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ग्राउंड रिपोर्ट: नाराज़गी और मलाल के बीच राजस्थान के किसान लंबी लड़ाई के लिए तैयार

कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ तीन महीने से ज़्यादा के संघर्ष पर एक किसान का कहना है कि “हमने कितने सालों तक अंग्रेज़ों से आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी? फिर, लोग इतनी जल्दबाज़ी में क्यों हैं।”
ग्राउंड रिपोर्ट: नाराज़गी और मलाल के बीच राजस्थान के किसान लंबी लड़ाई के लिए तैयार

नोहर (राजस्थान): किसान संगठनों के सामूहिक मोर्चा, यानी संयुक्त किसान मोर्चे की तरफ़ से आयोजित पंजाब और हरियाणा महापंचायत के बाद 22 और 23 फरवरी को राजस्थान के क्रमश: नोहर और चूरू में आयोजित महापंचायत में शामिल होने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में बड़े पैमाने पर होने वाली विशाल जनसभाओं वाली महापंचायत के मुक़ाबले इन रैलियों में तक़रीबन 10,000 लोगों की छोटी सी भागीदारी देखी गयी। हालांकि, यह किसानों की सामूहिकता की रणनीति का हिस्सा है, जो अब उन ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक अभियानों पर केंद्रित है, जहां लोग अब भी कृषि क़ानूनों के निहितार्थ को लेकर अनजान हैं।

इन महापंचायतों में बड़े पैमाने पर भाग लेने वाले राजस्थान के किसान और नौजवान अपनी शिकायतों और समस्याओं की अनदेखी किये जाने से अवगत और नाराज़ हैं।

हनुमानगढ़ ज़िले के नोहर क्षेत्र के साहब राम पारदर्शी प्लास्टिक फ़ोल्डर में बड़े करीने से लपेटे गये दरख़्वास्त के एक पोटली के साथ भागते हैं। वह राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के जाने-पहचाने चेहरों में से एक बलवान पुनिया से मिलने जा रहे हैं, ताकि वे गेहूं के प्रमाणित बीजों की बिक्री को लेकर पैसों के मिलने में हो रही चार साल की देरी के बारे में अपनी शिकायत दर्ज करा सकें।

राम और उनके दोस्त राजस्थान राज्य बीज निगम लिमिटेड से जुड़े एक स्थानीय सहकारी संस्था को बेची जाने वाली विभिन्न फ़सलों के बीज उगाते हैं, और राजस्थान के नोहर में किसानों की इस रैली का हिस्सा हैं।

उन्होंने कहा, 'सहकारी बैंक बीजों की बिक़्री नहीं होने की आड़ में 2016-17 से 1.16 करोड़ रुपये के भुगतान को लटकाये हुए हैं। राम कहते हैं, ”इसी तरह, गेहूं और मूंग के बीज के लिए क्रमशः 15 लाख और 13 लाख रुपये का भुगतान रोक दिया गया है।” वह आगे कहते हैं, “यह समझना चाहिए कि हमारे जैसे छोटे किसानों को इतने लंबे समय तक क़र्ज़ में नहीं रहना चाहिए।” यह (सहकारी) कह रहा है कि बीज  नहीं बेचे जा सके थे। क्या फर्क पड़ता है? यह बीजों को प्रीमियम दर पर बेच रहा है, जबकि हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य से तक़रीबन 400 रुपये ज़्यादा मिलते हैं। ”

राम कहते हैं कि ये कृषि और श्रम क़ानून कामकाजी आबादी की मदद की किसी भी तरह की संभावना को कमज़ोर कर देंगे। हनुमानगढ़ के नोहर में संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ़ से आयोजित पहली महापंचायत में भाग लेने के लिए अपने दोस्तों के साथ तक़रीबन 150 किलोमीटर का सफ़र करने वाले राम कहते हैं, “देखिए, उन्होंने पहले से ही काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 कर दिये हैं। इन नये क़ानूनों के प्रावधान सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए मौत की घंटी हैं। इसलिए,लोगों में ज़बरदस्त नाराज़गी है।”

यह पूछे जाने पर कि उन्हें किसानों के इस आंदोलन के कबतक जारी रह पाने की उम्मीद है, राम कहते हैं, “यह सरकार पर निर्भर करता है। जब तक इन क़ानूनों को रद्द नहीं किया जाता और एमएसपी (फ़सलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य) के लिए एक गारंटीशुदा क़ानून पेश नहीं कर दिया जाता, तब तक किसान नहीं रुकेंगे। जैसे ही सरकार हमारी मांगों को मान लेगी, यह आंदोलन ख़त्म हो जायेगा।”

थोड़ी ही दूरी पर मोहम्मद रुस्तम, अपने दोस्तों के साथ रैली में भाग लेने वालों को पानी पिला रहे हैं। मुस्लिम अमन इंसाफ़ कमेटी, नोहर के सदस्य रूस्तम का कहना है कि इस इलाक़े में पानी की भारी कमी देखी जा रही है और वैकल्पिक तरीक़े के इस्तेमाल से खेतीबाड़ी महंगी होती जा रही है।

