दलित नेतृत्वः तो क्या फिर लौट आया ‘चमचा युग’!
देश में दलित समाज पर बढ़ते अत्याचार व्यथित करने वाले हैं। उतना ही व्यथित करने वाला है आज का दलित नेतृत्व। इस समय दलित नेता कांशीराम की पुस्तक `चमचा युग’, चंद्रभान प्रसाद का `दलित एजेंडा’ और उन सबसे पहले डॉ. आंबेडकर का `जातिभेद का बीजनाश’ बहुत याद आ रहे हैं और याद आ रहा है मायावती के शासन का आरंभिक काल।
कांशीराम ने 1982 में जब `चमचा युग’ लिखी थी तो इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में करारी हार के बाद इंदिरा गांधी की अपराजेय होने की छवि तो ध्वस्त हो गई थी लेकिन 1980 में जब वे फिर चुनाव जीत कर आईं तो लगने लगा था कि उनका कोई विकल्प नहीं है। वे अब और ताकतवर थीं और कभी विकल्प के तौर उभरा विपक्ष बिखर चुका था। इस पुस्तक में कांशीराम ने चमचों की छह श्रेणियां बताई थीं। वह श्रेणियां ऐसी थीं जिसमें हर कोई शामिल किया जा सकता था। निश्चित तौर पर इस विचार ने उस समय की भारतीय राजनीति को झकझोर दिया था।
कांशीराम ने देश में अनुसूचित जाति के नेतृत्व को चमचा बनाने के लिए महात्मा गांधी और कांग्रेस को दोषी ठहराया था और पूना समझौते को उसका प्रमुख कारक बताया था। कांशीराम की इस पुस्तक में ब्राह्मणवादी साजिश की पूरी थ्योरी विद्यमान है। उन्होंने इस थ्योरी को व्यापक स्तर पर प्रचारित करते हुए देश और विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश में एक बहुजन समुदाय पैदा किया और राजनीतिक सत्ता का समीकरण बदल दिया। आज जिन दलित नेता रामविलास पासवान के निधन के बाद उनके नेतृत्व की पूरे देश में प्रशंसा हो रही थी उन्हें कांशीराम ठाकुर का ठप्पा कहते थे। कांशीराम के आंदोलन की चुनौती इतनी बड़ी थी कि शरद यादव और रामविलास पासवान ने तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को सलाह दी कि मंडल आयोग की सिफारिशें तत्काल लागू करें। भले यह कहा जाता हो कि वीपी सिंह ने देवीलाल के विद्रोह को रोकने के लिए यह सिफारिशें लागू की थीं लेकिन सामाजिक चुनौती तो कांशीराम पैदा कर रहे थे।
कांशीराम की चुनौती इतनी बड़ी थी कि दिल्ली के राष्ट्रवादी पत्रकारों ने यह लिखना शुरू कर दिया कि उनके आंदोलन के पीछे सीआईए का हाथ है। हालांकि बाद में जब बसपा ने समाजवादी पार्टी का साथ छोड़कर भाजपा के साथ सरकार बनाई तो वे कांशीराम की आरती उतारने से बाज नहीं आए। कांशीराम को अपनी राजनीति और विमर्श पर इतना विश्वास था कि उन्होंने यह दावा करना शुरू कर दिया था कि उन्हें दिल्ली में मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए। ताकि वे उसे बहुजन समाज के पक्ष में झुका सकें। लेकिन कांशीराम की दिक्कत यह रही कि उन्हें अपने मिशन और सत्ता की राजनीति में नैतिकता का जितना गारा लगाना था वह लगा नहीं पाए। उसमें नैतिकता की सीमेंट लगने के बजाय अनैतिकता की रेत इतनी ज्यादा मिल गई कि बहुजन सत्ता का जो ढांचा खड़ा करना चाहते थे वह भरभरा गया।
