ग्राउंड रिपोर्टः बनारस में जी-20 समिट के लिए रखी जा रही विध्वंस की बुनियाद, निशाने पर दलित, आदिवासी और ग़रीब
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के बनारस में विकास की ऐसी परिभाषा गढ़ी है, जिससे दलित, आदिवासी और गरीब सिरे से गायब होते जा हैं। बनारस को स्मार्ट बनाने के नाम पर दशकों से बसे गरीब परिवारों को पहले खिड़किया घाट से उजाड़ दिया गया और अब इससे सटी किला कोहना बस्ती को जी-20 के नाम पर उजाड़ने की तैयारी है।
किला कोहना बस्ती को खाली करने के लिए उत्तर रेलवे ने बिना किसी दस्तखत वाला एक हुक्मनामा जारी किया है। इस बस्ती में दशकों से रहने वाले लोगों के घरों पर यह हुक्मनामा गुपचुप तरीके से चस्पा कराया गया है। नोटिस में साफ-साफ कहा है कि उनकी समूची बस्ती अवैध है। घरों को खाली नहीं करने पर बुल्डोजर से ध्वस्तीकरण की कार्रवाई की जाएगी। किला कोहना बस्ती में करीब 450 से अधिक बेबस और लाचार जिंदगियां रहती हैं। उत्तर रेलवे की नोटिस मिलने के बाद बस्ती में रहने वालों के चेहरे पर सख्त उदासी और मोदी सरकार से गहरी नाराजगी है। जी-20 की चमक-दमक में दलितों, आदिवासियों और गरीबों की खुर्द-बुर्द होती जिंदगी से न किसी को मतलब है, न किसी को कोई मलाल।
उत्तर रेलवे का नोटिस
राजघाट स्थित किला कोहना बस्ती में रेल प्रशासन ने 09 अप्रैल 2023 को बेदखली की नोटिस चस्पा कराई है। तभी से पीड़ितों की नींद उड़ी है। इसी बस्ती में 32 वर्षीया कोमल परचून की दुकान चलाती हैं। वह कहती हैं, "सबसे पहले हमारे घर पर हुक्मनाम चस्पा किया गया। यह सिर्फ नोटिस भर नहीं, हमारी बर्बादी, तबाही और लाचार जिंदगी का परवाना है। हमारे पास नगर निगम का पीला कार्ड (दाखिल खारिज का अभिलेख) है। हम सालों से हाउस टैक्स और वाटर टैक्स की अदायगी भी करते आ रहे हैं। हमारे पास बिजली का बिल, आधार कार्ड सब कुछ है। योगी सरकार कहती है कि गरीबों को बसाने से पहले उजाड़ा नहीं जाएगा, लेकिन उनकी कथनी-करनी पर भला कौन एतबार करेगा? करीब ढाई साल पहले समीपवर्ती खिड़किया घाट पर सौ से अधिक उन गरीब परिवारों को एक झटके में उजाड़ दिया गया था। पहले जो खिड़किया घाट था, वह अब नमो घाट है। जी-20 की आड़ में अब हमें उजाड़ने की तैयारी है। आखिर हम कहां जाएंगे? "
उत्तर रेलवे का हुक्मनाम दिखाती कोमल
वाराणसी जिला मुख्यालय से करीब आठ किमी दूर है राजघाट पुल और इसके पश्चिमी छोर पर सर्व सेवा संस्थान के ठीक सामने है किला कोहना बस्ती। यह बस्ती नगर निगम के वार्ड नंबर पांच में आती है। किला कोहना बस्ती एक बड़े से बाड़े की तरह नजर आती है। बस्ती में भैंस का तबेला और घरों के बाहर पाली गई भेड़-बकरियों का जखीड़ा एक सियाह धब्बे की मनिंद नजर आता है। आधे-अधूरे कच्चे मकान और झुग्गी-झोपड़ियां इस बस्ती की दर्दनाक जिंदगियों का लेखा-जोखा पेश करती हैं। सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से आखिरी पायदान पर खड़े लोग यहां अपनी जिंदगी की गाड़ी सिर्फ घिसटते हुए चला रहे हैं। किला कोहना बस्ती में एक कब्रिस्तान भी है, जिससे सटे हुए कई घर हैं। तमाम फटेहाल जिंदगियां दशकों से इस कब्रिस्तान के इर्द-गिर्द पल रही हैं। यहां खाली मैदान में कबाड़ इकट्ठा करने का स्थान भी है, जिसके बगल में एक भट्ठी भी चलती है जिसमें दर्जनों श्रमिक बियर के कैन को गलाने का काम करते हैं। अवैध तरीके से संचालित इस भट्ठी में श्रमिकों की जिंदगी भी धुआं-धुआं नजर आती है।
