कोविड-19: महिलाओं के लिए टीकाकरण को सुगम बनाएं
देश में कोविड वैक्सीन पर तरह-तरह की चर्चाएं चल रही हैं, और अभी भी भारत अपने टार्गेट से बहुत पीछे है। आंकड़े देखकर पता चलता है कि लैंगिक विषमता भी इसका एक बड़ा कारण बन रही है। इसी में एक खबर कुछ दिनों पहले तमाम चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ बनी कि उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के ग्राम चंदनपुर की एक 80 वर्षीय महिला कोविड वैक्सीन टीम को देखते ही पहले दरवाजे के पीछे, फिर अंधेरे कमरे में किसी ड्रम की पीछे छिप गई। टीम की डाक्टर ने जब बहुत समझाया कि जबरन टीका नहीं लगाया जाएगा, केवल बातचीत की जाएगी, तभी वह बाहर निकलीं और बहुत समझाने के बाद टीका लगवाईं। महिला हर देवी का कहना था कि उसने सुना था कि टीका लगाने से बुखार आएगा और कुछ ‘‘बुरी बातें’ (side effects) भी हो सकती हैं।
यह तो एक मामला है। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे अनेकों केस सामने आ रहे हैं, जिनसे पता चलता है कि भारत के कई राज्यों में महिलाएं कोविड टीकाकरण अभियान में पुरुषों से पिछड़ रही हैं, यहां तक कि लिंग अनुपात से भी अधिक।
कर्नाटक के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि टीकाकरण के मामले में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा 1.5 लाख की संख्या से पीछे चल रही थीं, जबकि पहले दौर के टीकाकरण अभियान में, जब केवल स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन वर्करों को कोविड वैक्सीन दिया जा रहा था, वे पुरुषों से आगे थीं।
राष्ट्रीय स्तर पर जो आंकड़ा सामने आया है वह है कि 150,000,000 पुरुष टीका ले चुके हैं पर 17 प्रतिशत कम महिलाओं ने, यानी 124,500,000 महिलाओं ने टीका लिया है।
अधिकारियों का कहना है कि महिला स्वास्थ्यकर्मी और फ्रंटलाइन कर्मचारियों में महिलाएं अधिक थीं, और इन्हें टीका लगना क्योंकि अनिवार्य था, इसलिए प्रथम दौर के टीकाकरण में महिलाएं अधिक संख्या में दिखी। पर जब आम लोगों को टीका लगने लगा, धीरे-धीरे यह संख्या घटती गई।
आंकड़े बताते हैं कि केवल 3 राज्यों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक टीका लगवाईं। छत्तीसगढ़ (लिंग अनुपात 989:1000; टीकाकरण अनुपात 1045:1000), हिमाचल प्रदेश (लिंग अनुपात 972:1000; टीकाकरण अनुपात 1003:1000) और केरल (लिंग अनुपात 1008:1000 और टीकाकरण अनुपात 1250:1000) को छोड़कर सभी राज्यों में देखने को मिला कि महिलाएं कोविड टीकाकरण में पीछे हैं।
यह भी देखा जा रहा है कि हमारे राष्ट्रीय लिंग अनुपात (943:1000) से भी टीकाकरण का आंकड़ा (826:1000) पिछड़ गया है।
सबसे बुरी स्थिति जम्मू-कश्मीर (लिंग अनुपात (889:1000, टीकाकरण अनुपात 709:1000), दिल्ली (लिंग अनुपात 868:1000, टीकाकरण अनुपात 725:1000), पंजाब (लिंग अनुपात 895:1000, टीकाकरण अनुपात 754:1000) और उत्तर प्रदेश (लिंग अनुपात 908:1000, टीकाकरण अनुपात 769:1000) है।
आखिर इन आंकड़ों के पीछे महिलाओं की कौन सी स्थितियां जिम्मेदार हैं? स्वास्थ्य मंत्रालय में लंबे समय काम कर चुकीं एक अधिकारी सुधा नारायणन चिंता जाहिर करती हैं कि ‘‘महिलाओं को टीकाकरण के लिए तेज़ी से आगे आना ही होगा वरना लैंगिक विषमता बढ़ती ही जाएगी। सरकार को इसके लिए कुछ कदम उठाने पड़ेंगे।’’
आखिर ये क्या कदम हो सकते हैं?
