यूरोप की आर्थिक ख़ुदकुशी
यूक्रेन युद्ध के चलते, रूस के खिलाफ पश्चिम द्वारा लगायी गयी पाबंदियों के जवाब में, रूस से यूरोप के लिए प्राकृतिक गैस की आपूर्तियां बंद हो गयी हैं। इससे यूरोप के लिए न सिर्फ एक ऐसी सर्दी का सामना करने का खतरा पैदा हो गया है, जब उसके पास बर्फीली सर्दी का मुकाबला करने के लिए गर्मी की पर्याप्त व्यवस्था ही नहीं होगी बल्कि इसकी कीमत बहुत से गरीबों को अपनी जान से चुकानी पड़ सकती है। लेकिन, इसके साथ ही उसके सामने इसके चलते बड़े पैमाने पर उद्योगों के बंद हो जाने का भी खतरा आ खड़ा हुआ है। इस तरह से उद्योग बंद होने से बेरोजगारी की दर और बढ़ जाएगी और मजदूरों के बीच गरीबी तथा कंगाली में भी उल्लेखनीय रूप से बढ़ोतरी हो जाएगी।
अमरीका का ताबेदार बना यूरोप
इस पूरे घटनाविकास का यूरोप पर तत्काल पड़ने वाला प्रभाव ही बहुत ही नुकसानदेह नहीं होगा। इसके अलावा पूंजी ने यूरोप से हटकर अमरीका की ओर जाना भी शुरू कर दिया है। यह ऐसा रुझान है जो आगे-आगे अपरिहार्य रूप से जोर पकड़ने जा रहा है। इस तरह, यूरोपीय महाद्वीप में आर्थिक वृद्धि तथा इसलिए रोजगार की दीर्घावधि संभावनाओं पर भी इसकी मार पड़ने जा रही है। संक्षेप में यह कि यूरोप खुद अपनी ही रची तीखी आर्थिक कठिनाइयों के दौर में प्रवेश कर रहा है। वास्तव में वह यूक्रेन युद्ध में अमरीका के लिए अपनी वफादारी दिखाने की प्रक्रिया में, आर्थिक हाराकीरी या आत्महत्या ही कर रहा है। जर्मनी में एसपीडी सरकार में मंत्री रहे और वामपंथी पार्टी, डी लिंके के संस्थापक, ऑस्कर लॉ फोंटेने ने, जो अब सक्रिय राजनीति से सन्यास ले चुके हैं, जर्मनी को ‘यूक्रेन युद्ध में अमरीका का एक ताबेदार’ करार दिया है (द डेल्फी इनीशिएटिव, 17 सितंबर 2022)। और उनकी बात असंदिग्ध रूप से सही है।
जैसाकि अनुमान लगाया जा सकता था, यूरोपीय जनमत को यह समझाने की कोशिशें की जा रही हैं कि यूरोप की तकलीफों के लिए व्लादीमीर पूतिन ही जिम्मेदार है। लेकिन, रूसी प्राकृतिक गैस यूरोप में पहुंचाने वाली पाइप लाइन, नार्ड स्ट्रीम-1 के पूतिन द्वारा बंद किए जाने के पहले से यूरोपीय नेता करीब-करीब हर रोज रूस की गैस का बहिष्कार करने की बात कहते आ रहे थे। इस लिहाज से पूतिन ने तो सिर्फ इतना किया है कि यूरोपीय नेता जो करना चाहते थे, उसे पूतिन ने अमल में ला दिया है। इसके अलावा रूस से यह उम्मीद कोई कैसे कर सकता है कि सिर्फ इसलिए कि यूरोप को उसकी प्राकृतिक गैस की जरूरत है, जिसके चलते शुरूआत में गैस को पाबंदियों के दायरे से बाहर रखा गया था, वह उसके लिए प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करना जारी रखेगा। जबकि वह खुद