पीएम फसल बीमा योजना के तहत क्लेम लेने से वंचित चूरू के किसान
रामकरन चौधरी अपनी पिछली साल ही बर्बाद फसल का बीमा प्राप्त करने के लिए दर-दर भटकने के बाद अपनी खोज को समाप्त करने या न्याय पाने के लिए अदालत जाने को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं।
चौधरी जो कि राजस्थान के चुरू जिले में एक किसान हैं वे अपनी चने की फसल को हुए भारी नुकसान से परेशान हैं, लेकिन उनकी तत्काल चिंता इंश्योरेंस क्लेम प्राप्त करने को लेकर है।
उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “मैंने पिछले साल 5.5 हेक्टेयर के क्षेत्र में चना बोया था और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत 1,800 रुपये का प्रीमियम भी चुकाया था। हालांकि, एक बैंक कर्मचारी की क्लेरिकल मिस्टेक के कारण मेरे क्लेम को खारिज कर दिया गया था।"
वह आगे कहते हैं,“मेरे पास 5.5 हेक्टेयर वाले खेती के 2 प्लॉट हैं। बैंक ने दोनों प्लॉटों का प्रीमियम काट लिया था, लेकिन कागज़ों में इसे एक ही प्लॉट के रूप में दर्ज कर दिया। बीमा कंपनी ने यह कहते हुए क्लेम को खारिज कर दिया कि क्लेम की गई राशि प्लॉट के आकार से अधिक है।"
चौधरी ने जब कृषि विभाग से इस त्रुटि को दूर करने को कहा तो उन्हें बताया गया कि बैंक की ओर से दोनों प्लॉटों का उल्लेख नहीं किया गया है। "इसमें मेरी क्या गलती है? वे मेरे खाते से प्रीमियम काट रहे हैं, लेकिन जब मुझे इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है तब कोई राहत नहीं दे रहे हैं।”
चौधरी का तर्क है कि वह एक कर्ज़दार किसान हैं, जिसने किसान क्रेडिट कार्ड का लाभ उठाया है और उसे किसानों के लिए केंद्रीय बीमा योजना की प्रीमियम का भुगतान करना होगा, भले ही वह इसमें नामांकन नहीं करना चाहते हों।
योजना की वेबसाइट पर लिखे दिशा-निर्देशों के अनुसार, " वे सभी किसान जिन्हें अधिसूचित फसलों के लिए वित्तीय संस्थानों के द्वारा मौसमी कृषि संचालन कर्ज़ (शार्ट टर्म) मंज़ूर हो चुका है वे सभी योजना के तहत अनिवार्य रूप से कवर किये जाएंगे।“
बीमा कंपनियों द्वारा फसल नुकसान का आंकलन करने में की जा रही ''मनमानी'' से भी चौधरी भड़के हुए हैं।
"बीमा कंपनी खेतों का सर्वेक्षण करते समय हमारी राय तक नहीं लेती हैं। पड़ोसी गांव नकासरा में भारी फसल बर्बाद होने के बाद एक भी परिवार के पास चने का एक दाना नहीं था, इसके बावजूद ''शून्य क्षति'' के हवाले के तहत उन्हें बीमा कंपनियों से कोई राहत नहीं मिली," उन्होंने आरोप लगाया कि वह "उनके मूल्यांकन मापदंडों को नहीं समझते हैं।"
चौधरी कहते हैं, "योजना के पिछले संस्करण में नुकसान का आंकलन मौसम विभाग द्वारा प्रस्तुत नमी और बारिश के आंकड़ों के आधार पर किया जाता था। यदि तापमान 0 डिग्री सेल्सियस होता था, तो फसल को पूरी तरह से नष्ट माना गया जाता था और इंश्योरेंस क्लेम को विधिवत जारी किया जाता था।
वे कहते हैं, "अब ये पूरी तरह से एक अव्यवस्था बन चुकी है।" "अगर बीमा कंपनियों को 100 किसानों से प्रीमियम मिलता है, तो वे केवल एक छोटे स्तर पर क्लेम देते हैं और इस तरह उनका मुनाफा बढ़ रहा है।"
भाजपा के राज्यसभा सदस्य और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी द्वारा पिछले साल पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, बीमा कंपनियों ने 2016-2017 से 2021-2022 तक 40,000 करोड़ रुपये से अधिक का मुनाफा कमाया। आंकड़ें बताते हैं कि कम्पनियों ने 15,9,132 करोड़ रुपये की जमा प्रीमियम के मुकाबले 11,9,314 करोड़ रुपये के क्लेम का भुगतान किया।
इस विषमता का सामना करने वाले राजगढ़ तहसील, चुरू के एक किसान सुनील पुनिया बताते हैं कि राज्य के अधिकारियों ने मनमाने ढंग से नुकसान की मूल्यांकन पद्धति को बदल दिया और फसल काटने की विधि से सेटेलाइट इमेजरी प्रणाली पर स्विच किया।