किला कोहना बस्ती के कब्रिस्तान में भी रहते हैं लोग
किला कोहना बस्ती की ज्यादातर औरतें अपने घरों में हाथ में ब्रश लेकर कपड़ों पर पुली (रेशा) लगाने का काम करती नजर आती हैं। नियोक्ताओं ने इन औरतों की मजदूरी, दाम और मुनाफ़े की जो व्यवस्था तय की है वह न्यूनतम मजदूरी का ज्यादातर हिस्सा हड़प लेने वाली है। गैर-संगठित महिला श्रमिक इनकी सबसे आसान शिकार हैं। इस बस्ती में भीषण गंदगी, खुली नालियां, घर के सामने बहता मल-जल, सूखे हैंडपंप व नल तत्काल दिखने वाली चीजें हैं। यकीनन मजदूरों की हर बस्ती में ऐसे ही दृश्य दिखते हैं। वह ऐसे माहौल में रहते ही हैं जहां सफाई और स्वास्थ्य उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। गंदगी में रहना उनकी मजबूरी होती है। राजघाट की जिस बस्ती को उत्तर रेलवे अवैध बता रहा है वहां कई लोगों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर भी मिले हैं। बड़ा सवाल यह है कि जिस बस्ती में सालों पुराना कब्रिस्तान हो, सदियों पुराना किला हो वह जमीन रेलवे की कैसे हो सकती है? उत्तर रेलवे ने बस्ती में जो हुक्मनाम चस्पा कराया है उस पर किसी अफसर का दस्तखत और मुहर क्यों नहीं है? नोटिस गुपचुप तरीके से क्यों चस्पा कराई गई? आखिर कौन सी वजह है कि रेलवे के अधिकारी इस मुद्दे पर जुबान खोलने के लिए तैयार नहीं है?
बनारस जिला मुख्यालय पर ज्ञापन देने पहुंची किला कोहना बस्ती की महिलाएं
बस्ती उजाड़ने की धमकी
किला कोहना बस्ती के दलित दीपू की पत्नी दीपिका कहती हैं, "हम बीजेपी के समर्थक रहे हैं। फिर भी हमारी मुश्किलों से बीजेपी नेताओं को कोई सरोकार नहीं है। नगर निगम का चुनाव सिर पर है। इसलिए कुछ समय के लिए हमारे पास मोहलत है और हम कोई दूसरा ठौर तलाश लें। सभासदी के चुनाव के बाद बुल्डोजर कब आ धमकेगा, कहा नहीं जा सकता? हम तो खौफ में जी रहे हैं। हमारी कई पीढ़ियां इसी बस्ती में खप गईं और रेल महकमा हमारे घरों पर गुपचुप तरीके से नोटिस चस्पा कर अपना हक जता रहा है। चार-पांच दशक पहले यह इलाका उजाड़खंड हुआ करता था तब हमारे परिवार वालों ने किला कोहना में झोपड़ी डाली थी। पैसे जोड़कर किसी तरह घर बनवाया और अब हमें उजाड़ने की धमकी दी जा रही है।"