यूरोप की दूसरी पाबंदियों की मार झेलता रहेगा। यह मांग करना तो ऐसे ही है जैसे किसी से यह उम्मीद की जाए कि एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद, वह दूसरा गाल आगे कर दे। जो ताकतें दूसरे देशों पर इकतरफा तरीके से पाबंदियां लगाती हैं, उन्हें दूसरी ओर से जवाबी कार्रवाई के लिए भी तैयार रहना चाहिए। वास्तव में पाबंदियों की मार झेलने वाले किसी भी देश को, इसका जवाब देने का अधिकार है और उसके खिलाफ पाबंदियां लगाने वालों को, ऐसे जवाब के लिए तैयार रहना ही चाहिए।
यूक्रेन की आड़ में सामराजी खेल
लेकिन, तब कोई यह दलील दे सकता है कि पूतिन की गलती कहीं ज्यादा बुनियादी है। वह यूक्रेन की यह तय करने की स्वतंत्रता में दखलंदाजी करने का दोषी है कि वह चाहे तो नाटो में शामिल हो या नहीं हो। दलील दी जाएगी कि किसी स्वतंत्र देश को, किसी भी गठबंधन में शामिल होने या नहीं होने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और दूसरा कोई भी देश उसे अपनी मर्जी से फैसला लेने से नहीं रोक सकता है। लेकिन, तब क्या हमें इस तथ्य को भूल ही नहीं जाना होगा कि पश्चिमी ताकतों ने, सोवियत संघ के आखिरी प्रमुख, मिखाइल गोर्बाचोव को, नाटो के पूर्व की ओर अपना विस्तार न करने के किस तरह के आश्वासन दिए थे। तब हमें यह भी भूल जाना होगा कि किस तरह 2014 में यूक्रेन में ऐसी लोकप्रिय चुनाव से बनी सरकार का अमरीका-प्रायोजित तख्तापलट कराया गया था, जो रूस के साथ दोस्ताना रिश्तों की हामी थी। तब हमें यह भी भूल जाना होगा कि उक्त तख्तापलट के बाद यूके्रन में नयी-नयी बैठायी गयी सरकार, जो अमरीकी नवउदारवादी गुट के मन-मुताबिक बनायी गयी थी, रूसी बहुल डोनबास क्षेत्र के खिलाफ युद्ध छेड़े रही थी, जिसमें रूस के हस्तक्षेप से पहले तक 14,000 जानें जा चुकी थीं। और हमें यह भी भूल जाना होगा कि दुनिया के पूरे 80 देशों में अमरीका ने अपने 800 सैन्य अड्डे स्थापित किए हुए हैं, जिनका एक ही मकसद है कि अमरीका कि वर्चस्व को बनाए रखा जाए। और इस सब को भूलकर भी, हम अगर केवल इसी नुक्ते पर ध्यान केंद्रित करें कि किसी भी देश को, किसी भी गठबंधन में शामिल होने का और अपनी सीमाओं में कोई भी हथियार लगवाने का अधिकार है, जिस पर अब अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी ताकतें इतना जोर दे रही हैं, तो भी क्या यह सवाल नहीं पूछा जाएगा वाकई अगर ऐसा है तो क्यों 1962 के मिसाइल संकट के दौरान, क्यूबा को ठीक ऐसी ही स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए, अमरीका ने पूरी दुनिया को ही नाभिकीय युद्ध के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया था?
