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विश्लेषण : कैसे एक ख़राब नियोजित लॉकडाउन बड़ी आपदा में बदल रहा है?

इसने प्रवासी श्रमिकों को बड़े पैमाने पर घर वापस लौटने पर मजबूर कर दिया है। स्वास्थ्य सेवा प्रणाली ने नियमित मामलों से अपना मुंह मोड़ लिया है और राजकोषीय नीति ग़लत जगह पर ज़ोर लगा रही है।
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राज्यों के साथ इस मामले पर चर्चा करने और पहले से तैयार योजना बनाने की अविश्वसनीय अक्षमता वाली नरेंद्र मोदी सरकार ने फिर से कोरोनो वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई को बड़े पैमाने पर गड़बड़ कर दिया है। कोई भी देश इस बीमारी की रोक-थाम के लिए तीन सप्ताह के इतने लंबे लॉकडाउन में नहीं गया है, और निश्चित रूप से इस तरह से घोड़े पर सवार होकर तो बिल्कुल नहीं। लेकिन, भले ही महज़ तर्कों की ख़ातिर कोई यह मानता हो कि इस तरह के सख़्त लॉकडाउन की आवश्यकता थी, तब तो वह यह भी कल्पना कर सकता था कि प्रधानमंत्री मोदी अभी तक फिर से इसे चर्चा का विषय बना चुके होंगे ?

यदि आप 2016 की नोटबंदी की आपदा को याद करें, तो किसी को यह मानने के लिए मजबूर किया जा सकेगा कि हां, यह सरकार भारी, आपराधिक कुप्रबंधन में सक्षम है। इसकी जड़ में शायद  आम भारतीयों को लेकर एक तिरस्कार की भावना है, जिन्हें हमेशा की तरह बड़े उद्देश्यों में त्याग-बलिदान देने के पात्र माने जाते हैं, और मोदी द्वारा अपने पसंदीदा प्रतिभाशाली लोगों की सलाह के तहत जिन्हें हमेशा परिभाषित किया जाता हैं। लेकिन इसकी चर्चा बाद में की जा सकती है, आइए, सबसे पहले तो हम उस त्रासदी को देखें, जो इस समय हमारी आंखों के सामने है।

प्रवासी कामगारों की त्रासदी

दुबले-पतले राम आसरे कहते हैं, “हमारे कारखाने में काम-काज बंद है। हम कारखाने में ही रहा करते थे। वापसी के अलावे कोई चारा नहीं है, लेकिन हमारे पास पैसे नहीं हैं, खाना नहीं है, कोई आने-जाने की सुविधा नहीं है...हम करें, तो क्या करें ?” राम आसरे चिंतित है और वह पूर्वी दिल्ली के सीमापुरी की सीमा पर अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के एक समूह के साथ इंतजार कर रहे हैं। पूर्वी यूपी के सुल्तानपुर में अपने पैतृक गांव तक पैदल जाने को लेकर उनके विचार में उलझन है। ये लोग तब भी भाग्यशाली ठहरे, क्योंकि सीटू (सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन) के कार्यकर्ता उनसे मिले थे और उन्हें चावल, दाल, और कुछ दूसरी आवश्यक चीज़ें दे गये थे, इन सभी सामान पास के ही एक स्टोर से ख़रीदकर लाये गये थे।

देश भर के लाखों प्रवासी कामगार सड़कों पर हैं, पुलिस कर्मियों और स्थानीय निवासियों के शिकार भी हो रहे हैं, क्योंकि वे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे उन राज्यों में जाने को लेकर अपने लंबे सफ़र का लेखा-जोखा लेने की कोशिश कर रहे हैं, जो अपनी ग़रीबी के लिए जाने जाते हैं और यहां से लोग अपनी रोज़ी-रोटी की तलाश में बाहर का रुख़ कर जाते हैं। क्या मोदी सरकार इस हक़ीक़त से अनजान थी, अपनी जड़ों से उखड़ उखड़े जा चुके इन मज़दूरों के होने का उन्हें पता नहीं था ? ऐसा भला कैसे मुमकिन है। भारत में हर जनगणना में प्रवासियों को लेकर डेटा तालिकाओं की एक श्रृंखला होती है। नवीनतम, 2011 की जनगणना से पता चलता है कि 2001 और 2011 के बीच 13.9 करोड़ भारतीय पलायन कर गये थे, जिनमें से 10% ने "रोज़गार" के लिए ऐसा किया था। सिर्फ़ उस दशक में ही लगभग 1.4 करोड़ प्रवासी पलायन करके दूसरी जगह का रुख़ कर लिया था।