43 वर्षीय मनीष केसरी का नौ लोगों का परिवार है। पिछले पांच दशक से किला कोहना बस्ती में रह रहे हैं। दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए खासी जद्दोजहद करनी पड़ती है। मनीष कहते हैं, "हमारी तीसरी पीढ़ी यहां रह रही है। ट्रकों का सजावटी समान बेचते हैं। अब तो धंधा भी मंदा हो गया है, क्योंकि सरकार ने इस इलाके में बड़े वाहनों के लिए नो इंट्री लगा रखी है। गाड़ियों की आवाजाही बंद हुई तो हमारा धंधा भी बैठ गया।" मनीष के बगल में गोपाल गुप्ता की दुकान है। शाम तक ग्राहकों की बाट जोहते रहे, लेकिन बोहनी तक नहीं हुई। दुकान में खाली बैठे थे, सो दुकान पर ही उन्हें नींद आ गई। गोपाल कहते हैं, "उत्तर रेलवे की नोटिस से पूरी बस्ती में हलचल है। सबके सामने सिर्फ एक ही सवाल है कि उजाड़ दिए जाएंगे तो कहां जाएंगे? सरकार को हर तरह का टैक्स दे रहे हैं तो ये जुल्म-ज्यादती हम लोगों के साथ क्यों की जा रही है? "
किला कोहना बस्ती में बालेश्वर प्रसाद गोंड के पुत्र उपेंद्र की चाय-पान की दुकान है। मुलाकात हुई तो उनका दर्द जुबां पर आ गया। वह कहते हैं, "हम चालीस साल से यहां रह रहे हैं और अब हमें यहां से खदेड़ने का फरमान आया है।" कुछ ऐसी की व्यथा अजय कुमार गोंड की है। वह कर्नाटक मजूरी करते हैं तब परिवार का पेट भर पाता है। अजय कहते हैं, "हमें उजाड़ दिया जाएगा तो कोई ठिकाना नहीं रह जाएगा। अगर हम अवैध हैं तो पानी की टंकी भी तो अवैध है।" स्टीकर बनाने का काम करने वाले सत्तन कहते हैं, "मकान बनाते समय हमसे किसी ने कुछ नहीं कहा। बिजली का बिल, हाउस टैक्स की रसीदें ही नहीं, जमीन के दाखिल खारिज के अभिलेखों के अलावा आधार कार्ड से लेकर राशन कार्ड तक मौजूद है। आखिर हम जाएं तो कहां जाएं? "
नगर पालिका की चुंगी भवन में उदास बैठे अजय गोंड
पहले यहां था चुंगी दफ्तर
राजघाट की किला कोहना बस्ती में पहले नगर निगम की चुंगी हुआ करती थी। चुंगी दफ्तर आज भी जीर्ण हाल में मौजूद है। यह वही दफ्तर है जहां टैक्स जमा कराया जाता था। 02 अक्टूबर 1974 को इस भवन का उद्घाटन तत्कालीन आईएएस अफसर बालकृष्ण टंडन ने किया था। वो उस समय बनारस नगर पालिका के प्रशासक हुआ करते थे। खाने-पीने के सामान का ठेला लगाने वाले विजय गोंड कहते हैं, "चुंगी खत्म हो गई तो उसके बरामदे में कोई भी सो लेता है। सरकार पहले यह बताए कि हमें उजाड़ने से उसे क्या मिलेगा? नमो घाट की तरह इलाके की चमक-दमक जरूर बढ़ जाएगी, लेकिन हमारा तो नसीब ही फूट जाएगा। हमारे बच्चों के भूखे पेट के दर्द का इलाज आखिर कौन करेगा? बीजेपी के नेताओं को जैसे काठ मार गया है। इस बस्ती में उनके दर्शन तभी होते हैं, जब चुनाव आता है। हमें लगता है कि निकाय चुनाव बाद हमसे हमारे आशियानें छिन जाएंगे।"
60 वर्षीय मो.फारुख मजूरी करते हैं और किसी तरह से अपने बच्चों का पेट पालते हैं। बिजली-पानी का बिल अदा करते हैं। हाउस टैक्स तक देते हैं। मीना के पति बन्ने खां बेरोजगार हैं। बेटे अयान एक दुकान पर चाकरी करता है। रिजवाना लोगों के घरों में झाड़ू बर्तन कर अपने बेरोजगार पति और दो बच्चों को पालती हैं। शाहजहां की चार बेटियों के बाद पैदा हुए बेटे को पालने के लिए दिन-रात झाड़ू बर्तन के काम में जुटी रहती हैं। इनके पति पहले लूम पर काम करते थे और अब मंदी के चलते बेरोजगार हैं। नसीमा के पति दानिश ठेला चलाते हैं।