हालांकि कांशीराम के प्रभाव में मायावती का उभार भारतीय राजनीति की अनोखी परिघटना थी। वे जब पहली बार मुख्यमंत्री बनीं तो एक दलित महिला एक सवर्ण कर्मचारी का जननांग काटकर थाने पहुंच गई। यह महिला के यौनाचार के प्रतिरोध का तरीका था और उसे यकीन था कि मायावती आ गई हैं और अब उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। मायावती जब आखिरी बार मुख्यमंत्री थीं तो दक्षिण भारत के लोगों को भी लगने लगा था कि उनके नेतृत्व का दायरा दक्षिण तक पहुंचेगा और वे एकदिन भारत की प्रधानमंत्री बनेंगी। लेकिन आज उनका निस्तेज होना चौंकाता और निराश करता है।
कांशीराम के बहुजन आंदोलन को चंद्रभान प्रसाद जैसे बौद्धिकों ने भोपाल में जारी `दलित एजेंडा’ के माध्यम से नया विस्तार दिया। उसके पीछे कांग्रेस के नेता दिग्वविजय सिंह की प्रेरणा और समर्थन था। शायद दिग्विजय सिंह कांग्रेस को पूना समझौते के युग से बाहर निकलाना चाहते थे और उत्तर पूना युग में लाना चाहते थे। वे आंबेडकर के विचारों को कांग्रेस के भीतर समाहित करना चाहते थे।
लेकिन आज दलित नेतृत्व फिर चमचा युग में प्रवेश कर चुका है। निश्चित तौर पर इसकी शुरुआत कांशीराम की अपनी बहुजन समाज पार्टी के भीतर से हुई। अपने को कांशीराम का एक मात्र उत्तराधिकारी बताने वाली मायावती ने पूरी पार्टी को व्यक्ति पूजा और मूर्ति पूजा में उलझा कर उसे चमचों की जमात में बदल दिया। पार्टी के कई संघर्षशील नेता बाहर हो गए और सर्वजन समाज बनाने के चक्कर में ऐसे सवर्ण पार्टी में आ गए जिनका डॉ. आंबेडकर के विचार दर्शन से कोई लेना देना नहीं था। उनका उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन और जाति व्यवस्था का बीजनाश भी नहीं था। वे बहनजी के पैर पकड़ कर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ना चाहते थे। धीरे धीरे बहनजी ने भी मिशन के काम को किनारे रख दिया और किसी तरह से सत्ता पर कब्जा करना और सत्ता में भागीदारी ही उनका उद्देश्य बन गया।
लेकिन सामाजिक परिवर्तन की राजनीति को जो सबसे बड़ी चुनौती मिलती रही है वह है राष्ट्रवाद की चुनौती। दलित अपना कोई राष्ट्रवाद विकसित करें उससे पहले सवर्णों का राष्ट्रवाद उन्हें दरकिनार कर देता है। ध्यान देने की बात है कि जब कांशीराम का दलित आंदोलन और पिछड़ों का मंडल आंदोलन परवान चढ़ रहा था तभी भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा शुरू कर दी। उस यात्रा ने सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का ऐसा वितान खड़ा किया कि सामाजिक न्याय को केंद्र में रखकर क्षेत्रीय दलों के साथ खड़ी हो रही विकेंद्रित राष्ट्रीय राजनीति अल्पकालिक प्रतिरोध जताकर बिखर गई।
विगत चालीस वर्षों में दलित राजनीति ने जितना कुछ कमाया था उसे आखिरकार हिंदुत्व की राजनीति ने निगल लिया। दलित राजनीति ने भाजपा जैसे ताकतवर दल के साथ गठबंधन बनाकर एक नए किस्म का चमचा युग शुरू किया जो जल्दी खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। सन् 2018 में दलित राजनीति ने आखिरी बार अपनी ताकत तब दिखाई जब सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उत्पीड़न संबंधी कानून की सख्त धारा को खारिज कर दिया। उसके चलते देश में कई जगहों पर उग्र प्रदर्शन हुए और दलित मारे भी गए। लेकिन केंद्र में बैठा दलित नेतृत्व सरकार पर दबाव डालने के लिए मजबूर हो गया और सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने वाला कानून पास किया।