इन प्रवासियों का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में बिना किसी क़ानूनी संरक्षण के काम करता है। इसका मतलब तो यही है कि इन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलता हैं, इनकी कोई बचत नहीं है, इनके लिए कोई सुरक्षा योजना भी नहीं है। अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिकों के संरक्षण के लिए कभी एक क़ानून हुआ करता था, लेकिन, हाल ही में किसी श्रम संहिता में इसका भी विलय कर दिया गया है। प्रवासी श्रमिकों के बारे में शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं और यहां तक कि सरकारी रिपोर्टों में बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

फिर भी, ऐसा लगता है कि लॉकडाउन पर विचार करते हुए मोदी सरकार ने इस मुद्दे पर विचार नहीं किया था: एक पूर्ण लॉकडाउन का मतलब ही यही था कि इन श्रमिकों को अपने-अपने गांव वापस जाना होता। इस तरह की आवाजाही, सोशल डिस्टेंसिंग और आने-जाने पर प्रतिबंध लगाने के उद्देश्य पर ही ग्रहण लगा देता, इससे संभवतः वायरस का दूर-दूर तक और व्यापक रूप से संचरण होता, ऐसा लगता नहीं है कि मोदी और उनके प्रतिभाशाली लोगों ने इस पर अपना दिमाग़ खपाया भी है।

आख़िर सरकार कर क्या सकती थी ?

शुरुआत में  लॉकडाउन को लेकर भविष्य की तारीख़ की घोषणा की जा सकती थी। मोदी ने लोगों को ‘जनता कर्फ्यू’ की तैयारी के लिए चार दिन दिये थे और लाखों लोगों, ख़ासकर ग़रीब प्रवासी श्रमिकों को केवल चार घंटे मिले? आख़िरकार, इस बात की आशंका जताते हुए दो महीने से अधिक समय बीत चुका है कि महामारी आ रही है, और इससे निपटने के लिए सख़्त कदम उठाने की ज़रूरत होगी। उनके पास जो डेटाबेस मौजूद है, उसके आधार पर भी सभी श्रमिकों को एक मुश्त राशि हस्तांतरित की जा सकती थी। इस समस्या पर क़ाबू पाने के लिए प्रत्येक श्रमिक को महज़ 4,000  रुपये की राशि देनी थी।

सरकार, श्रमिकों की सुरक्षा और संरक्षण की व्यवस्था भी कर सकती थी और विशेष ट्रेन और बस चलाने जैसे परिवहन तंत्र भी स्थापित कर सकती थी। या फिर भी यदि ज़रूरत होती, तो सरकारी देखभाल के तहत उनके रहने की व्यवस्था की जाती, जिसके लिए राज्यों को लूप में रखा जाना चाहिए था। ऐसी सौ चीज़ें थीं,जो समय रहते की जा सकती थी। केरल सरकार ने पहले ही इनमें से अनेक क़दम उठाये हुए हैं, इसी तरह, दिल्ली, ओडिशा, पंजाब जैसे कुछ अन्य राज्यों ने भी अनेक पहल की हुई हैं।

लेकिन, मोदी सरकार के लिए, श्रमिक और आम तौर पर ग़रीब उनके रडार पर है ही नहीं।

अर्थव्यवस्था सुधार के जैसे-तैसे प्रयास

शायद, मोदी सरकार ने लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद अर्थव्यवस्था को स्थापित करने वाली अपनी दृष्टि को पहले से ही तय कर रखी है। यह उनके पहले से ही इस तयशुदा दर्शन के साथ फिट बैठेगा कि पहले "पैसे बनाने वालों" का ध्यान रखने की ज़रूरत है, इसके बाद बाकी सभी का ध्यान रखा जायेगा। ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था के लिए किस तरह की घोषणा की है? सबसे पहले, लोगों के कल्याण के लिए 1.7 लाख करोड़ रुपये के कथित प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की गयी है। ऐसा माना जाता है कि इससे अर्थव्यवस्था में पैसे को पंप किया जायेगा, ताकि लोग पैसे ख़र्च करें और मांग पैदा हो।