किला कोहना बस्ती की सबसे प्रखर महिला हैं 28 वर्षीय गुड़िया जो सर्व सेवा संघ में चलाई जाने वाली बालबाड़ी में बच्चों को पढ़ाती हैं। हाईस्कूल पास गुड़िया के पास ढेरों सपने हैं और वह बस्ती के बच्चों की जिंदगी बदल देना चाहती हैं, लेकिन बेदखली की नोटिस ने इन्हें बुरी तरह तोड़कर रख दिया है। वह कहती हैं, "हमारी बालवाड़ी ने किला कोहना के बस्ती के बच्चों की जिंदगी बदल दी है। जो बच्चे पहले गाली-गलौज किया करते थे, वो अब पढ़-लिखकर संस्कारवान बनते जा रहे हैं। हमें उजाड़ दिया जाए तो हमारी तरह तमाम औरतों के सपने चकनाचूर हो जाएंगे। बच्चों का भविष्य बर्बाद होगा सो अलग।"
टैंपो चालक जावेद की पत्नी सोनी की जिंदगी में कोई रंग नहीं है। वह कहती हैं, "हम यह सोचकर परेशान हैं कि आखिर कहां जाएंगे? हुजूर, कोई ठिकाना दिला दीजिए। हम वहां चले जाएंगे। हमें बेसहारा मत बनाइए। हमने कोई गुनाह नहीं किया है। जी-20 के चलते जिल्लत भरी जिंदगी के मुहाने पर ढकेलने की कोशिश की जाएगी तो मौत के अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचेगा।"
सड़क पर घूमकर अंगूठी बेचने वाले शफीउल्लाह कहते हैं, "समझ में नहीं आ रहा कि ये मोदी सरकार का विकास गरीबों को ही क्यों डंसता है? हम अपनी मेहनत का खाते हैं और किसी तरह से जिंदा हैं और सरकार हमारी जिंदगी भी छीनने पर उतारू है। उत्तर रेलवे के हुक्मनामे ने सोला यादव, कुसुम, राजदेई, सिमरन, पूजा समेत न जाने कितनी औरतों की जिंदगी को खुर्द-बुर्द करके रख दिया है। इन्हें कोई रास्ता नहीं दिख रहा है।"
नश्तर की तरह चुभता है इनका जख्म
किला कोहना बस्ती को उजाड़े जाने के फरमान से वहां के रहवासियों में जबर्दस्त दहशत है। किला कोहना बस्ती के समीपवर्ती खिड़किया घाट को हाईटेक बनाने के मोदी सरकार के एक फैसले के चलते करीब 250 लोगों को अक्टूबर से दिसंबर 2020 के बीच विस्थापित होना पड़ा था। इनमें ज्यादातर मल्लाह थे या फिर नाविक। विस्थापन का दर्द झेल रहे इन गरीबों के पास बारिश के दिनों में सिर छिपाने के लिए जगह नहीं है। कोई पुल-पुलिया के नीचे जीवन-यापन कर रहा है तो कोई खुले आसमान के नीचे। खिड़किया घाट पुनर्विकास परियोजना से जुड़े प्रचार अभियान और शोर-शराबे के बीच उन 250 से अधिक बेहद गरीब लोगों के घरों पर बुलडोज़र चलाने के बाद योगी सरकार उनकी सुधि लेना ही भूल गई। ये वो लोग थे जिनके पास जमीन के अभिलेख भले ही नहीं थे, लेकिन पिछले 60 सालों से ज्यादा समय से खिड़किया घाट के पास झोपड़पट्टी बनाकर रह रहे थे। इसी झोपड़पट्टी को उन्होंने अपना मुहल्ला और घर मान लिया था। यहां रहने वालों के राशन कार्ड भी बने थे और आधार कार्ड भी। विधवा महिलाएं और विकलांग लोग पेंशन भी पा रहे थे।