निराश पुनिया न्यूज़क्लिक को बताते हैं, "फसल नुकसान का आंकलन करने में पूरी मनमानी की जा रही है। किसान हमेशा घाटे में ही रहते हैं। जब फसल का नुकसान 90 फीसदी था, तो इसे महज़ 25 फीसदी दिखाया गया था। राजस्थान में 2021 की खरीफ सीजन के लिए पीएम फसल बीमा योजना के दिशानिर्देशों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था कि नुकसान का आंकलन करने के लिए फसल काटने की विधि का उपयोग किया जाना चाहिए। फिर भी राज्य के अधिकारियों ने सैटेलाइट इमेजरी का इस्तेमाल किया।
पुनिया के अनुसार, फसल काटने की विधि में, कृषि पर्यवेक्षक, पटवारी और बीमा कंपनी के अन्य अधिकारियों के साथ मिलकर 5X5 मीटर की पैच से फसल के नमूने लेते हैं और यह आंकलन करने के लिए उसे तौलते हैं कि उत्पादन तय मापदंड से कम है या नहीं। इसके बाद, एक आनुपातिक राहत जारी की जाती है।
उनका तर्क है कि "सैटेलाइट इमेजरी इसमें पूरी तरह से असफल होती है।" “मेरी फसल बारिश में भले ही बाहर से अच्छी दिख रही हो लेकिन अंदर से वह खराब हो चुकी है। बीमा एजेंट हमें ऐसी तस्वीरें दिखाएगा कि फसल बेहद शानदार थी लेकिन हम जानते हैं कि यह बर्बाद हो गई है।"
उन्होंने आरोप लगाया कि जब बीमा कंपनियों ने जिला स्तरीय निगरानी समिति के बजाय राज्य तकनीकी समिति से संपर्क किया तो किसानों को सुनने से भी मना कर दिया गया।
पुनिया आगे आरोप लगाते हैं, "कोई भी किसान यह देखने के लिए जयपुर नहीं जा सकता है कि बीमा कंपनी द्वारा उसका क्लेम विवादित है या नहीं। जब विरोध में एक दिन से अधिक समय तक राष्ट्रीय राजमार्ग को अवरुद्ध किया गया, तो जिला प्रशासन ने हमें सूचित किया कि केंद्रीय अधिकारियों ने अनियमितताओं पर ध्यान दिया है और राज्य सरकार से उन्हें सुधारने के लिए कहा है, लेकिन हमें कोई राहत नहीं मिली है।"
अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) के अध्यक्ष अशोक धवले का आरोप है कि बीमा योजना "नरेंद्र मोदी सरकार का सबसे बड़ा तमाशा" है और " इसका अंतिम उद्देश्य कॉर्पोरेट लाभ है।"
इसे तमाशा कहने का एक कारण है। हमने देखा है कि कैसे बीमा कंपनियां दावों का भुगतान करने की अपनी जिम्मेदारी से भागती हैं,” उन्होंने अक्टूबर 2020 में महाराष्ट्र के बीड जिले में बाढ़ के दौरान फसल खो चुके किसानों द्वारा बीमा का दावा किए जाने पर उनकी प्रतिक्रिया का जिक्र करते हुए आरोप लगाया।
उन्हीने आरोप लगाया, “जब अखिल भारतीय किसान सभा से जुड़े किसानों ने क्लेम के संबंध में एक बीमा कंपनी से संपर्क किया, तो उन्हें बताया गया कि वे क्लेम के योग्य नहीं हैं क्योंकि नुकसान की सूचना 72 घंटों के भीतर दी जानी चाहिए थी।"
धवले आगे आरोप लगाते हैं कि, "किसानों ने कहा कि सभी सड़कों पर पानी भर गया था और उन्होंने यह भी पाया कि बीमा कंपनी का कार्यालय भी जलमग्न और बन्द था। जब हमारी दलीलों को खारिज कर दिया गया, तो हमने क्लेम के लिए संघर्ष शुरू किया और राज्य के कृषि सचिव और मंत्री से मुलाकात कर उन्हें अपनी परेशानी से अवगत कराया। उनका कहना था कि अगर बीमा कंपनी क्लेम का भुगतान नहीं करती है तो राज्य सरकार अपना हिस्सा नहीं देगी। उन्हें दो साल बाद अपने क्लेम प्राप्त हुए,” धवले आगे आरोप लगाते हैं।
धवले कहते हैं कि सरकार को ऑनसाइट मूल्यांकन के ज़रिए योजना में मौजूद खामियों को दूर करना चाहिए।
वह सुझाव देते हैं, “बीमा कंपनियां किसानों को उनके दावों से वंचित करने के लिए रिमोट सेंसिंग जैसी रणनीति अपना रही हैं। वास्तविक समय के नुकसान का आंकलन करने के लिए एक ऑनसाइट निरीक्षण होना चाहिए।"
“दूसरा, कंपनियां गांवों के एक बड़े समूह से नमूने लेती हैं। मान लीजिए कि कुछ गाँव सूखे की चपेट में हैं जबकि अन्य पूरी तरह से ठीक हैं। अब, बीमा कंपनी अप्रभावित गाँवों को इस तरह से प्रदर्शित करने के लिए चुन सकती है कि कोई फसल क्षति/हानि नहीं हुई थी। इसलिए आंकलन की इकाई गांव की तरह छोटी होनी चाहिए।'
इस लेख को मूल रूप से पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें :
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।