वर्तमान दौर में विश्व भर में कोविड संक्रमण व कोविड के चलते महिलाओं का मृत्यु दर पुरुषों की अपेक्षा कम है। परन्तु जब भारत में वैक्सीन नहीं आया था, यानी पिछले वर्ष ठीक उल्टा था। जहां समस्त महिलाओं में 3.3 प्रतिशत कोविड से मर गई थीं, पुरुषों में यह आंकड़ा 2.9 प्रतिशत था। कहने का मतलब है कि संक्रमित महिलाओं में और टीका न लेने से महिलाओं में रिस्क फैक्टर बढ़ेगा, क्योंकि गर्भावस्था में कोविड होने पर महिलाओं के जीवन के लिए भारी खतरा पैदा होता है। उनके अजन्मे शिशु पर भी नकारात्मक प्रभाव गंभीर हो सकते हैं।
कुछ सरकारों ने महिलाओं को टीकाकरण के लिए प्रोत्साहित करने हेतु कदम उठाए हैं, यद्यपि ये बहुत देर में और सांकेतिक ही कहे जाएंगे। एक ऐसा कदम है महिलाओं के लिए पिंक बूथ बनवाना। केरल में सबसे पहले पिंक बूथ बने, जिनमें स्वास्थ्यकर्मियों को गुलाबी यूनिफार्म पहनना था और बूथ को भी गुलाबी रंग से रंग दिया गया ताकि औरतें उनकी पहचान कर सकें। महिला दिवस के अवसर पर मैसूरु और बेंगलुरु में भी कुछ इलाकों में पिंक बूथ बनाए गए। हाल में उत्तर प्रदेश सरकार ने घोषित किया कि प्रदेश में महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए हर जिले में पिंक बूथ बनाए जाएंगे। लखनऊ से यह कार्य शुरू हुआ। फिर भी कम ही जिलों में पिंक बूथ बने हैं।
डॉ. स्वामिनाथ यादव, जो कौशांबी में टीकाकरण अभियान से जुड़े रहे हैं, कि जानकारी में क्षेत्र में अबतक एक भी पिंक बूथ नहीं बना है। पूछे जाने पर कि क्या महिलाओं के टीकाकरण में दिक्कत आ रही है, वे बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे कस्बों में कुछ वैसा ही माहौल है जैसा पोलियो के टीके को लेकर था। कई किस्म की गलत धारणाएं हैं, मसलन टीका लगने के बाद लोग कोविड से मर सकते हैं या टीका लगाने के बाद औरतें बांझ बन जाएंगी। क्योंकि पुरुषों को काम पर जाना होता है तो उनमें संक्रमण का डर अधिक है। इसलिए मजबूरन कुछ हद तक वे टीका लगवाने के लिए तैयार हो जाते हैं। पर महिलाओं के बीच डर कम करने के लिए आशा कर्मियों और आंगनवाड़ी कर्मचारियों को ही जागरूकता बढ़ानी होगी।’’
इलाहाबाद के मेडिकल कॉलेज से सेवानिवृत्त डॉ. शान्ति चौधरी का कहना है कि शहरों में तो अब टीकाकरण की इच्छुक महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है पर गरीब बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को हम तभी टीका लगा सकते हैं जब हम उन्हें भरोसा दिला सकें कि टीका उन्हें सुरक्षा देगा न की उन्हें बीमार करेगा या मार डालेगा। ज़ोर-जबरदस्ती से हम कुछ हासिल नहीं कर सकते। हमें सहज भाषा में उन्हें बताना पड़गा यह टीका भी किसी अन्य टीके की तरह है- हलका बुखार आ सकता है पर वे जल्द ठीक हो जाएंगी और कोविड से सुरक्षित हो जाएंगी। पुरुषों को भी अपने घर की औरतों को प्रोत्साहित करना होगा और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र ले जाना होगा, वरना पूरा परिवार संक्रमित होगा। वह हंसकर बोलीं कि अगर टीका लगवाने पर कोई प्रोत्साहन राशि मिले तो वे भले ही आ जाएं पर मुफ्त वैक्सीन के लिए भी राजी नहीं होतीं।’’