योगी सरकार ने खिड़किया घाट पर रहने वाले हर बाशिंदे को छत मुहैया कराने का वादा किया था, लेकिन पिछले तीन-चार सालों में बनारस की सरकार ने उनकी खोज-खबर नहीं ली। नतीजा, जबरिया उजाड़े जाने के बाद कुछ पास के किला कोहना बस्ती में आकर रहने लगे तो कुछ परिवार काशी रेलवे स्टेशन के नजदीक रेलवे पुल के नीचे जाकर विकास के लिए रखे गए पाइपों अथवा जहां-तहां पालीथीन डालकर बुरे हालात में रहना शुरू कर दिया। खिड़किया घाट की झोपड़पट्टी उजाड़े जाने के बाद 36 वर्षीय लल्लन चौरसिया को अब खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारना पड़ रहा है। वह कहते हैं, "हमारे सीने में दर्द तो बहुत है, लेकिन गरीबों का दर्द सिर्फ दर्द नहीं होता। हमारी उम्मीद और सपने तो तभी टूटकर बिखर गए थे जब हमारी झोपड़ी को बुल्डोजर रौंदता चला गया था। अब हम किसके पास जाएं दुहाई देने और भला हमारी सुनेगा कौन? "
काशी रेलवे स्टेशन की यह झोपड़पट्टी भी है नए विकास के निशाने पर
खिड़किया घाट से उजाड़े गए लोगों में 35 वर्षीय विधवा पारो भी हैं जो कोनिया इलाके में चौका-बर्तन करके अपनी दो बेटियों को पाल रही हैं। बजरडीहा के झोपड़पट्टी इलाके में एक कमरे का कच्चा मकान बारह सौ रुपये में किराये पर लेकर रह रही हैं। वह कहती हैं, "खिड़किया घाट से उजाड़े जाने के बाद हमारी विधवा पेंशन भी बंद कर दी गई। शायद सरकार ने मान लिया होगा कि कोरोना में हम भी मर-खप गए होंगे। पिछले कुछ सालों से कमाई का कोई साधन न होने या नाममात्र की कमाई होने के कारण मकान का किराया देना असंभव हो गया है। करीब 13 साल पहले हमारे पति अशोक साहनी की मौत हो गई थी। उसके बाद दो बेटियों को पालने की जिम्मेदारी भी हमारे ऊपर आ गई।"
राजघाट रेलवे पुल के समीप पालीथीन वाला अपना अस्थायी ठौर दिखाते हुए 52 वर्षीय शारदा साहनी कहती हैं, "हम सात दशक से खिड़किया घाट पर रह रहे थे। हमारे मां-बाप भी वहीं रहते थे। गंगा में नाव चलाने से लेकर मछली पकड़ने का काम करते थे। पहले ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी। बगैर सोचे-समझे सरकार ने हमें खिड़किया घाट से जबरन उजाड़ दिया। जब हमारी झोपड़ी पर बुल्डोजर चलाया जा रहा था, उस वक्त हम होश खो बैठे थे। हमारा सारा सामान झोपड़ी के साथ ही खत्म हो गया। हमें इतना समय भी नहीं दिया गया कि अपना जरूरी सामान निकाल सकें। बुलडोज़र चलना शुरू हुआ तो हमारे घरों को रौंदता चला गया।"
कोई यह तो बताए, हमें कहां जाना है
बनारस में हाई प्रोफाइल विजिट के दौरान हाशिए के लोगों को सड़कों से हटाने का चलन नया नहीं है। काशी में जब भी विदेशी मेहमान आते हैं तो गरीबों झुग्गियों को छिपाने के लिए तंबू कनात लगा दिए जाते हैं। जी-20 के भव्य आयोजन की तैयारियों के बीच शहर की मलिन बस्तियों में पालिथीन लगाकर डेरा डाले लोग इस बार भी डरे हुए हैं। इन्हें डर इस बात का है कि कहीं सरकारी मशीनरी पहले की तरह उन्हें खदेड़कर भगा न दे। राजघाट पर लाश ढोने वाले युवक राधे साहनी कहते हैं, "सरकार को हमारे जीवन और आजीविका की परवाह नहीं है। सरकारी मुलाजिम हमें हटा देना चाहते हैं, लेकिन कोई यह तो बताएं कि कहां जाना है? " काशी रेलवे स्टेशन के बाहर सालों से झुग्गियों में रहने वाली 40 वर्षीया मंजू देवी योगी सरकार के बुल्डोजर से डरी हुई हैं। सरकार ने इस रेलवे स्टेशन का कायाकल्प करने की योजना बनाई है। सब्जी बेचकर परिवार को पालने वाली मंजू कहती हैं, "हमें किसी दिन उजाड़ा जा सकता है। फिर हम कहां जाएंगे?"