रूस्तम कहते हैं, “इस ज़िले के कुछ ही हिस्सों में नहर का पानी मिलता है, ज़्यादातर दूसरे हिस्सों के किसानों को तो बोरवेल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। कभी-कभी हमें सतह से 250 फ़ीट नीचे पानी मिल जाता है। मगर, कभी-कभी हमें थोड़ी गहरी खुदाई करनी पड़ जाती है। ऐसे बोरवेल के लिए हमें तक़रीबन 3 लाख रुपये ख़र्च करने होते हैं। ऐसे में जब हम चना, सरसों या ग्वार उगाते हैं, तो हम अपनी लागत भी नहीं वसूल पाते। चने का एमएसपी 4,875 रुपये प्रति क्विंटल है, मगर 4,000- 4,500 रुपये में बेचा गया। यहां तक कि अगर हम एमएसपी पर बेचने में कामयाब हो जाते हैं, तो हमें भुगतान पाने के लिए 6-18 महीनों तक इंतज़ार करना पड़ सकता है।”

उनसे यह पूछे जाने पर कि इस इलाक़े के किसान तो बड़े पैमाने पर इस आंदोलन में भागीदारी नहीं कर रहे हैं, रुस्तम कहते हैं, “इस क्षेत्र के किसानों को इन कृषि कानूनों के बारे में पता है और शाहजहांपुर विरोध स्थल पर इनकी अहम भागीदारी रही है। यहां मुस्लिम बिरादरी ने यह तय कर रखा था कि इस विरोध स्थल पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व इसलिए होना चाहिए, क्योंकि यह आंदोलन किसी धर्म या जाति से जुड़ा नहीं है। यह किसानों का आंदोलन है और हम यह सुनिश्चित करेंगे कि किसान इन दमनकारी क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन में जीत हासिल करें।”

जैसे ही महापंचायत शुरू होती है, पाला राम, मूला राम और हरि सिंह के साथ श्याम सुंदर चिलचिलाती धूप से बचने के लिए पोल से बंधे कपड़े की छाया के नीचे बैठ जाते हैं। पाला राम ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के ’परिवार से जुड़े होने’ की कमी पर एक चुटकी लेते हुए कहा,“केवल परिवार वालों को ही मुश्किल समय में घर चलाने का दर्द महसूस होता है।”

तीनों कृषि कानूनों के विरोध में हरियाणा,उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों के आसपास के क्षेत्र से किसान बड़ी संख्या में एकत्रित हो रहे हैं, और हर जगह इस बात को सुना जा सकता है कि “सिर्फ़ परिवार वाले ही हमारी पीड़ा समझ पायेंगे।” पानी की तरह पैसे बहाकर किये जाने वाले असरदार पीआर के ज़रिये एक परोपकारी नेता की जो छवि प्रधानमंत्री की बनायी गयी है, वह छवि किसानों के संकट के साथ प्रधानमंत्री के "अलगाव" की इस मज़बूत भावना के साथ धूमिल होती दिखायी दे रही है।

सुंदर इन काऩानों के कथित "लाभों" को उजागर करते हुए गुजरात (प्रधानमंत्री के गृह राज्य) के अहमदाबाद और सूरत के अपने दिनों को याद करते हैं।

“मैं आठ सालों तक सूरत और अहमदाबाद में रहा। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी ने ज़ोर-शोर से इस बात को सामने रखा था कि उनके पास विकास का एक असाधारण मॉडल है, जिसे गुजरात मॉडल के रूप में जाना जाता है। वहां के लोग, जिनमें से कुछ मुझे निजी तौर पर जानते हैं, वे अब भी वहां टैंकरों से आपूर्ति किये जा रहे पानी पर निर्भर हैं। इसके बावजूद, उन्होंने मोदी को वोट दिया, क्योंकि रामदेव-अन्ना हजारे की जोड़ी ने उन्हें यह कहकर झांसे में रखा कि वह एक 'साफ़-सुथरी और ईमानदार' सरकार देंगे।

ईंधन, ख़ासकर डीज़ल की बढ़ती क़ीमतों से किसान बेहाल हो रहे हैं। सुंदर कहते हैं, “इस क्षेत्र में डीज़ल की खपत अन्य क्षेत्रों की तुलना में इसलिए ज़्यादा है, क्योंकि हमें मुश्किल से एक दिन में 12 घंटे ही बिजली मिल पाती है। सरकार के प्रवक्ता इस बात को दोहराते हुए नहीं थकते कि यह गर्व की बात है कि लोग करों का भुगतान करके देश के विकास में योगदान दे रहे हैं। यह सब तो ठीक है, लेकिन क्या वे हमें बता पायेंगे कि बहुत ज़्यादा कर दरों के बावजूद, हमारा राजकोषीय घाटा क्यों बढ़ता जा रहा है? उन्होंने भारतीय रिज़र्व बैंक से भी पैसे छीन लिए हैं। हमारे पैसे जा कहां रहे हैं? ”

