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अमेरिका के फायदे से ज्यादा जरूरी है भारत में राशन की दुकानों के सहारे जीने वाले लोगों की चिंता!

सरकारी मंडिया खत्म होंगी तो भारत की बहुत बड़ी आबादी भूख की कगार पर पहुंच जाएगी। इसलिए अमेरिका से निकले तर्कों की बजाए भारत की जमीनी हकीकत ध्यान देने की जरूरत ह
भारत में राशन की दुकानों के सहारे जीने वाले लोगों की चिंता!
Image Courtesy: Patrika

राशन की दुकानों पर ₹3,₹2 और एक रुपए में राशन खरीद कर जिंदगी काटते बहुतेरे लोगों को आपने जरूर देखा होगा। इतने सस्ते में अनाज मिलने की वजह से इनके दो जून के खाने का जुगाड़ हो पाता है। इसके पीछे बड़ी वजह है - साल 2013 में बना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून। जहां पर सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह सबसे गरीब लोगों तक सस्ता अनाज पहुंचाएं। उन्हें भूख से मरने के लिए ना छोड़ दे।

इसलिए जब तीन नए कृषि कानूनों की वजह से  सरकारी मंडियां ढहती चली जाएंगी तो आने वाले दिनों में सबसे बड़ा झटका राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा नीति के तहत गरीबों को मिलने वाले जीवन पर पड़ने वाला है। देश में जरूरत से कम सरकारी मंडियां होने के बावजूद भी सरकारी मंडियों की वजह से सरकार किसानों से अनाज खरीदती है। और इस अनाज का बहुत बड़ा हिस्सा पब्लिक डिसटीब्यूशन सिस्टम के जरिए गरीब लोगों तक पहुंचाया जाता है।

अंग्रेजी की फ्रंटलाइन पत्रिका में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर विश्वजीत धर लिखते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए सरकारी खरीद की वजह से तीन फायदे होते हैं - पहला, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की वजह से अपनी उपज की ठीक-ठाक कीमत मिल जाती है। दूसरा, अगर कृषि बाजार में बहुत अधिक उतार आए यानी कृषि उपज की कीमत कम हो जाए तो सरकारी मंडियों में एमएसपी मिलने की वजह से बाजार के उतार से किसानों को बचा लिया जाता है और तीसरा की पब्लिक डिसटीब्यूशन सिस्टम के जरिए गरीब लोगों तक सस्ता अनाज पहुंचा दिया जाता है. इस लिहाज इसमें बहुत अधिक दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है कि अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए सरकारी खरीद और सरकारी मंडियां खत्म हो जाए तो पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम का ढांचा अपने आप ढह जाएगा।

कहने का मतलब यह है कि इन तीन नए कृषि कानूनों की वजह से भारत के खाद्य सुरक्षा पर बहुत गंभीर असर पड़ते दिख रहा है। अगर यह कानून वापस नहीं लिए गए तो भारत की बहुत बड़ी आबादी भूख का शिकार बन जाएगी। 

कुछ तर्कों के सहारे जैसे ही यह निष्कर्ष दिया जाता है वैसे ही इन तीन नए कानूनों के समर्थकों के जरिए यह सवाल उठता है कि फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया यानी भारत खाद्य निगम के गोदामों में बहुत अधिक अनाज पड़ा हुआ है। इसलिए अब कोई भूख से नहीं मरने वाला। 

बहुत अधिक अनाज के भंडार से जुड़े ऐसे सभी सवालों का जवाब वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने न्यूज़ क्लिक के एक आर्टिकल में बड़ी बारीक तौर पर दिया है। प्रभात पटनायक लिखते हैं कि इस बात से इंकार नहीं है कि इस समय भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पास बड़े पैमाने पर खाद्यान्न भंडार हैं और यह पिछले कई सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था की एक नियमित विशेषता बन गयी है। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना कि भारत अपनी ज़रूरतों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न से कहीं ज़्यादा उत्पादन करता है, अव्वल दर्जे की नासमझी होगी।

जो देश साल 2020 में 107 देशों के लिए तैयार किये गये विश्व भूख सूचकांक (world hunger index) के 94 वें पायदान पर है, अगर इसके पास अनाज का बहुत बड़ा स्टॉक है, तब भी उसे खाद्यान्न में आत्मनिर्भर नहीं कहा जा सकता है। यह कोई मनमाने तरीक़े से निकाला गया निष्कर्ष नहीं है। जब भी लोगों की सामानों और सेवाओं को खरीदने की हैसियत में बढ़ोतरी होती है यानी लोगों की परचेसिंग पावर कैपिसिटी बढ़ती है तभी जाकर किसी तरह की स्टॉक में कमी आती है। अगर एफसीआई के गोदामों में अनाज का स्टॉक हर साल बढ़ रहा है लेकिन  लोगों और बच्चों तक सही पोषण नहीं पहुंच रहा है तो इसका मतलब यह है कि लोगों की परचेसिंग पावर कैपेसिटी बहुत कम है। वह अपने लिए इतना भी नहीं कर पा रहे कि अपनी भूख को ठीक ढंग से मिटा सकें। इसलिए जरूरत एफसीआई के गोदामों में अनाज कम करने की नहीं बल्कि लोगों के हाथ तक रोजगार पहुंचाने और उनकी परचेसिंग पावर कैपेसिटी बढ़ाने की है।

लेकिन अधिक अनाज उत्पादन से जुड़ा मामला केवल इतना ही नहीं है। आजकल बहुत सारे विशेषज्ञों की अखबारों में यह राय भी छप रही है कि भारत में कुछ फसलों जैसे गेहूं, धान का उत्पादन बहुत अधिक होता है लेकिन दूसरे फसलों का बहुत कम। इन कृषि कानूनों से फसलों के उत्पादन में डायवर्सिफिकेशन यानी विविधता आएगी। अब इस तर्क पद्धति में दो बातें छिपी हुई है। पहला यह कि यह तर्क बनता कहां से है? और दूसरा यह कि यह तर्क बना क्यों हैं?