आशा कार्यकर्ताओं का भी कुछ ऐसा ही कहना है। मीरा (नाम परिवर्तित) फूलपुर, इलाहाबाद में आशा का काम करती हैं। उनके अनुसार गांव में कम ही लोग टीकाकरण के लिए इच्छुक हैं। महिलाएं तो और भी अधिक डरती हैं, क्योंकि उन्हें सहेली, पड़ोसी या रिश्तेदारों पर अधिक विश्वास रहता है बजाय कि आशा बहनों पर। इनके पास से यदि उन्हें कोई गलत सूचना मिलती है, या अफवाह पहुंचती है, जैसे किसी के टीकाकरण के बाद अधिक बीमार होने या मर जाने की खबर तो वे उसे वैक्सीन से जोड़कर देखने लगती हैं। दूसरे, भ्रान्तियां भी फैलती हैं कि टीका लगवाने पर मासिक धर्म या प्रजनन संबंधी दिक्कतें आएंगी।’’
आशा कर्मी भी मुश्किल में
बिहार में कार्यरत आशा कर्मी बताती हैं कि उन्हें पिछले वर्ष घर-घर कोविड से सावधानी के नियम समझाने के लिए 1000 रुपये मासिक टीए-डीए मिलना था, पर सरकार ने केवल तीन महीने के लिए इसे तय किया, वह भी आज तक नहीं मिला। सुरक्षा के लिए पीपीई किट न होने के कारण कई बहनें संक्रमित हुईं, जिन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से कोई चिकित्सा सुविधा नहीं मिली। ‘‘मरने वाली दर्जनों आशा बहनों के परिवार आज तक 50 लाख मुआवजा राशि के लिए लड़ रहे हैं। आखिर कैसे मुस्तैदी से काम करें हम?’’
बिहार राज्य आशा कार्यकर्ता संघ, गोप गुट की सदस्यों ने एक स्वर में कहा। ‘‘इस साल भी 6 महीने का टीए-डीए मिलना है पर हमें भरोसा नहीं है’’, वे कहती हैं। उत्तर प्रदेश में यूनियन राज्य-स्तरीय होने के कारण आशा बहनों की सुविधाओं पर लड़ाई कमजोर है। इन स्थितियों में आशा व आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अत्यधिक दबाव में काम कर रही हैं और उनकी क्षमता में ह्रास हो रहा है।
एआईसीसीटीयू के डॉ. कमल ऊसरी, जो तमाम इलाकों में गरीब बस्तियों के असंगठित मज़दूर परिवारों और आदिवासी इलाकों में जाते हैं, बताते हैं, ‘‘ हिचकिचाहट का मुख्य कारण है कि ग्रामीण इलाकों में और छोटे शहरों व कस्बों में वैज्ञानिक सोच पहले से कमजोर है और संघ परिवार का नेटवर्क पूरी तरह से इसे खत्म करने में सक्रिय है। वे लगातार प्रचार करते हैं कि कोरोना कुछ नहीं है, पूजा-पाठ-मंत्रोच्चार करिये, मंदिर में चढ़ावा चढ़ाइये, दीप प्रज्वलित करिये तो कोरोना कभी पास नहीं फटकेगा। कुछ जड़ी-बूटियों का सेवन करने को कहते हैं। इस सबसे पोंगापंथ और रूढ़िवाद मजबूत होता है और वैक्सीन के प्रति शंका बढ़ती है। ऐसी बातों का मक्सद है लोगों को अवैज्ञानिक और अंधभक्त बनाकर रखना ताकि दक्षिणपंथियों की सत्ता कायम रहे। आखिर घंटी और शंख बजाना, दीप जलाना, थाली-ताली बजाना किसने और क्यों शुरू कराया गया था? आज भी जागरूकता अभियान के बजाय शहरों में दीप जलाए जा रहे हैं और सुबह-शाम शंख बजाए जाते हैं। महिलाएं अशिक्षा के कारण इन बातों में अधिक विश्वास कर लेती हैं।’’
