क्या सच में कोरोना वायरस से लड़ने में भारत गंभीर है?
COVID-19 के अब एक लाख से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं। चीन में जहां संक्रमण के मामलों में गिरावट शुरू हो चुकी है, वहीं यूरोप और एशिया में अब संक्रमण जोर पकड़ रहा है। दक्षिण कोरिया, इटली और ईरान संक्रमण के नए केंद्र के तौर पर उभरे हैं। चीन के बाद सबसे ज़्यादा मार दक्षिण कोरिया पर पड़ी है। वहां यह संक्रमण अपनी शुरूआत से ही कई गुना तेजी से फैला है। हाल के दिनों में इटली में इस वायरस के नए मामले तेजी से सामने आए हैं। फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और दूसरे यूरोपीय देशों में भी यह वायरस पहुंच चुका है।
अमेरिका में भी कई लोग संक्रमण की चपेट में हैं। अमेरिका में अब सिर्फ विदेश से आने वाले लोग ही इस बीमारी को नहीं फैला रहे, बल्कि स्थानीय समुदाय के लोग भी दूसरों को संक्रमित कर रहे हैं। विश्लेषको के मुताबिक़ स्थानीय लोगों की बड़े पैमाने पर जांच किए बिना काम नहीं चल सकता। चीन के गुआंगडोंग प्रांत में पिछले बीस दिनों में 2,20,000 लोगों की जांच की गई है, वहीं दक्षिण कोरिया में हर दिन 10,000 लोगों की जांच की जा रही है। जबकि अमेरिका ने अब तक महज़ दो हजार लोगों की ही जांच की है। ऊपर से ''सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC)'' ने जांच संख्या बताना भी बंद कर दिया है। उन्हें लगता है कि नजरंदाज करना उनके लोगों के लिए फायदेमंद रहेगा। अगर हम वाइस प्रेसि़डेंट पेंस की बात मानें तो अमेरिका के पास जल्द ही हर दिन 10 लाख से 15 लाख टेस्ट करने की क्षमता मौजूद होगी। लेकिन इस बात के कोई सबूत मौजूद नहीं हैं। न ही अमेरिकी प्रशासन द्वारा इस तरह की क्षमताओं को विकसित कर सकने वाली किसी योजना का खुलासा किया गया है।
चीन समेत दूसरे देशों और इलाकों में कोरोना वायरस से पीड़ित मामलें
हालांकि भारत में संक्रमित लोगों की संख्या महज़ 31 है। यह बेहद कम है। इसमें से ज्याद़ातर विदेशी पर्यटक या विदेश घूमकर आए लोग शामिल हैं। लेकिन फिलहाल हमारे सामने जांच क्षमता भी एक समस्या है। इसलिए यह आंकड़ा संशय भरा नज़र आता है। इस तरह की जांच भारत में सिर्फ पुणे स्थित ''नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वॉयरोलॉजी (NIV)'' में ही हो सकती है। जाहिर है उनके पास बड़ी संख्या में टेस्ट करने की क्षमताएं नहीं हैं।
''इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च'' ने 52 नई लेबोरेटोरीज़ खोलने की घोषणा की है। जो दूसरी 57 लेबोरेटरी फिलहाल काम कर रही हैं, उनका काम केवल सैंपल इकट्ठा कर उसे NIV भेजना है। आज तक ICMR नेटवर्क ने 3,404 लोगों की जांच की है। जब तक हम अपनी जांच क्षमताओं को नहीं बढ़ाते हमारे पास कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों की असली संख्या नहीं होगी।
