घटना विकास लग सकता है, लेकिन इसमें से ज्यादातर निवेश ऐसी परियोजनाओं पर किया जाता है, जिनका मेहनतकश जनता की जिंदगियों पर शायद ही कोई असर पड़ता है। इतना ही नहीं, उनका बहुगुणनकारी प्रभाव बहुत हद तक रिसकर विदेश में चला जाता है और इस तरह उनसे घरेलू तौर पर शायद ही कोई रोजगार पैदा होता है। दूसरी ओर, इस निवेश के चलते खर्चे के अन्य आइटमों में जो कटौतियां की जाती हैं, उन आइटमों का घरेलू अर्थव्यवस्था में कहीं बड़ा बहुगुणनकारी प्रभाव हो सकता था और यह स्थिति कुल मिलाकर रोजगार पर एक नकारात्मक प्रभाव डालती है।

बेरोजगारी का समाधान कारपोरेटों के भरोसे

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में बेरोजगारी की समस्या का जिक्र तो किया है, लेकिन इसका जो समाधान उन्होंने पेश किया है, इस मामले की कोई समझ ही नहीं होने को ही दिखाता है। उन्होंने रोजगार के लिए तीन योजनाओं की घोषणा की है, जो नये रोजगार पैदा करने को प्रोत्साहित करने के लिए, कर्मचारियों तथा मालिकान के लिए हस्तांतरणों की योजनाएं हैं। ये योजनाएं औपचारिक क्षेत्र के लिए हैं और जहां इनमें कर्मचारियों के हाथों में हस्तांतरण का प्रावधान किया गया है वहां भी, उनके लाभ रिसकर पूरी तरह से मालिकान के हाथों में पहुंच जाने की ही संभावना है, जो कर्मचारियों को होने वाले इन हस्तांतरणों को बराबर करने के लिए, वेतन भुगतान में से कटौतियां कर लेंगे। इसके अलावा उन्होंने कौशल-प्रदान करने के एक कार्यक्रम की घोषणा की है, जिससे उनके दावे के अनुसार रोजगार में मदद मिलेगी।

हस्तांतरण की इस योजना के पीछे सैद्घांतिक पूर्व-धारणा यह है कि अगर मालिकान को कम मजदूरी का भुगतान करना पड़ेगा, तो रोजगार बढ़ जाएंगे। यह पूंजीवादी अर्थशास्त्र की पसंदीदा थीम है, लेकिन इसे सच मानने का रत्तीभर कोई कारण नहीं है। होगा यह कि मालिकान इन हस्तांतरणों को अपनी जेब में डाल लेंगे और रोजगार उतने ही बने रहेेंगे, जितने अन्यथा रहेे होते। इसी प्रकार, कौशल मुहैया कराने की योजना भी पूंजीवादी अर्थशास्त्र की ही एक उपशाखा है, जो यह कहती है कि बेरोजगारी तो, कौशल अनुपयुक्तता के सिवा और कुछ नहीं है, कि सकल मांग की कमी जैसी कोई चीज तो कभी होती ही नहीं है, कि हमेशा ही बेरोजगारों के लिए पर्याप्त रोजगार उपलब्ध रहते हैं, बस समस्या यह होती है कि उपलब्ध काम के लिए जरूरी कौशल और बेरोजगारों के पास उपलब्ध कौशल का, परस्पर मेल नहीं बैठता है।

गलत आर्थिक चिंतन

इन दोनों प्रकार की योजनाओं के पीछे बुनियादी पूर्व-धारणाएं ही गलत हैं। ये पूर्व-धारणाएं नियम पर आधारित हैं कि, ‘आपूर्ति अपनी ही मांग पैदा करती है’ यानी मांग की कमी कभी होती ही नहीं है। मार्क्स ने इस रुख की आलोचना की थी। इस आलोचना को, पचहत्तर वर्ष बाद केन्स ने दोहराया था। केन्स से पहले तक इस रुख का इतना ज्यादा प्रभाव था कि एफडी रूजवेल्ट से पहले, अमरीका के राष्ट्रपति रहे हर्बर्ट हूवर ने महामंदी के बीच रोजगार बढ़ाने की कोशिश में, मजदूरियों में कटौती करने की कोशिश की थी, जिसका जाहिर है कि कोई फायदा नहीं हुआ था। मोदी सरकार का बौद्धिक स्तर, करीब एक सदी पहले के इन पिटे हुए विचारों से आगे नहीं जाता है। व्यवहार में उसने बेरोजगारी को कम करने के लिए कुछ भी नहीं किया है।

अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरित करने के लिए, पूंजीपतियों के पक्ष में हस्तांतरण करने की निरर्थकता, कभी-कभार सरकारी घोषणाओं में भी सामने आ जाती है, मिसाल के तौर पर आर्थिक सर्वेक्षण में। लेकिन, वे कभी यह नहीं पूछते हैं कि इस तरह के हस्तांतरणों के बावजूद, पूंजीपति निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? इसके बजाए, इसे उनकी नैतिक विफलता मान लिया जाता है, जबकि इसके पीछे एक स्वत:स्पष्ट आर्थिक कारण है। पूंजीपति सिर्फ इसलिए अतिरिक्त निवेश नहीं करते हैं कि उनके हाथों में ज्यादा मुनाफे आ जाते हैं। वे अतिरिक्त निवेश तभी करते हैं, जब उन्हें बाजार के बढऩे की अपेक्षा होती है। अगर बाजार के जहां का तहां बने रहने की अपेक्षा हो, तो उत्पादन क्षमता में किसी भी बढ़ोतरी का एक ही मतलब होगा कि यह नयी क्षमता उपयोग के बिना पड़ी रहेगी और इसका अर्थ यह होगा कि इस अतिरिक्त उत्पादन क्षमता के निर्माण में जो निवेश लगे होंगे, उन पर शून्य मुनाफा आ रहा होगा। ऐसी सूरत में पूंजीपति तो इसके बजाए यही चाहेंगे कि अपने मुनाफों का इस्तेमाल अचल संपत्ति या वित्तीय परिसंपत्तियां खरीदने के लिए करें, जिन पर वे उल्लेखनीय पूंजी लाभ भी बटोर सकते हैं और इन परिसंपत्तियों पर सामान्य रूप से जो कमाई मिल सकती है, वह तो अपनी जगह है ही। इसलिए, मोदी सरकार का पूरा का पूरा आर्थिक चिंतन ही गलत है और पूंजीवादी अर्थशास्त्र की ऐसी खोखली प्रस्थापनाओं पर आधारित है, जिनका प्रचार अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक द्वारा किया जाता है।

कटौती की नीयत

इस सरकार की नीयत का साफ पता चलता है, मनरेगा के लिए आवंटन से, जिसे 86,000 करोड़ रुपये ही रखा गया है, जो कि उतना ही है जितना 2023-24 में इस पर खर्च किया गया था। इसका मतलब है, वास्तविक मूल्य के लिहाज से कटौती होना। बेशक, यह दावा किया जाएगा कि अगर ज्यादा मांग आएगी, तो इस राशि को बढ़ा दिया जाएगा। लेकिन, अगर मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं होता है और आवंटन कम रखे जाने से ठीक ऐसा ही होता है, तो इस कार्यक्रम के अंतर्गत रोजगार की मांग खुद ही घट जाती है। इसके अलावा पिछले साल बहुतों को मनरेगा के तहत काम से वंचित रखा गया था, मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में। इस तरह, पिछले साल का खर्च ही, वास्तविक मांग के मुकाबले कम था। 2024-25 में इसी को दोहराने की कोशिश की जा रही है, जो कि अक्षम्य है।

यही बात एनएसएपी आवंटन के संबंध में सच है, जिसके तहत पेंशन तथा विकलांगता लाभ आते हैं। अव्वल तो हरेक लाभार्थी को दी जाने वाली राशि हास्यास्पद तरीके से थोड़ी है। इसके ऊपर से 2024-25 के लिए आवंटन, 2023-24 के खर्च के स्तर पर ही रखा गया है, जिसका अर्थ पुन: यही है कि वास्तविक मूल्य के लिहाज से और इसलिए हरेक लाभार्थी के लिए वास्तव में किए जाने वाले हस्तांतरण में कटौती की जा रही है। 2023-24 के बजट अनुमानों की तुलना में, शिक्षा के लिए 2024-25 के बजट अनुमान में 7.8 फीसद की बढ़ोतरी दिखाई देती है और स्वास्थ्य पर तो करीब-करीब कोई बढ़ोतरी ही नहीं हुई है। इसका मतलब है, इन दोनों क्षेत्रों में जीडीपी के अनुपात के रूप में गिरावट आना। लेकिन, पिछले वर्ष इन क्षेत्रों पर किए गए वास्तविक खर्चे, बजट अनुमानों से काफी नीचे बने रहे थे। यह अपने आप में गंभीर बात है, लेकिन इसका इस्तेमाल चालू बजट में कटौती करने के लिए करना, पुन: अक्षम्य है।

हैरान करने वाली बात

खाद्य सब्सीडी को, 2023-24 के (संशोधित) अनुमान से, जो 2.12 लाख करोड़ रुपये था, 2024-25 (बजट अनुमान) में कटौती कर 2.05 लाख करोड़ कर दिया गया है। व्यवहार में इसका अर्थ यह है कि खाद्य सब्सीडी का एक हिस्सा, किसानों के कंधों पर डाल दिया गया है, जिन्हें दिए जाने वाले समर्थन मूल्य का अनुचित तरीके से नीचा बनाए रखा गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का कानून बनाने की किसानों की मांग को मानना तो दूर रहा, एनडीए सरकार वास्तव में उन्हें और निचोडऩे में ही लगी है, ताकि खाद्य सब्सीडी में कमी कर सके। इस तरह की कंजूसी का मतलब यह भी है कि जहां बिहार तथा आंध्र प्रदेश को बढ़े हुए हस्तांतरणों का लाभ मिल सकता है, उनके लिए गुंजाइश बनाने के लिए अन्य राज्यों को अनुचित तरीके से निचोड़ा जा रहा होगा।

इस बजट की सबसे खास बात है, देश की जनता सामने खड़ी भारी समस्याओं के प्रति इसकी घोर बेखबरी। फ्रांस के बोबोन राजाओं के संबंध में (जिनका 1789 की क्रांति में तख्तापलट दिया गया था) यह कहा जाता था कि ‘वे कुछ भी सीखते नहीं थे और वे कुछ भी भूलते नहीं थे।’ यही एनडीए सरकार के संंबंध में भी सच है। इस सरकार ने जो बजट पेश किया है, इसका स्वांग करता है कि अर्थव्यवस्था के मामले में ऐसा कुछ तो हुआ ही नहीं है, जिस पर तुरंत ध्यान दिए जाने की जरूरत हो। ढीठपने का यह प्रदर्शन हैरान करने वाला है। 

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