किला कोहना बस्ती में कूड़े का पहाड़
किला कोहना में बेदखली की नोटिस मिलने के बाद बस्ती के बच्चों ने कुछ रोज पहले कलेक्ट्रेट पर पहुंचकर अफसरों से गुहार लगाई और उन्हें अर्जी भी दी। प्रशासन की ओर से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला है। सर्वे सेवा संघ में गरीबों के बच्चों के लिए बालबाड़ी चलाने वाले एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं कि खिड़किया घाट से विस्थापित परिवारों के पुनर्वास के लिए कोई इंतजाम नहीं हुआ और अब नौकरशाही ने दूसरी बस्ती को खाली करने के लिए हुक्मनामा जारी कर दिया है। सौरभ कहते हैं, "सरकारी महकमे के कुछ अफसर अब हमें भी बेइज्जत करते हैं। यहां तक कह देते हैं कि फटेहाल लोगों के लिए क्यों रोज चले आते हो। बनारस में पांच लाख लोग सड़क के किनारे रहते हैं। हर किसी को छत दे पाना संभव नहीं है। इतना ही नहीं, कुछ प्रशासनिक अफसर तो गरीबों की बस्तियों से दूर रहने की नसीहत देते हैं।"
बस्ती को उजड़ने से बचाने के लिए बच्चों ने प्रशासन को दी यह अर्जी
"सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन है कि किसी भी गरीबों को उजाड़े जाने से पहले उन्हें पुनर्वासित किया जाए। सिर्फ छत ही नहीं, उन्हें सभी जरूरी सुविधाएं भी मुहैया कराई जाएं। बनारस में गरीबों की सुनने वाला कोई नहीं है। हमें लगता है कि जिस तरह से खिड़किया घाट पुनर्विकास परियोजना की कीमत गरीबों को चुकानी पड़ी, वही हाल किला कोहना के लोगों का भी होगा। बुनियादी ढांचों की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर ही ध्यान देने की भाजपा की नीति ने गरीब तबके के एक बड़े हिस्से और उसकी रोजी-रोटी के मसले को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। मेहनत-मजदूरी कर कमाने-खाने वाले लोग, जिनकी आर्थिक स्थिति और बदतर ही हुई है, वह तो अपने जन प्रतिनिधियों के उदासीन रवैये से भी बेहद दुखी हैं।"
कोहना बस्ती में दफन है इतिहास
बनारस की बदहाल किला कोहना बस्ती के बीचो-बीच किला की दीवारें अब भी मौजूद हैं। इन दीवारों में लखौरी ईंटें साफ-साफ देखी जा सकती हैं। वो ईंटें जो राजाओं-महराजाओं के समय में बनाए जाने वाली इमारतों में लगा करती थीं। जिस बस्ती को उत्तर रेलवे अपनी बता रहा है उसके पास भले ही कोई अभिलेख मौजूद हों, लेकिन वहां रहने वाले लोगों के दावों को भी खारिज नहीं किया जा सकता है।
किला कोहना बस्ती में कचरे का ढेर
इतिहासकारों की मानें तो संवत 1907 वैशाख कृष्ण पंचमी की तिथि दिन-बुधवार, साल 1850 में राजघाट पर पीपों के बारूद में हुए विस्फोट से समूची काशी दहल गई थी। उस समय किला कोहना भी विस्फोट से उड़ गया और अंग्रेजों की कई कोठियां भी जमींदोज हो गई थीं। पूरा राजघाट क्षेत्र मलबे में तब्दील हो गया था। कई घाट, मंदिर, हवेलियां सब नष्ट हो गए और हजारों मकान हिल गए थे। अंग्रेज शासक मिस्टर स्माल और मिस्टर हुई की कोठियां ध्वस्त हो गई थीं। स्माल की मेम विस्फोट की आवाज से इतना ज्यादा डर गईं कि उसकी मौत हो गई। मिस्टर चार्ल्स नामक सौदागर का नया बंगला ध्वस्त हो गया।
काशी के इतिहास और धरोहरों पर शोध कर रहे बनारस बार के पूर्व महामंत्री नित्यानंद राय कहते हैं, "पौने दो सौ साल पहले राजघाट का किला सही सलामत था, जिस पर किले पर कब्जा था। उस समय डफरिन ब्रिज नहीं बना था। विस्फोट से अंग्रेजों का काफी नुकसान हुआ और ऐतिहासिक राजघाट का किला भी जमींदोज हो गया।"