लेकिन दलित नेतृत्व की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसके पास कोई राष्ट्रवादी आख्यान नहीं है। वैसा आख्यान जैसे कांग्रेस के पास था और जो अब भाजपा के पास चला गया है। आज दलित मध्यवर्ग में बुद्धिजीवियों और विद्वानों की बड़ी संख्या है। लेकिन डॉ. आंबेडकर महात्मा गांधी के विरोध और स्वाधीनता संग्राम की कटु आलोचना की जो लकीर खींच गए हैं उसे पार करने की किसी में हिम्मत नहीं है। दलित विमर्श में उपनिवेशवाद के विरोध का आख्यान एकदम अनुपस्थित है। जबकि आज के भारत का उदय तो उपनिवेशवाद विरोध और स्वाधीनता संग्राम से ही होता है। इस बात को वे हिंदुत्ववादी समझ गए जो स्वाधीनता संग्राम से किनारा किए हुए थे। लेकिन दलितों का पढ़ा लिखा मध्यवर्ग नहीं समझ पाया। हिंदुत्ववादी भले पंडित नेहरू जैसे सेक्यूलर राजनेता से चिढ़ते हों लेकिन वे गांधी, सुभाष और पटेल जैसे नेता को अपना बनाने में जोरशोर से लगे रहते हैं। तिलक, लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय को तो वे ऐसा मानते हैं जैसे वे संघ परिवार के ही हों।
ऐसा नहीं है कि सारे दलित बौद्धिक स्वाधीनता संग्राम को महत्व को खारिज करते हों लेकिन फुले और आंबेडकर के विचारों में स्वाधीनता संग्राम का सम्मानजनक उल्लेख अनुपस्थित है। जैसे ही वे आंबेडकर का यह कथन पढ़ते हैं कि वे (अंग्रेज) देर से आए और जल्दी चले गए तैसे ही उनके मानस में पूरे स्वाधीनता संग्राम के लिए एक निंदा की भावना घर कर जाती है। वे अभी भी इस ग्रंथि से उबर नहीं पाए हैं कि स्वाधीनता संग्राम अंग्रेजों को भगा कर सवर्णों की सत्ता कायम करने का एक षडयंत्र था। दलितों के पास राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा प्रतीक डॉ. आंबेडकर द्वारा बनाया गया संविधान है। लेकिन उसे भी कई बौद्धिक इस तरह से पेश करते हैं जैसे संविधान गांधी के पूरे स्वाधीनता संग्राम के सघर्षों और मूल्यों को खारिज करने के लिए रचा गया हो।
यह बहुत बड़ा कारण है जिसके चलते दलित अपनी राष्ट्रव्यापी राजनीति खड़ी नहीं कर पाते। हालांकि इसी के साथ यह भी सही है कि राष्ट्रवाद उसी का होता है जिसके पास आर्थिक और राजनीतिक ताकत होती हो। लेकिन कम से कम विचार के स्तर पर तो दलित चिंतक उसे बना ही सकते हैं। दलित नेतृत्व और बौद्धिकों की विडंबना यह है कि या तो वे हिंदू धर्म के समस्त धर्मग्रंथों को खारिज करके और वर्ण व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेते हैं और सारे उदार व्यक्तियों को भी जातिवादी सिद्ध करते हैं या फिर वे वोट और सत्ता की राजनीति करने के लिए सामाजिक चेतना से हीन कट्टर से कट्टर हिंदुओं से समझौता कर लेते हैं।