पहला सवाल कि ऐसा तर्क बनता कहां से है? इसका बहुत ही माकूल जवाब अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक देते हैं कि भारतीय बुद्धिजीवियों में साम्राज्यवादी पूंजीवाद के उन स्वयंसेवी तर्कों को गटक लेने की एक अविश्वसनीय प्रवृत्ति रही है,जिन तर्कों के आधार पर आमतौर पर उनका 'आर्थिक पांडित्य' बना होता है। यह पांडित्य किसी और क्षेत्र के मुक़ाबले भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में कहीं ज़्यादा नज़र आता है।

यानी यह तर्क कि भारत को गेहूं, धान जैसी फसलो की पैदावार छोड़कर दूसरे फसलों की तरफ ध्यान देना चाहिए, जैसे तर्क साम्राज्यवादी पूंजीवाद के मंसूबों से जुड़ते हैं। ऐसे तर्कों का मकसद दुनिया के दूसरे मुल्कों को विकसित देशों के फायदे के अनुकूल माहौल बनाने से जुड़ा होता है और यह तर्क यहीं से आते हैं। 

अब बात करते हैं कि ऐसा तर्क क्यों दिया जा रहा है? तो सबसे जरूरी बात यह है कि ऐसे तर्क केवल अभी नहीं दिए जा रहे हैं। बल्कि यह तर्क पिछले तीन दशकों से कृषि से जुड़े संपादकीय पन्नों का हिस्सा बने हुए हैं।

दुनिया की जमीन पर भारत ऐसे जगह पर स्थित है, जहां की जलवायु की वजह से भारत में कई तरह के फसल होने की संभावना बनी रहती है। इसलिए भारत तीन मौसमों में खरीफ, रबी और जायद की फसलें भी होती हैं। लेकिन यह सहूलियत उत्तर के औद्योगिक  ठंडे देशों को नहीं। या यह कह लीजिए कि दुनिया के उत्तर में बसे तथाकथित विकसित देश जैसे अमेरिका, कनाडा, यूरोपीय संघ से जुड़े देश भारत जैसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में होने वाली फसलों को नहीं उगा पाते । 

अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक द हिंदू अखबार में लिखती है कि दुनिया के उत्तर में बसे औद्योगिक देश जैसे अमेरिका कनाडा और यूरोपियन यूनियन में उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु में होने वाली खाद्यान्नों की बड़ी मांग है। वजह यह है कि उत्तर के औद्योगिक देशों में जलवायु के कारण मुश्किल से एक मौसमी खेती होती है और डेयरी उत्पादों का उत्पादन होता है। तकरीबन दो-तीन दशकों से इनकी चाह रही है कि भारत जैसा देश अपनी अनाजों की सरकारी खरीद बंद कर दें। इनके यहां अधिशेष पड़ा हुआ अनाज भारत जैसे देश में बिके। और भारत में वैसे खाद्यान्नों का उत्पादन हो जिनकी मांग औद्योगिक देशों में बहुत अधिक है। एक तरह से समझ लीजिए तो यह कोशिश भारत की अर्थव्यवस्था को फिर से उपनिवेश की तरह इस्तेमाल करने जैसी है। इसी तर्ज पर डब्ल्यूटीओ की नीतियां भी बनती हैं।

1990 के दशक के दौरान फिलीपींस बोत्सवान जैसे दर्जनों देश अपनी खाद्यान्न नीति अमेरिका के अनुसार ढालने की वजह से पूरी तरह से अमेरिकी अनाजों पर निर्भर हो गए। और एक वक्त ऐसा आया कि दुनिया की तकरीबन 37 देशों में खाद्यान्न को लेकर साल 2007 के दौरान खूब दंगे हुए। इन देशों के शहर गरीबी के केंद्र बन गए।

इन तर्कों से साफ है कि भारत जैसे विकासशील देश में सरकार के जरिए खाद्यान्न प्रबंधन की जरूरत है। इसे पूरी तरह से बाजार के रहमों करम पर छोड़ देना कहीं से भी उचित नहीं है। पंजाब और हरियाणा में जिस तरह से दूसरे देशों की कुछ कंपनियों ने किसानों से कॉन्ट्रैक्ट खेती की, कई रिसर्च पेपरों में इस खेती से भी निष्कर्ष निकला है कि यहां किसानों का शोषण ही हुआ है। कंपनियों ने कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर फसल की क्वालिटी ना होने पर किसानों को सही कीमत नहीं दिए। यानी बाजार हर तरह से अभी तक असफल रहा है।

भारत जैसे देश में जहां एक किसान को साल भर में सरकार की तरफ से महज ₹20 हजार रुपए की सरकारी मदद मिलती है और अमेरिका जैसे देश में जहां एक किसान को साल भर में सरकार की तरफ से तकरीबन 45 लाख रुपए की सरकारी मदद मिलती है। इन दोनों के बीच इतना अधिक अंतर है कि भारत में कृषि बाजार को पूरी तरह से बाजार के हवाले कर देने का मतलब कृषि बाजार को बर्बाद करने जैसा होगा।

इसके साथ भारत में तकरीबन 86% आबादी की अब भी मासिक आमदनी ₹10 हजार से कम की है। इसे अपना पेट भरने के लिए सरकार की राशन की दुकान की बहुत जरूरत है। राशन की दुकानों में राशन रहे इसके लिए जरूरी है कि सरकार विकसित देशों द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम की बजाए भारत की हकीकत को ज्यादा तवज्जो दें।

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