इन कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की ज़रूरत पर वापस आते हुए सुंदर कहते हैं कि किसानों के साथ हो रहे सरकारी बर्ताव में सबसे बड़ा फ़र्क़ है। इस फ़र्क़ को राजस्थान के उदाहरण का हवाला देते हुए वह कहते हैं, "एक तरफ़ जहां राज्य सरकार ने प्रति किसान 25 क्विंटल की स्टॉक होल्डिंग सीमा लगायी हुई है, वहीं दूसरी तरफ़ निजी व्यापारियों के लिए इस समय यह स्टॉक सीमा असीमित है।"

राजस्थान में किसानों के इस विरोध का समर्थन अलग-अलग इलाक़ों से किया जा रहा है। हाल ही में केंद्र संचालित अस्पताल में बतौर एक नर्सिंग अधिकारी नियुक्त होने वाले एक नौजवान, ताराचंद थोड़ी उन आलोचकों पर निशाना साधते हैं, जो "बिना किसी जीत के" तीन महीने से ज़्यादा से चल रहे किसानों के इस विरोध प्रदर्शन पर सवाल उठा रहे हैं।

थोडी कहते हैं, “कितने सालों तक हमने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी? यह तो दशकों तक चला था। लोगों में फिर मंज़िल हासिल करने की इतनी जल्दबाज़ी क्यों है? बड़ी बात तो बात यह है कि लोग लड़ रहे हैं। अगर हम बिना लड़े उम्मीद भी छोड़ दें, तब तो हम निश्चित रूप से यह लड़ाई नहीं जीत पायेंगे। लेकिन,संघर्ष तो हमेशा आपको उम्मीद देता है।”

नौजवानों में उबलता ग़ुस्सा

चूरू की उस महापंचायत में नौजवानों में भारी ग़ुस्सा देखा जा सकता है,जिसमें युवा आबादी की बड़ी भागीदारी देखी गयी,ये नौजवान संघर्ष में सबसे आगे हैं। चूरू के जसरासर से आये सनी ने कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर के उस हालिया बयान पर पलटवार किया, जिसमें उन्होंने कहा था, ''सिर्फ़ भीड़ इकट्ठा कर लेने भर से सरकार को इन क़ानूनों को निरस्त करने का दबाव नहीं नहीं डाला जा सकता।''

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सनी कहते हैं, “तोमरजी भूल रहे हैं कि भाजपा ने भीड़ इकट्ठा करके ही पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनायी है। तब तो हम सही थे? अब, जबकि हम इन क़ानूनों को निरस्त करने के लिए कह रहे हैं, तो हम बुरे हो गये हैं? हमसे उम्मीद की जा रही है बिना उंगली उठाये उनकी हर बात में हम हां में हां मिलाते रहें। हम ग़ुलाम नहीं हैं। पहले,उन्होंने पेट्रोल,फिर एलपीजी,और अब डीज़ल की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी कर दी। किसान अब इसे स्वीकार नहीं करेंगे।”

चूरू में चल रही मुख्य महापंचायत के मंच से कुछ ही दूरी पर मेवा राम गर्मी से बचने के लिए एक पेड़ की छाया में बैठे हैं। वह अपने ख़र्चे उंगलियों पर गिनाते हुए कहते हैं, “मैंने उत्पादन की लागत निर्धारित करने का हिसाब कई बार लगाया है। मैंने पाया कि एक क्विंटल गेहूं पैदा करने के लिए, मैं तक़रीबन 2,100 रुपये खर्च करता हूं, जबकि बिक्री से मुझे 1,700 रुपये प्रति क्विंटल मिलता है। कृपया याद रखें,हर साल निवेश लागत बढ़ रही है, जबकि फ़सलों की क़ीमतें घट रही हैं।"

हालांकि, राम सरकार के इन तीनों कृषि क़ानूनों को निरस्त होने को लेकर आश्वस्त दिखते हैं। वह कहते हैं, “हमारा तजुर्बा बताता है कि सरकारों ने हमारी मांगों को तभी स्वीकार किया है, जब किसानों ने एकजुट होकर संघर्ष किया है। वसुंधरा राजे (राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता) भी पूर्ण बहुमत वाली सरकार थी। उन्होंने फ़सल बीमा पर किसी भी नुकसान का दावा करने के लिए -2.8 डिग्री सेल्सियस से नीचे तापमान की एक नयी सीमा निर्धारित कर दी थी। हमारे संघर्ष ने ही उन्हें हमारी मांगों को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया था। इस समय, चुरू उन कुछ ज़िलों में से है, जहां किसानों को बीमा पर 60% कवरेज मिलता है। इसलिए, हमारा संघर्ष ही हमें जीत दिलायेगा, इसमें हमारे संघर्ष के अलावा किसी और चीज़ से कोई मतलब नहीं है।"

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Ground Report: Resentment, Anguish Writ Large, Rajasthan Farmers Prepare for Long Haul

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