प्रिय दिल्ली पुलिस, मुसलमान इतने भी बुद्धू नहीं कि बुद्धिजीवी इन्हें गुमराह कर दें
हाल ही में फ़रवरी के दंगों मामलों में दिल्ली पुलिस ने जो विवादास्पद चार्जशीट दायर की है, उसमें दिल्ली पुलिस की तरफ़ से मुस्लिम समुदाय को अपरिपक्व समझ लिया गया है। यह चार्जशीट किसी पढ़ने वाले को ऐसा विश्वास दिलायेगी कि मुसलमान मानो किसी खोल में रहते हैं, जो देश में चल रही बहस से पूरी तरह से अलग-थलग रहते हैं। उनकी खराब शैक्षिक स्थिति उन्हें उनसे जुड़े मुद्दों का विश्लेषण करने की बुद्धि से वंचित करती है और इसलिए, अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए किसी आंदोलन को शुरू करने लेकर संगठित होने की कमी है।
पूरक आरोपपत्र में कहा गया है कि मुसलमान वे लोग हैं,जिनका केवल नेतृत्व किया जा सकता है, वे ख़ुद नेतृत्व करने के लायक़ नहीं हैं। इसलिए, दिल्ली पुलिस यह समझती है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता सीताराम येचुरी और बुद्धिजीवियों से बने बांसुरी बजाने वालों का ऐसा बैंड है, जिनकी धुन पर मुसलमान नाचते हैं; कठपुतली नचाने वाले यही लोग थे, जिन्होंने नयी नागरिकता नीति के ख़िलाफ़ मुसलमानों को सड़कों पर उतारना चाहते थे। चार्जशीट को पढ़ने वाले लोग ज़रूर पूछेंगे कि क्या अपेक्षाकृत कम पढ़े लिखे अनपढ़ इस बात को समझने के इतना क़ाबिल भी नहीं हैं कि इस क़ानून का कोई हिस्सा उनके हितों को कमज़ोर करता है या नहीं ?
आरोप पत्र की शुरुआत में कह गया है कि तीनों आरोपी-देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और गुलफ़िशा फ़ातिमा, पिंजरा तोड़ समूह के इन सभी सदस्यों ने मुस्लिम आवासीय इलाक़ों, फलों के बाज़ारों और आसपास के ढाबों में "मुस्लिम महिलाओं के समूह" बनाये। इन तीनों ने महिलाओं के इन समूहों के सामने सीएए और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स (NRC) के प्रावधानों की ग़लत व्याख्या करते हुए दावा किया कि ये क़ानून भारत से मुसलमानों को बाहर करने के लिए डिज़ाइन किये गये हैं।
इसके बाद की कहानी इन दंगों के पीछे की साज़िश को उजागर करती है। मिसाल के तौर पर गुलफ़िशा को एक ऐसे नासमझ, असरदार शख़्स के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसे देवांगना और नताशा ने पूर्वोत्तर दिल्ली में सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए भर्ती किया था। दूसरी तरफ़ देवांगना और नताशा पर आरोप लगाया गया है कि इन्होंने अर्थशास्त्री जयति घोष, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद, फ़िल्म निर्माता राहुल रॉय आदि जैसे उन बुद्धिजीवियों के इशारे पर काम किया, जिन्होंने दिसंबर में उन्हें बताया था कि उस समय शाहीन बाग़ में हो रही सभायें दुनिया भर में सुर्ख़ियां बटोर रही हैं और उन्हें सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए "किसी भी हद तक" जाना चाहिए। इन दोनों पिंजरा तोड़ नेताओं ने उस युवा नेता,उमर ख़ालिद से भी सुझाव लिए, जिन्होंने विरोध के साथ पूर्वोत्तर दिल्ली की सड़कों पर पत्थर मारने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति के रूप में गुलफ़िशा की पहचान करने में मदद की थी।