भुवनेश्वर की एक पढ़ी-लिखी घरेलू महिला रिंकू महापात्र बताती हैं कि उनके पति प्रोफेसर हैं और ऑनलाइन कक्षाएं लेने और परीक्षा करवाने में व्यस्त हैं। ‘‘बच्चों के ऑनलाइन क्लास चलते हैं। बूढ़ी सास भी साथ रहती हैं। फिर घर के दस काम करने होते हैं क्योंकि कामगारिनों को कोविड की वजह से मना कर दिया है। तो सरकारी अस्पताल जाने का न समय होता है न शक्ति रहती है। वैक्सीन से कुछ बुखार, सिरदर्द या किसी भी तरह की परेशानी हुई तो घर कौन देखेगा? घर पर वैक्सीन लग जाए और पति को दो-तीन दिनों की छुट्टी मिल जाए तो लगवा लूं।’’
इसी भावना को गुजरात और राजस्थान की कई महिलाओं ने अधिकारियों के समक्ष व्यक्त किया जब वे बोलीं कि घर-घर वैक्सीन लगे, जैसे पोलियो ड्रॉप पिलाए जाते हैं। तो वे टीका अवश्य लगवा लेंगी। उनके पति बाहर काम करते हैं, तो बच्चों को अकेला छोड़कर वे कैसे सुदूर स्थित अस्पताल जा सकती हैं?
सिर्फ इतना ही नहीं, कई अध्ययनों के माध्यम से यह बात सामने आई है कि महिलाएं अपने स्वास्थ्य के बारे में सबसे अंत में सोचती हैं या सोच पाती हैं। उनके ऊपर सेवा कार्य की पूरी जिम्मेदारी रहती है- बच्चों, बूढ़ों और बीमारों की, गांव में तो मवेशियों की भी। और सरकार ने कभी उन्हें प्राथमिकता में रखा ही नहीं।
भारत में महिलाएं अज्ञानता, भय या स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच न होने के कारण पिछड़ रही हैं, पर विकसित देश अमेरिका में पियू (Pew) रिसर्च सेंटर के एक सर्वे ने भी महिलाओं को टीकाकरण की कम इच्छुक बताया। सर्वे में मई 2020 से लेकर नवम्बर 2020 तक का समय अंतराल लिया गया। वहां भी यह देखा गया कि वैक्सीन लेने के बारे में सकारात्मक रुख रखने वाले पुरुष मई में 76 प्रतिशत थे तो महिलाएं केवल 69 प्रतिशत। पर नवम्बर आते-आते यह संख्या घट गई। 67 प्रतिशत पुरुष तैयार थे पर केवल 54 प्रतिशत महिलाएं। यानी महिला-पुरुष के बीच का फर्क दूना हो गया।
नेशनल ज्योग्राफिक के सर्वे से और भी चौंकाने वाले आंकड़े आए। महिलाओं और पुरुषों के बीच फासला 19 प्रतिशत था। पियू सर्वे की निर्माता कैरी फंक का कहना है कि ‘‘सर्वे से पता चला कि औरतें अपने बारे में कम, समाज के बारे में ज्यादा सोचती हैं। इसलिए सार्वजनिक जगहों पर मास्क न पहनने से पुरुषों की अपेक्षा औरतों को ज्यादा परेशानी होती है। वे साफ-सफाई के नियमों के प्रति अधिक सजग रहती हैं और संक्रमण फैलने से घबराती हैं।’’
तब सवाल उठता है कि वे वैक्सीन क्यों नहीं लगाना चाहतीं? कैरी का कहना है कि औरतें नई जेनेटिक तकनीक को लेकर ‘वेट ऐण्ड वॉच’ की नीति अपना रही हैं, क्योंकि वे अपने संपूर्ण परिवार की चिकित्सा के लिए जिम्मेदार होती हैं- हर निर्णय उन्हें सोच-समझकर लेना होता है, वरना पूरा परिवार प्रभावित होता है। वे हड़बड़ाकर टीका लगवाने पहले नहीं जाना चाहतीं, बल्कि चिकित्सा सेवा देने वालों से राय-मश्विरा करना चाहती हैं, क्योंकि महिलाओं का शरीर अलग होता है।’’