अमेरिका और भारत दोनों ही पब्लिक हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने वाले कदम उठाने के बजाए ख़बरों को दबाने में यकीन रखते हैं। वो इसे महामारी के खिलाफ़ सुरक्षा उपाय मानते हैं। एक बात हमें साफतौर पर समझ लेनी चाहिए- अब हम उस वक्त में नहीं है कि जब कोरोनावायरस के दूसरे देशों में फैलने की संभावना जताई जा रही हों। अब यह केवल वक्त की बात है, जब यह वायरस अलग-अलग हिस्सों में फैलेगा। हर देश को इसके लिए तैयार रहना होगा। इन तैयारियों के तहत जांच क्षमताएं, संभावित मरीज़ों को अलग-थलग किए जाने के लिए हॉस्टिपल इंफ्रास्ट्रक्चर, जिसमें ''स्पेशल नेगेटिव प्रेशर रूम'' शामिल हों और गंभीर मामलों को संभालने वाले आईसीयू सुविधाएं बनाई जानी चाहिए।
चीन से यात्रा पर प्रतिबंध लगाकर अमेरिका के सुरक्षित होने संबंधी दावे, बड़े स्तर की जांच क्षमताओं की बात और 3 महीने के भीतर वैक्सीन बनाने जैसी बातें बोलकर ट्रंप और पेंस अमेरिकी लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन ने बिना अनुमति स्वास्थ्य अधिकारियों के मीडिया से बात करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया है।
भारत सरकार ने अब तक इस बीमारी से निपटने की अपनी क्षमताओं या संक्रमण रोकने की योजनाओं पर कुछ नहीं कहा है। हम अब तक सिर्फ दूसरे देशों और उनसे मिलने-जुलने वाले लोगों की ही जांच करने में व्यस्त हैं। आज असामान्य निमोनिया सच्चाई है, इस बीमारी जैसे ही दूसरे असामान्य मामलों की जांच के लिए अब तक कोई भी कार्यक्रम नहीं चलाया गया है। इसलिए संभावना है कि हम इस संक्रमण के फैलाव (आउटब्रेक) के शुरूआती संकेतों को समझ ही नहीं पाएंगे। जैसा निपाह वायरस के मामले में हुआ केवल केरल ने यह दिखाया है कि उनके पास एक तेज-तर्रार स्वास्थ्य ढांचा है, जिसके तहत संक्रमित लोगों को तेजी से अलग-थलग किया जा सकता है।
जैसा बीजेपी विधायक सुमन हरिप्रिया ने असम विधानसभा को बताया, ठीक उसी तरह शेष भारत को अपने बचाव और COVID-19 से लड़ाई के लिए गोबर-गोमूत्र पर निर्भर रहना होगा। ''आयुष'' ने भी मामले को नया मोड़ दे दिया है। बिना किसी तथ्यात्मक आधार के आयुष ने दावा किया कि होमियोपैथी और पारंपरिक दवाईयों के ज़रिए वायरस को ठीक किया जा सकता है। ऐसी मान्यताओं के बीच संभावना है कि जब वायरस वाकई हम पर हमला करेगा, तब हमारी तैयारियां गोबर ही मिलेंगी।
कितनी संभावना है कि यह वायरस भारत पर बुरे तरीके से हमला नहीं करेगा? कुछ लोग अंदाजा जता रहे हैं कि फ्लू और SARS संक्रमण की तरह गर्मी आने के बाद यह वायरस नहीं फैलेगा। लेकिन विशेषज्ञों ने हमें चेतावनी दी है कि इस वायरस में नए पैथोजन हैं, जिनके फैलाव के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। हम नहीं जानते कि वायरस के फैलाव पर तापमान का क्या प्रभाव होगा।दूसरी बात वैक्सीन (टीका) से जु़ड़ी है।
ट्रंप ने दावा किया है कि निजी कंपनियां तीन महीने के भीतर वायरस का वैक्सीन उपलब्ध करवा देंगी। एक लाइव प्रेस ब्रीफिंग में स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने साफ कहा था कि अगर वैक्सीन जल्दी बन भी गया, तो भी महामारी के खिलाफ़ उसके इस्तेमाल से पहले वैक्सीन को कई तरह के टेस्ट से गुजरना होगा। अगर हर काम जल्दी हो भी जाता है तो पूरी प्रक्रिया में 12 से 18 महीने लग ही जाएंगे। यही बात WHO की मुख्य वैज्ञानिक डॉ सौम्या स्वामीनाथन ने भी दोहराई थी। मतलब साफ है कि हमारे पास इस महामारी के संक्रमण को तुरंत हाल में रोकने का कोई उपाय मौजूद नहीं है।