छलावा है जी-20 समिट
बनारस में जी-20 समिट शुरू हो गया है और शहर में सड़कों के किनारे बसी उन इलाकों को हरा पर्दा और कनात लगाकर ढंका जा रहा है जहां गरीबों की बस्तियां हैं। सर्व सेवा संघ की बालबाड़ी में अनगढ़ बच्चों को जिंदगी की नई राह दिखाने वाली एक्टिविस्ट मीरा चौधरी कहती हैं, "जी-20 एक छलावे की तरह है। बनारस शहर को चकाचक दिखाने के लिए जिस तरह से शहर की कॉस्टमेटिक सर्जरी की जा रही है उसे ‘गरीबों को उजाड़ों अभियान’ नाम दिया जा सकता है। किसी तरह जीवन गुजार रहे लोगों की कहीं सुनवाई नहीं है। किसी को अपना पक्ष रखने का अवसर भी नहीं दिया जा रहा है। ठेला, गुमटी, पटरी, रेहड़ी लगाने वाले हजारों लोगों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा है। किला कोहना बस्ती में दशकों से रहने वाले मेहनकश गरीबों के पास कोई दूसरा ठिकाना नहीं है। सरकारी मशीनरी इस तबके को उजाड़ने के लिए गैर क़ानूनी कोशिश कर रही है। पहले से ही दर-बदर की ठोकरें खा रहे फटेहाल लोगों को उजाड़कर जी-20 के मेहमानों को विकास दिखाने से देश को आखिर क्या मिलेगा? "
किला कोहना बस्ती में एक्टिविस्ट सौरभ सिंह और मीरा चौधरी
एक्टिविस्ट मीरा यह भी कहती हैं, "जी-20 समिट के अभियान को देखकर लगता है कि इसका मकसद दुनिया के लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य और अच्छा जीवन मुहैया कराना नहीं है, बल्कि इस मंच का इस्तेमाल साम्राज्यवादी देशों का मकसद अकूत मुनाफा कमाने, कच्चे मालों के स्रोतों पर कब्जा करने और अपनी नीतियां गरीब देशों पर थोपने का है। वैश्विक देशों के जी-20 मंच को भले ही विश्व कल्याण की नीतियों पर चर्चा और उनके क्रियान्वयन के लिए सक्रिय कहकर प्रचारित किया जाता हो, लेकिन वास्तव में यह अपने अंतर्विरोधों से घिरा एक मंच है जहां हर प्रभावशाली देश अपने हित में निर्णय लागू करवाना चाहता है।"
बनारस के जाने-माने एक्टिविस्ट डॉ.लेनिन कहते हैं, "जी-20 के चलते बनारस शहर को सरकार ने रंग-बिरंगा करा देने भर से जनता को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और अच्छा जीवन नहीं मिल सकता। जी-20 जैसे आयोजनों से जनता का भला होने वाला नहीं है। इस तरह के आयोजनों ने दौलत की कभी ना पूरी की जा सकने वाली भूख को पैदा किया है। ऐसी भूख जिसमें कारोबारी कुशलता कम, किफायत के आधार पर पैसा बनाने का लक्ष्य ज्यादा होता है। बनारस में सैकड़ों बस्तियां हैं जहां लाखों जिंदगियां बेजार हैं।"
"इन बस्तियों में रहने वाले हर तीन में से एक बाशिंदा बारिश के दिनों में नाले या रेल लाइन के किनारे गुजर-बसर करने पर विवश हो जाता है। इनके बच्चे ख़ुरदरी बंज़र दीवारों के बीच क़ैद हो जाते हैं। उनके पास खिलौने के नाम पर ईंट-पत्थरों के अलावा कुछ भी नहीं होता है। विदेशी मेहमानों को दिखाने के लिए जिस तेजी से शहर को सजाया जा रहा है उसी तेजी के साथ किला कोहना जैसी बस्तियों के रहने वाले लोगों के लिए घर बना दिया गया होता तो फटेहाल जिंदगियां सिसकने पर विवश नहीं होतीं। गरीबी मिटाने के लिए नए जोश के साथ तेज अभियान छेड़ने की जरूरत है।"
सभी फोटोग्राफः विजय विनीत
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।