हालांकि, इस पैसे का अधिकांश हिस्सा सिस्टम में पहले से ही था। बिल्डिंग एंड कंस्ट्रक्शन वर्कर्स सेस में लगभग 31,000 करोड़ रुपये की हिस्सेदारी थी, दूसरा 25,000 करोड़ रुपये डिस्ट्रिक्ट मिनिरल फ़ंड में था, प्रधानमंत्री-किसन का पैसा पहले ही बजट में दिया गया था, और इसी तरह के बाक़ी पैसे भी सिस्टम में पहले से मौजूद थे। इस प्रकार, वास्तव में यह कोई प्रोत्साहन पैकेज नहीं है, इसका मतलब तो यही होगा कि जब अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पाद के 4% के रूप में अनुमानित किया गया है, तो इन विकट परिस्थितियों में एक अतिरिक्त राशि डाल दी जाये।

दूसरी बात कि रिज़र्व बैंक ने भी ऐसे उपायों की घोषणा की है, जिसमें बैंकों को ऋण देना और (रेपो और रिवर्स रेपो दरों) से ब्याज़ दरों में कटौती करना, बैंकों के कैश रिजर्व अनुपात (सीआरआर) में कमी शामिल है, जिससे उन्हें ऋण, वैधानिक रिज़र्व अनुपात (एसआरआर) में बदलाव, तीन महीने के लिए ईएमआई को कम करने आदि के ज़रिये अधिक नक़दी जारी करने में मदद मिलेगी, इसके अलावे उन्हें उधार क्षमता और ऐसे अन्य मौद्रिक नीति उपायों को बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। सहज-सरल भाषा में इसका क्या मतलब है? इसका मतलब इतना ही है कि उधार लेने के लिए अधिक पैसे उपलब्ध हैं। इसका अर्थ है कि उद्योगपति और दूसरे व्यवसाय अधिक उधार ले सकते हैं, इसलिए, यह उम्मीद की जाती है कि वे अपनी उत्पादक क्षमता के विस्तार करने के लिए अधिक निवेश करेंगे और इस प्रकार,अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा।

यह कल्पना लोक वाली सोच, साफ़ और सरल है। COVID-19 वैश्विक स्तर पर मांग और आपूर्ति दोनों के लिए एक ज़बरदस्त झटका दे रहा है। उनके दिमाग में कौन सा व्यवसाय इस समय नये कार्य शुरू करने के लिए होगा? श्रम तो है नहीं ?  मांग भी कहां है? यह क़दम आमतौर पर वित्तीय संकटों के समय में उठाया जाता है,लेकिन इसकी नक़ल बिना सोचे विचारे की गयी है। यह उन लोगों के संपूर्ण दिवालियेपन को दर्शाता है,जो इस समय देश के शीर्ष पर विराजमान हैं। यह सब कथित पैकेज,बट्टे खाते में जाने वाले ऋणों को ही बढ़ायेगा, जो बदले में नुक़सान ही पहुंचायेगा, और सार्वजनिक धन बट्टे खाते में चले जायेंगे, जबकि कॉर्पोरेट के मुखिया बैंकों पर ही बेतरह हंसेंगे, और शायद वे कैरिबियन देशों, या दूसरे टैक्स हैवेन देशों का रुख़ कर जायेंगे।

ज़ाहिर है, मोदी सरकार का सही मायने में चल रहे घटनाक्रमों पर कोई नियंत्रण ही नहीं है। महामारी से इस तरह निपटने की कोशिश चल रही है, मानो यह कोई क़ानून और व्यवस्था का मसला हो, और यह अर्थव्यवस्था के साथ यह सरकार ऐसा व्यवहार कर रही है, मानो यह कोई सामान्य प्रकार का वित्तीय संकट हो। इस बीच, स्वास्थ्य कर्मी घर पर बने मास्क में COVID-19 मरीज़ों की देखरेख कर रहे हैं, आइसोलेशन बेड मुख्य रूप से कागज पर हैं, और उन लोगों का परीक्षण किया जा रहा है, जो वज़नदार, विदेशी यात्री, या फिर उनसे जुड़े हुए लोग हैं। ऐसा लगता है, मानो भारत को किसी बवंडर का इंतज़ार है।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

How a Badly Planned Lockdown is Turning into Full Scale Disaster

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