तो अगर हम महामारी के संक्रमण को रोक नहीं सकते, तो दवाईयों की क्या स्थिति है? जब दवाईयों की बात होती है, तो उसका मतलब असल दवाईयों से है न कि गोबर या गौमूत्र जैसे अतार्किक विश्वासों से। एकमात्र दवाई जिसकी जांच इलाज़ के लिए की जा रही है, वो गिलीड साइंस Inc द्वारा इबोला से लड़ने के लिए बनाई गई रेमडेसविर है। 2009 में स्वाइन फ्लू फैलने के दौरान रोसे कंपनी की टैमीफ्लू दवा ने कंपनी को अरबों डॉलर का फायदा करवाया था। लेकिन रेमडेसविर को हॉस्पिटल जैसी गहन निगरानी में केवल गंभीर मरीज़ को ही दिया जा सकता है।
इस दवा की सफलता का अनुमान 50 फ़ीसदी ही है। दवाई को मुख्यत: इबोला के इलाज़ के लिए बनाया गया था। लेकिन यह ट्रॉयल के दौरान असफल हो गई। एक जो अच्छी बात है, वह यह है कि रेमडेसविर के बुरे प्रभावों की जांच इबोला ट्रॉयल के वक़्त ही कर ली गई थी। इसलिए अब इस दवाई को सिर्फ SARS-CoV-2 के खिलाफ़ कारगरता के पैमाने पर ही खरा उतरना है। मतलब, अगर नतीज़े सकारात्मक आते हैं तो अप्रैल के आखिर से मरीज़ों में इसका इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके अलावा लोपिनाविर और रिटोनाविर नाम के एंटी-HIV ड्रग्स को फ्लू के ओसेल्टामिविर ड्रग के साथ मिलाने पर कुछ सकारात्मक परिणाम मिले थे। लेकिन कोरोना के खिलाफ़ इसको सफल मानने के पहले अभी हमें और आंकड़ों की जरूरत है।
फिलहाल इलाज़ के लिए केवल लक्षण आधारित राहत (सिम्टोमेटिक रिलीफ) और मरीज़ के गंभीर हालत में बीमार होने पर आईसीयू सुविधा ही दी जा सकती है। अच्छी बात यह है कि बच्चों में इस वायरस का गंभीर संक्रमण अपवादस्वरूप ही मिला है। 50 साल से कम उम्र के लोग आसानी से इस संक्रमण से ऊबर रहे हैं। बुरी ख़बर यह है कि मेरे जैसे बड़े-बूढ़ों के गंभीर तौर पर बीमार पड़ने की संभावना है। आप जितने बूढ़े होंगे, गंभीर संक्रमण का ख़तरा उतना ज़्यादा होगा।दुनिया और भारत अब चरम बिंदु पर पहुंच चुके हैं।
WHO की डॉयरेक्टर जनरल डॉ टेड्रोस एडहॉनॉम घेब्रेयेसस ने COVID-19 पर 6 मार्च, 2020 को ब्रीफिंग में कहा-जैसे-जैसे संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं, हम सभी देशों को इसके फैलाव नियंत्रित करना अपनी पहली प्राथमिकता बनाने की सलाह दे रहे हैं।हम सभी देशों से संक्रमण के मामलों की खोज, जांच, पृथक्करण, उनसे मिले-जुले लोगों की खोज और हर मरीज़ के लिए अच्छी सेवा देने को कह रहे हैं।किसी महामारी को धीमा करने से जिंदगियां बचती हैं। इससे वक्त मिलता है, ताकि हम अपने शोध और विकास के लिए तैयारियां कर सकें।
महामारी को हर दिन धीमा कर हम हॉस्पिटल को इससे निपटने के लिए अतिरिक्त दिन उपलब्ध करवाते हैं।महामारी को हम जितने दिन धीमा करते हैं, उतने दिन सरकार को अपने स्वास्थ्य कर्मचारियों को जांच, इलाज और सेवा देने के लिए प्रशिक्षित करने को देते हैं।भारत समेत जिन देशों में अब तक यह संक्रमण नहीं फैला है, उनके सामने तैयार रहने की ही चुनौती है।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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