बुरे होंगे यूरोपीय युद्धप्रियता के नतीजे
अमरीका के पीछे-पीछे चलते हुए, रूस के प्रति यूरोप जिस तरह की युद्धप्रियता का प्रदर्शन कर रहा है, उसके नुकसानदेह आर्थिक नतीजे तो होंगे ही, इसके राजनीतिक नतीजे सत्यानाशी होंगे। यह यूरोप को सिर्र्फ दक्षिणपंथ की ओर ही नहीं धकेलेगा बल्कि फासीवाद के भी नजदीक धकेल देगा। इससे मजदूर वर्ग पर जो बहुत भारी बोझ लाद दिया जाएगा, उसे सभी पहचान रहे हैं और इस तथ्य को भी पहचान रहे हैं कि इस तरह के बोझ लादे जाने का मजदूर वर्ग प्रतिरोध करेगा। लेकिन, ‘उदारपंथी’ राजनीतिक कतारबंदियों को मेहनतकशों पर डाले जाने वाले इन बोझों की कोई चिंता नहीं है। इन बोझों के सिक्के का ही दूसरा पहलू यह है कि इसी समय में तेल कंपनियों द्वारा भारी मुनाफे बनाए जा रहे हैं। रूस से प्राकृतिक गैस-आपूर्तियां बंद होने का फायदा उठाकर इन तेल कंपनियों ने अपने मुनाफे का अनुपात बढ़ा लिया है। (इसी प्रकार, लड़ाई लंबी चलाने के वास्ते यूक्रेन के लिए अमरीकी सैन्य आपूर्तियों के वित्त पोषण के लिए, अमरीकी जनता पर जो कर लगाए जा रहे हैं, उसी सिक्के का दूसरा पहलू है, शस्त्र निर्माताओं द्वारा भारी मुनाफे बटोरे जाना।) यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि यूरोपीय वामपंथ के भी कुछ हिस्से अपनी सरकारों के इन युद्धवादी कदमों का अनुमोदन करने के लिए तैयार हैं।
यूरोप के सिर पर मंडराते तबाही के खतरे को लेकर अनेक फासीवादी गुटों द्वारा भारी शोर मचाया जा रहा है। और उनके इसे लेकर शोर मचाने का इस्तेमाल अनेक वामपंथी ग्रुपों द्वारा इसकी दलील के तौर पर किया जा रहा है कि मजदूर वर्ग को चोट पहुंचाने वाले इन कदमों के खिलाफ, उन्हें कोई पहल करनी ही नहीं चाहिए। वर्ना यह लगेगा कि वे फासीवादियों की बगल में खड़े हैं। मिसाल के तौर पर जर्मनी में, एएफडी नाम का फासीवादी गुट ही है जो सरकार के कदमों के खिलाफ आवाज उठा रहा है। बेशक, इन ग्रुपों के निर्मम अवसरवाद के चलते, इन फासीवादी गुटों के शोर मचाने का कोई खास मतलब नहीं है। अगर वे सत्ता में आ गए, तो वे पूरी तरह से पल्टी मार लेंगे और खुद अपने ऐसे समर्थकों के खिलाफ भी कार्रवाई कर सकते हैं, जो उनके ही पुराने नारों को उठाना जारी रखेंगे। लेकिन, असली खतरा इसका ही तो है कि इन नारों के आधार पर वे सत्ता तक पहुंच सकते हैं। इटली ने एक धुर-दक्षिणपंथी सरकार को चुन लिया है, जिसमें केंद्रीय भूमिका एक ऐसी फासिस्ट नेता की है, जिसने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरूआत, मुसोलिनी समर्थक पार्टी से की थी। बहरहाल, आसार इसी के हैं कि यूरोप में फासीवाद का उभार कहीं ज्यादा सामान्यीकृत होगा और अनेक देशों में फैला हुआ होगा। सोच कर ही डर लगता है कि इनमें, जर्मनी भी शामिल है।
यूरोपले वर्तमान नेता फासीवाद की ओर धकेल रहे हैं
इसी खतरे को ध्यान में रखकर सहरा वागेन्कनेख्त ने, जो डी लिंक की नेता हैं तथा उसकी पूर्व-सह अध्यक्ष हैं, अपनी पार्टी से कहा है कि सरकार के खिलाफ सामाजिक विरोध कार्रवाइयां संगठित करे, भले ही दक्षिणपंथ भी उसके खिलाफ विरोध कार्रवाइयां कर रहा हो। उनका कहना था कि, ‘जो कोई भी, सही तथा जनहित के रुख सिर्फ इसलिए छोड़ देता है कि उनमें से कुछ का प्रतिनिधित्व एएफडी भी करती है, तो उसने तो शुरू होने से पहले ही लड़ाई में हार मान ली है।’(एमआर ऑनलाइन, 18 सितंबर, 2022)