खलनायक
देवांगना और नताशा के ख़ुलासे वाले बयानों, जिन पर दोनों ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था, उनके मुताबिक़ इन दोनों ने गुलफ़िशा को बताया था कि सीए विरोधी यह विरोध उन्हें "सरकार की छवि को ख़राब" करने और मुस्लिम समुदाय की तरफ़ से होने वाले विरोध के रूप में चित्रित करने में सक्षम बनायेगा। उन्होंने सीएए-एनआरसी के बारे में आम मुसलमानों को गुमराह करने के लिए अपनी "शैक्षणिक योग्यता (पीएचडी) का इस्तेमाल करने" की बात भी क़बूल की। इस प्रकार, मुसलमानों को सरकार के ख़िलाफ़ होने वाले विरोध प्रदर्शन में शामिल किया गया।
गुलफ़िशा के ख़ुलासे का इस्तेमाल "कम पढ़े-लिखे लोगों" को गुमराह करने वाले एक साज़िश के तौर पर इस विरोध का चित्रण करने में किया गया है। गुलफ़िशा को दिल्ली पुलिस को ऐसा कहते हुए उद्धृत किया गया है कि येचुरी, योगेंद्र यादव, चंद्र शेखर रावण, उमर ख़ालिद और वक़ील महमूद प्राचा जैसे नेता, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के अपने भाषणों में इस विरोध को एक लोकतांत्रिक अधिकार के रूप में परिभाषित किया था।
इससे मुसलमानों के असंतोष को हवा मिली। इसमें देवांगना और नताशा को जानबूझकर जेएनयू के शोध छात्राओं के तौर पर सामने पेश किया गया है। उनकी इस शैक्षणिक योग्यता ने उन्हें "कम-शिक्षितों" के बीच सीएए-एनआरसी को ग़लत मायने में पेश करने में सक्षम बनाया था। इस चार्जशीट में दावा किया गया है कि एमबीए डिग्रीधारी गुलफ़िशा, देवांगना और नताशा से बेहद प्रभावित थी, और इन दोनों को यह कहते हुए दिखाया गया है, "वह (गुलफ़िशा) सीलमपुर और ज़ाफ़राबाद की एक आइकन बन गयी है।" इस तरह पूर्वोत्तर दिल्ली में एक भोलीभाली गुलफ़िशा पिंजरा तोड़ का हथियार बन गयी।
देवांगना को पिंजरा तोड़ कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी ख़लनायक के तौर पर पेश किया गया है, ऐसा इसलिए, क्योंकि उसकी असमिया पहचान ने बड़े पैमाने पर असम में लागू किये गये एनआरसी के उसके ज़िक़्र ने उसे विश्वसनीयता दे दी थी। इस बात का दावा किया गया है कि उसने लोगों को बताया था कि असम में मुसलमानों को किस तरह हिरासत में रखा गया था और फिर जबरन किस तरह बांग्लादेश भेज दिया गया था। चार्जशीट से पता चलता है कि इस ज़िक़्र से मुसलमानों में डर पैदा किया गया और सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ उन्हें विरोध में उतारा गया।
इस दावे से ज़्यादा हास्यास्पद धारणा और क्या हो सकती है कि दिल्ली के मुसलमान सीएए-एनआरसी के लागू किये जाने के निहितार्थ से तबतक अनजान थे,जब तक कि जवाहरलाल नेहरू के बुद्धिजीवियों और पीएचडी शोध छात्रों ने इसके बारे में बोलना शुरू नहीं किया था।
अमित शाह का डराने वाला वह जुमला