दलित आंदोलन और नेतृत्व की दिक्कत यह है कि वह महात्मा गांधी और कांग्रेस द्वारा पैदा किए गए राजनीतिक ढांचे को ब्राह्मणवादी बताकर उसके चमचा युग से निकलते निकलते हेडगेवार, गोलवलकर और सावरकर के हिंदुत्ववादी ढांचे में फंस जाता है। कई आंबेडकरवादी सावरकर को जाति के मामले में गांधी से ज्यादा प्रगतिशील बताकर उनकी प्रशंसा करने लगते हैं। आंबेडकर बुद्ध के दर्शन में प्रज्ञा, करुणा और समता जैसे जिन तीन मूल्यों को देखकर उसकी ओर झुकते हैं उसे वे महात्मा गांधी की राजनीति में अनुपस्थित पाते हैं। निश्चित तौर पर गांधी अपनी राजनीति एक अलग मुहावरे में करते हैं और उनका पाठ भी डॉ. आंबेडकर के पाठ से अलग है। लेकिन गांधी के उस विमर्श और कर्म के भीतर करुणा और समता की जो धारा बह रही है वह आंबेडकर जैसा प्रज्ञावान व्यक्ति अगर नहीं देखा पाया तो उसके पीछे उनका पूर्वाग्रह ही कहा जा सकता है। जहां करुणा और समता के इतने रूप उपस्थित हों वहां प्रज्ञा न हो यह तो माना ही नहीं जा सकता। यह बात सही है कि गांधी पहले अंतररात्मा की आवाज सुनते हैं और बाद में उसे बुद्धि और तर्क की कसौटी पर कसते हैं। दिक्कत यही है कि गांधी किसी को शत्रु मानते नहीं और आंबेडकरवादी गांधी को मनु के बाद सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं।
ऐसा नहीं है कि सारे दलित नेता और बौद्धिक गांधी को खारिज ही करते हों। टीआर नागराज जैसे कन्नड़ के साहित्यकार और हिंदी में मोहनदास नैमिसराय जैसे लेखक दोनों के बीच में बहुत सारी समानता पाते हैं। वे उनके द्वंद्व को खत्म करने का प्रयास करते हैं। डॉ. लोहिया भी ऐसे ही बहुजनों के नेता हैं जो इस द्वंद्व को सकारात्मक तरीके से देखते हैं और उनके बीच एक सेतु बनकर खड़े होते हैं। दलित नेतृत्व की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह गांधी से घृणा करने के प्रयास में उन तमाम उदार बौद्धिक विमर्शों से अपने को काट लेता है जो उसके लिए खाद पानी का काम कर सकते हैं।
यह सही है कि भारतीय समाज में नव जनवादी क्रांति (New Democratic revolution) तो दलित नेतृत्व ही करेगा लेकिन उसके साथ उदार बौद्धिकों की उपस्थिति आवश्यक है। उन लोगों को अपने साथ लेने की कोशिश डॉ. आंबेडकर भी करते थे और कांशीराम भी। मायावती को न तो दलित बौद्धिकों से कोई लेना देना है और न ही उदार सवर्णों से। उन्हें उसी से मतलब है जो उनके मुकदमे लड़ ले या धन संग्रह करे और वोट दिलवाए। यह फार्मूला न तो नैतिक है और न ही दीर्घकालिक।
सन् 2018 में गांधी 150 इनिशिएटिव के कुछ नेताओं ने वर्धा में सेवाग्राम में एक अद्भुत आयोजन किया था। उन लोगों ने गांधी आश्रम में एक तरफ महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी को बुलवाया और दूसरी ओर बाबा साहेब के पोते प्रकाश आंबेडकर को। उन दोनों को एक मंच पर खड़ा किया और कहा कि इस प्रतीकात्मक समावेशिता से नई राजनीति निकलनी चाहिए।
इसलिए दलित नेतृत्व और बौद्धिकों को आज के खतरे को देखते हुए अपनी राजनीति का पुनर्पाठ करना चाहिए। उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारियां बड़ी हैं और उसी लिहाज से चुनौतियां भी गंभीर हैं। अगर वे घृणा की राजनीति से अपने को निकाल सकें तो उनके नैतिक और बौद्धिक नेतृत्व से भारतीय लोकतंत्र भी बचेगा, संविधान की रक्षा होगी और जातिवाद और सांप्रदायिकता भी पराजित होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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