आंग्ल-अमरीकी नीति हमेशा से यही रही है कि यूरोप को, खासतौर पर जर्मनी को, रूस से दूर रखा जाए। और अपने अनेक पूर्ववर्तियों के विपरीत, यूरोपीय राजनीतिज्ञों की वर्तमान पीढ़ी ने तो, इसी नीति को पूरी तरह से हजम भी कर लिया है। मिसाल के तौर पर चाल्र्स द गॉल ने, फ्रांस की धरती पर नाटो का अड्डा स्थापित करने की इजाजत ही नहीं दी थी क्योंकि उनका यह मानना था कि इस तरह के अड्डों की इजाजत देना फ्रांस से यह तय करने का अधिकार छीन लेगा कि वह किसी के खिलाफ लड़ाई छेड़े या नहीं छेड़े। अमरीकियों से स्वतंत्र रुख अपनाने तथा यूरोप में शांति को आगे ले जाने की ही इच्छा से विली ब्रांट ने, जर्मनी का चांसलर रहते हुए, ऑस्टोपोलीटीक के जरिए, पूर्वी-यूरोप के लिए दरवाजे खोले थे।
यूरोपीय नेताओं की वर्तमानी पीढ़ी में स्वतंत्रता के इस अभाव की तरह-तरह से व्याख्याएं की जाती हैं। जहां कुछ व्याख्याओं में इसके लिए इन नेताओं के मीडियोकरपने को ही जिम्मेदार माना जाता है, जबकि कुछ अन्य व्याख्याओं में इसके लिए इन नेताओं और युद्ध से सीधे-सीधे फायदा बटोरने वाली गतिविधियों से जुड़े कारपोरेटों, जैसे शस्त्र निर्माताओं, जिनमें अमरीकी कारपोरेट खिलाड़ी भी शामिल हैं, के बीच गठजोड़ को जिम्मेदार माना जाता है। मिसाल के तौर पर जर्मनी में इस समय जो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, उस सीडीयू पार्टी का नेता फ्रेडरिक मर्ज, अमरीकी भीमकाय वित्तीय कंपनी, ब्लैक रॉक का कर्मचारी रहा है। याद रहे कि जर्मनी की पिछली चांसलर, ऐंजेला मार्केल भी इसी पार्टी से थीं। बहरहाल, चाहे जो भी कारण हो, हम आज यूरोप में ऐसे हालात देख रहे हैं, जो पहले विश्व युद्ध की पूर्व-संध्या के यूरोप के हालात ही याद दिलाते हैं। आज की ही तरह उस समय पर भी, ऐसी सरकारों ने जो आम जनता से पूरी तरह से कटी हुई थीं, जनता से ऐसी कुर्बानियां देने के लिए कहा था, जिनकी जनता की नजर से कोई तुक ही नहीं बनती थी।
यूरोप के विकल्प: साम्राज्यवाद से स्वतंत्र रुख या तबाही
एकध्रुवीय दुनिया को बनाए रखने की आकांक्षा ही है जो, रूस के साथ इस नव-अनुदारपंथ प्रेरित टकराव के पीछे है और जो यूक्रेन के साथ रूस के टकराव के बातचीत से हल होने को रोक रही है। फ्रांस तथा जर्मनी द्वारा समर्थित मिंस्क समझौते ने इस तरह के समाधान का आधार मुहैया कराया था। लेकिन, ब्रिटेन तथा अमरीका ने उसमें पलीता लगा दिया। बहुत से लोग, जिनमें ऑस्कर लॉ फांटेन भी शामिल हैं, यह मानते हैं कि मिंस्क समझौता अब भी बातचीत के जरिए समाधान का आधार मुहैया करा सकता है। युद्ध विराम तथा उसके बाद उक्त दिशा में बातचीत से अब भी सत्यानाश से बचा सकता है। लेकिन, अमरीका तो अब भी रूस में सत्ता परिवर्तन कराने के ही सपने देख रहा है। उसे लगता है कि अगर लड़ाई लंबी खिंचती जाएगी तो, खुद पूतिन के नजदीकियों के बीच से, उसके खिलाफ अंदरूनी विद्रोह हो सकता है, जाहिर है कि इसके लिए ‘बाहर से’ उकसावा मुहैया कराने में अमरीका अपनी ओर से कोई कोताही नहीं बरतने वाला है। इसलिए, जितनी जल्दी यूरोप, अमरीका से स्वतंत्र रुख अपनाएगा और बातचीत के जरिए समझौते के लिए प्रयास करेगा, उतना ही सभी प्रभावित होने वालों के लिए अच्छा रहेगा।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।