गृह मंत्री अमित शाह के उस बयान की भी उसमें कम भूमिका नहीं थी,जिसमें वे सीएए-एनआरसी को "घुसपैठियों" को बाहर निकालने वाले एक हथियार के तौर पर लहराते रहे। यह शब्द भारतीय जनता पार्टी द्वारा बांग्लादेश से आने वाले मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। अक्टूबर 2019 में कोलकाता की एक सभा में शाह ने कहा था, “मैं आज आपको बता देना चाहता हूं कि एनआरसी का संचालन करने से पहले भाजपा नागरिकता संशोधन विधेयक या सीएबी (बाद में दिसंबर में सीएए के रूप में अधिनियमित) लायेगी। सीएबी का मतलब यह है कि वे सभी हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई, (और) जैन, जो यहां इस देश में आये हैं, उन्हें भारतीय नागरिकता स्थायी रूप से मिलेगी।" उन्होंने कहा कि कोई भी देश घुसपैठियों के इतने बड़े बोझ को नहीं उठा सकता है, इसलिए उन्हें बाहर फेंकने की ज़रूरत है।
कुछ हफ़्ते पहले भाजपा महासचिव, कैलाश विजयवर्गीय ने कोलकाता के लोगों को भरोसा दिलाते हुए कहा था,“ मैं आप सभी को भरोसा दिलाना चाहता हूं कि एनआरसी लागू किया जायेगा, लेकिन एक भी हिंदू को देश छोड़ना नहीं पड़ेगा। हर हिंदू को नागरिकता दी जायेगी।” मगर सवाल है कि फिर मुसलमानों के बारे में क्या ? विजयवर्गीय ने इस बारे में कहा,“ भारत कोई दान देने वाली संस्था नहीं है कि बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बहुसंख्यक समुदाय (मुस्लिम) यहां घुसपैठ करे, आतंक फैलाये और हमारे नागरिकों की आजीविका छीन ले…”
30 जुलाई 2019 को जब असम के लिए अंतिम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर सार्वजनिक किया गया था, तब लगभग 19 लाख आवेदकों ने इसमें अपने नाम नहीं पाये थे। इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई को दिये गये एक इंटरव्यू में असम के कद्दावर कैबिनेट मंत्री, हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा कि एनआरसी से बाहर रखे गये इन 19 लाख लोगों में से 5.4 लाख लोग हिंदू थे। उन्हें निर्वासन से बचाया जायेगा, क्योंकि उन्होंने इसका वादा किया है। जहां तक मुसलमानों का सवाल है, तो सरमा ने कहा, "जो लोग आर्थिक फ़ायदे उठाने के लिए देश में घुस आते हैं...उन्हें चिह्नित किया जाना चाहिए और उनकी वोट देने की पात्रता नहीं होनी चाहिए।"
मुसलमान भी टीवी देखते हैं
इन तमाम टीका-टिप्पणियों ने टीवी में सुर्खियां बटोरीं और अक्सर इन्हें अख़बारों के पहले पन्ने पर जगह मिली। इन टीका-टिप्पणियों ने साफ़ तौर पर जनता के सामने इस बात को रेखांकित कर दिया कि सीएए का अनुसरण एनआरसी द्वारा किया जायेगा, और सीएए को निर्वासित हिंदू प्रवासियों को निर्वासन से बचाने के लिए ही अधिनियमित किया गया था। मुसलमान शैक्षिक रूप से पिछड़े (या पूरक चार्जशीट में उद्धृत शब्द का इस्तेमाल किया जाय,तो "कम पढ़े-लिखे") हो सकते हैं, लेकिन वे टीवी देखते हैं और उनमें से काफी फ़ीसदी में लोग अख़बार भी पढ़ते हैं।
सीएए के अधिनियमित होने के बाद मुसलमानों के लिए अपने भविष्य के ख़तरे में पड़ जाने का डर स्वाभाविक ही था। वे भाजपा द्वारा पांच साल तक लगातार निशाने पर रहे, और 5 अगस्त 2019 को मोदी सरकार ने भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य, जम्मू और कश्मीर को विशेष राज्य के दर्जे को ख़त्म कर दिया। उन्होंने इस बात को सुना और पढ़ा था कि एनआरसी ने किस तरह ले असम के लोगों को परेशान किया है।
सेंटर फ़ॉर जस्टिस एंड पीस के राज्य सलाहकार, ज़मसेर अली कहते हैं, "2013 में जबसे एनआरसी शुरू हुआ था, तबसे तक़रीबन 104 लोगों ने आत्महत्या की या समय से पहले इसलिए मर गये, क्योंकि वे निकाले जाने के डर का सामना नहीं कर सके।"