यह सर्वविदित है कि फाइज़र और मॉडर्ना (Pfizer and Moderna) वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल्स में गर्भवती महिलाओं को शामिल ही नहीं किया गया। दरअसल चिकित्सा के अनुभव पुरुष दृष्टिकोण से आते हैं, यह ऐतिहासिक तथ्य है। महिला आंदोलनकारी मानती हैं कि परिवार नियोजन के उपायों के मामले में भी यही देखा गया था। इस्तेमाल के बाद जरूरत से अधिक हॉरमोन्स के प्रयोग के चलते ढेर सारे साइड इफेक्ट सामने आए, जिनके बारे में महिलाओं को सूचित नहीं किया गया था। 1993 में ही यह कानूनी तौर पर अनिवार्य बनाया गया कि महिलाओं को चिकित्सा-संबंधी शोध में शामिल किया जाए। यही कारण है कि अमेरिका, यूके, यूरोपियन यूनियन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में कई मेडिकल संगठन व संस्थाएं खुलकर आवाज़ उठा रही हैं कि गर्भवति महिलाओं को कोविड वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल्स में शामिल किया जाए।
भारत में गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं को सरकार के टीकाकरण अभियान से बाहर रखा गया है। पर डॉ. मीनाक्षी अहूजा, डायरेक्टर ऑब्सट्रेटिक्स ऐण्ड गाइनेकॉलाजी (Obstretics and Gynacology) फॉर्टिस ला फेम्मे हॉस्पिटल, कहती हैं, ‘‘सरकार अपने को विवाद से बचाए रखना चाहती रही है, जबकि भारत में सैकड़ों गर्भवती महिलाएं मर गईं। फिर कोविशील्ड और कोवैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल्स में गर्भवती महिलाओं को शामिल भी नहीं किया गया। बेहतर हो कि वे अपने चिकित्सक से इस विषय पर बात करके ही टीका लगवाएं।’’ उनकी चिंता जायज़ है क्योंकि अमेरिकन जर्नल ऑफ ऑब्सट्रेटिक्स ऐण्ड गाइनेकॉलॉजी , (Obstretics and Gynacology) के अनुसार गर्भवती महिला यदि संक्रमित होती है, उसके अस्पताल जाने की संभावना 3.5 प्रतिशत और मरने की संभावना 13 प्रतिशत अधिक हो जाती है।
अब प्रश्न उठता है कि टीकाकरण में जेंडर गैप कैसे कम हो?
ट्रेन्ट यूनिवर्सिटी, कनाडा की जेंडर ऐण्ड विमेन्स स्टडीज़ विभाग की अध्यक्ष केली मकग्वायर ने कई सारे सुझाव दिये हैं, जो विश्व स्तर पर लागू किये जा सकते हैं:-
* समाज के सम्मानित व्यकितयों और जन प्रतिनिधियों को टीका लेने के बाद ‘इन्फ्लुएंसर’ बनकर पिछड़ रहे समुदायों को प्रोत्साहित करना चाहिये
* जब सर्वे कराए जाते हैं, महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को सुगम बनाने और संरचनात्मक बाधाओं को दूर करने के बारे में प्रश्न किया जाना चाहिये
* कौन से लघु-समदाय या माइक्रो ग्रुप सशंकित हैं उनकी समस्याओं की जानकारी लेनी चाहिये
* वैक्सीन-विरोधी प्रचार क्या है उसका पता करना चाहिये, ताकि उसका खंडन हो सके
* कितनी गर्भवती महिलाओं की कोविड से मृत्यु हुई, इसके आंकड़े एकत्र करना चाहिये
कुल मिलाकर सरकारों की जिम्मेदारी है कि हर समुदाय में भय खत्म हो, ताकि वे सुरक्षित हो सकें। फिर महिलाएं तो समाज की धुरी हैं।
(लेखक महिला एक्टिविस्ट हैं और समसामयिक विषय पर लिखती हैं।)
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