ग़रीबों को अपनी नागरिकता स्थापित करने या एनआरसी केंद्र पर बुलाये जाने के लिए अपने दस्तावेज़ जुटाते हुए वे या तो कर्ज़दार हो गये या फिर अपनी छोटी बचत भी गंवा बैठे। दिल्ली स्थित थिंक टैंक, राइट्स एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप के निदेशक, सुहास चकमा ने हिसाब लगाया है कि एनआरसी के मसौदे से बाहर किये गये 41.10 लाख लोगों को 30 जुलाई 2018 को सार्वजनिक किया गया, जुलाई 2019 में आख़िरी एनआरसी जारी होने तक इस पर 7,836 करोड़ रुपये खर्च किये गये।
सीएए बनाम तीन तलाक़
एक ऐसी पार्टी, जिसे लोकसभा में ज़बरदस्त बहुमत हासिल है और यह मानती है कि उसने अल्पसंख्यकों को डरा धमकाकर क़ाबू में किया हुआ है, उसके नेता मुसलमानों को सड़कों पर उतरते हुए, शांति प्रतिरोध में संगठित होते हुए और संविधान की प्रस्तावना को पढ़ते हुए और हिंदुत्व ब्रिगेड के ख़िलाफ़ सर्दियों के ठिठुरन में भी बहादुरी के साथ अल्पसंख्यकों की रणनीति पर आगे बढ़ते हुए देखकर दंग थे। शायद इस विरोध प्रदर्शनों का सबसे शानदार पहलू यही था कि इसका नेतृत्व महिलायें कर रही थीं। हिजाब पहनी ये महिलायें, भाजपा के मुताबिक़ उत्पीड़ित हैं, आख़िर नेतृत्व कैसे कर सकती हैं?
सरकार को लगा कि इसमें भी एक साज़िश थी।
हालांकि यह वही मुस्लिम महिलायें थीं, जिनके समर्थन में भाजपा ने उनके तीन तलाक़ के ख़ात्मे के संघर्ष के गीत गाये थे, अब वही भाजपा उन्हीं महिलाओं के उस विरोध प्रदर्शन को अवैध ठहरा रही थीं। 2017 के अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा था, “मैं उन महिलाओं के प्रति सम्मान व्यक्त करता हूं,जिन्हें तीन तालक़ के चलते दयनीय जीवन गुज़ारना पड़ा है और इन्होंने एक ऐसा आंदोलन शुरू किया, जिसने इस प्रथा के ख़िलाफ़ पूरे देश में एक वातावरण बनाया।”
मोदी ने इन जुझारू महिलाओं को भरोसा दिलाया था कि वे इसलिए कामयाब होंगी, क्योंकि पूरे देश का समर्थन "महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में उनके इस महत्वपूर्ण कदम" के साथ है। कुल मिलाकर यह एक और बात है कि जिन लोगों ने तीन तालक़ के ख़िलाफ़ उस लड़ाई में उन्हें मोहरा बनाया था, वे समान नागरिकता की मांग करने वाले युवा पुरुषों और महिलाओं के उत्पीड़न पर चुप हैं।
ज़ाहिर है, मोदी और उनके भक्तों से उन मुस्लिम महिलाओं की वाहवाही की उम्मीद करना बेमानी है, जिन्होंने इन विरोध सभाओं का आयोजन किया था। लेकिन, उन्हें कम से कम यह एहसास तो होना ही चाहिए कि "कम पढ़े-लिखे" को भी अपने अधिकारों और उन अधिकारों के अतिक्रमणों को लेकर गहरी समझ है। और दिल्ली पुलिस को बताया जाय कि मुसलमान इतने भी बुद्धू नहीं हैं कि कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा उन्हें गुमराह कर दिया जाये।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
Dear Delhi Police, Muslims Aren’t so Dumb to be Misled by Intellectuals
https://www.newsclick.in/Delhi-Police-Violence-Chanrgesheet-Anti-CAA-Protests
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