हरिशंकर तिवारी : त्रासदी से प्रहसन तक की यात्रा
इतिहास अपने को दोहराता है, पहली बार एक त्रासदीपूर्ण नाटक के रूप में। दूसरी बार यह प्रहसन में बदल जाता है।"
- कार्ल मार्क्स
उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल के बाहुबली नेता हरिशंकर तिवारी का 16 मई 2023 को 85 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे कई वर्षों से अस्वस्थ थे,उनके निधन से पूर्वांचल या कहिए गोरखपुर की राजनीति में एक अध्याय का समापन हो गया। हरिशंकर तिवारी की कहानी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जाति और अपराध की राजनीति का समन्वय किस तरह एक मामूली व्यक्ति को सत्ता के शीर्ष पर पहुँचा सकता है।
हरिशंकर तिवारी का राजनीतिक सफ़र बहुत दिलचस्प है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के एक 'विधि'' के छात्र से उनका सफ़र; अपराध के राजनीतिकरण, जातीय गैंगवार और ब्राह्मण-ठाकुर के नाम पर पूर्वांचल में राजनीतिक वर्चस्व की कहानी है।
उनकी कहानी में अनेक ऐसे भी किरदार हैं,जो अक्सर लोगों को दिखाई नहीं पड़ते। 1957 में गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना करने में गोरखपुर के तात्कालीन जिलाधिकारी सुरति नारायण त्रिपाठी तथा गोरखपुर मन्दिर के महंत दिग्विजयनाथ का बहुत योगदान था। प्रशासनिक सेवाओं से सुरति नारायण त्रिपाठी राजनीति में आए थे। दिग्विजयनाथ हिन्दू महासभा के सदस्य थे तथा लगातार मानीराम क्षेत्र से विधानसभा के लिए चुनाव भी जीतते रहे। विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद उस पर वर्चस्व के लिए दोनों लोगों में प्रतिद्वन्द्विता शुरू हुई। विश्वविद्यालय में शिक्षकों और कर्मचारियों की नियुक्ति जाति के आधार पर होने लगी। राजपूतों का नेतृत्व महंत दिग्विजयनाथ कर रहे थे। उनका आरोप था कि," नियुक्ति में भारी पैमाने पर ब्राह्मणों की नियुक्ति हुई है।" माना जाता है कि इसी का ज़वाब देने के लिए दिग्विजयनाथ ने महाराणा प्रताप इण्टर कॉलेज की स्थापना की थी, जो बाद में दिग्विजयनाथ डिग्री कॉलेज बन गया था।
इस वर्चस्व की लड़ाई में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह हुई कि इसमें छात्र नेताओं को मोहरा बनाया गया, तब यहाँ पढ़ रहे हरिशंकर तिवारी को ब्राह्मण लॉबी ने 1965 में विश्वविद्यालय कोर्ट का सदस्य बना दिया। इसके जवाब में ठाकुर लॉबी ने बलवंत सिंह और रवीन्द्र सिंह को आगे कर दिया। उस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश में रेलवे में छोटी लाइन बड़ी लाइन में परिवर्तित हो रही थी। रेलवे की ठेकेदारी में बहुत पैसा था। रेलवे में ठेकापट्टी लेने में दोनों गुटों में गैंगवार होने लगा, जो बहुत जल्दी ख़ूनी संघर्ष में बदल गया, हालाँकि इस गैंगवार को ब्राह्मण-ठाकुर के बीच में संघर्ष बताया गया, परन्तु इस संघर्ष के पीछे मुख्य संघर्ष आर्थिक वर्चस्व का था, जिसे जातीय संघर्ष का नाम दिया गया।
1978 में रवीन्द्र के नज़दीकी बलवंत सिंह की गोरखपुर के गोलघर बाज़ार में हत्या कर दी गई, इसके बाद हिंसा और प्रतिहिंसा का एक लम्बा दौर चला, जो लोग अस्सी के दशक में रहते होंगे, उन्हें याद होगा कि उस समय गोरखपुर में हमेशा आतंक का माहौल रहता था। कब कहाँ गोली चल जाए, इसी डर के साए में जनता जी रही थी। इस गैंगवार में अनेक निर्दोष लोग मारे गए। जिन प्रमुख लोगों की हत्याएं हुईं, उनमें :- रंग नारायण पाण्डेय,बे चई पाण्डेय और अमोल शुक्ला जैसे महत्वपूर्ण लोग थे, लेकिन इसमें सबसे महत्वपूर्ण हत्या थी; जनता पार्टी के विधायक और लखनऊ तथा गोरखपुर छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके रवीन्द्र सिंह की। उनको 27 अगस्त 1979 में गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर गोली मार दी गई, जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गए थे, बाद में तीन बाद 30 अगस्त को हॉस्पिटल में उनकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वीरेन्द्र प्रताप शाही ने इस ग्रुप की कमान अपने हाथ में ले ली। वे रवीन्द्र सिंह के नज़दीकी थे, 1974 में वे बस्ती में विधानसभा का चुनाव हार गए थे। रवीन्द्र सिंह की हत्या के बाद पूरे पूर्वांचल में दोनों ग्रुपों में कई बड़े गैंगवार हुए, जिसमें ढेरों निर्दोष लोग भी मारे गए। वीरेन्द्र प्रताप शाही पर गोरखपुर जिला अस्पताल में एक हमला हुआ, लेकिन वो बच गए। इसके बाद भी तीन और हमले हुए, सौभाग्य से उस समय भी उनकी जान बच गई।
हरिशंकर तिवारी की ख़ासियत थी कि उन्होंने कभी सीधे-सीधे गैंगवार में भाग नहीं लिया। उनके बारे में ऐसा माना जाता है कि वे नेपाल में भूमिगत रूप से रहते थे और गोरखपुर सहित सारे पूर्वांचल में उनके इशारे पर उनके ही लोग गैंगवार करते थे, इसके ठीक विपरीत रवीन्द्र सिंह और बाद में वीरेन्द्र प्रताप शाही गोरखपुर में ख़ुलेआम खुली जीप में घूमते थे, यह प्रवृत्ति ही बाद में इन दोनों की हत्या का कारण बनी।
गोरखपुर में धर्मशाला बाज़ार में एक बड़ा सा घर है, जो चारों ओर से ऊँची-ऊँची दीवारों से घिरा हुआ बड़े से गेट से युक्त है, इसके अन्दर एक पुराना सा झोपड़ीनुमा घर था, अब वहाँ एक आलीशान आधुनिक संसाधनों से भरपूर बड़ा सा बंगला दिखाई देता है, लोकप्रिय भाषा में यह घर 'हाता' कहलाता है। इस घर के बारे में भी ऐसा बताया जाता है कि यह घर और हाता बगल ही रहने वाले सिक्ख व्यापारी का था, जिस पर हरिशंकर तिवारी ने कब्ज़ा कर लिया था, बाद औने-पौने दाम में इसे खरीद लिया था। इस हाते में लोगों की भीड़ लगी रहती थी, जो अपना काम करवाने के लिए यहाँ आते थे।
एक-दो बार पत्रकार के रूप में मुझे भी वहाँ जाने का अवसर मिला, तब मैंने देखा कि वहाँ अन्य लोगों के साथ-साथ विश्वविद्यालय के ढेरों प्रोफेसर भी मिले, जो विश्वविद्यालय में अपना काम करवाने के लिए वहाँ आते रहते थे। इसके अलावा विश्वविद्यालय के छात्रसंघ तथा शिक्षक संघ के चुनाव में उनकी बड़ी भूमिका थी। अपनी पसंद के उम्मीदवार को चुनाव जितवाने के लिए वे कुछ प्रत्याशियों की हर सम्भव मदद करते थे, इससे यह पता लगता है कि गोरखपुर विश्वविद्यालय में उनका कितना वर्चस्व था?
पुलिस के रिकार्डों में भले ही हरिशंकर तिवारी या वीरेन्द्र प्रताप शाही गैंगस्टर या हिस्ट्रीशीटर थे, लेकिन गोरखपुर के अख़बारों में एक 'ब्राह्मण शिरोमणि' थे ,तो दूसरे शेरे पूर्वांचल। किसी भी अख़बार या पत्रकार का यह साहस नहीं था कि इन्हें अपराधी लिखे। एक-आध ने ऐसी जुर्रत की भी, तो उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। वैसे भी गोरखपुर के अख़बारों में ऊँची जाति के पत्रकारों; विशेष रूप से ब्राह्मणों का बहुमत था, इसलिए पत्रकारों को उन्हें ब्राह्मण शिरोमणि के रूप में महिमा मंडित करने में कोई दिक्कत नहीं होती थी और इससे उनकी भी आत्मसंतुष्टि होती थी।
हरिशंकर तिवारी गोरखपुर के बड़हलगंज के टांडा गाँव के रहने वाले थे। ब्राह्मण बहुल यह इलाका कई नदियों का कछार है तथा साल के कई महीने बाढ़ के पानी में डूबा रहता है। भौगोलिक दृष्टि से यह काफी ऊबड़-खाबड़ हैं, यहाँ खेती बहुत कम होती है, यही कारण है कि यहाँ के लोग विशेष रूप से ब्राह्मण अवैध रूप से थाईलैंड में बसे हुए हैं तथा छोटा-मोटा काम करके पैसा कमाते हैं और वहां वे वह सब काम करते हैं, जो ब्राह्मण होने के कारण यहाँ कर नहीं सकते, इस कारण से इनमें जातीय स्वाभिमान जगाना बहुत आसान था।
ठेकापट्टी में अकूत दौलत कमाने के बाद हरिशंकर तिवारी ने राजनीति में पदार्पण किया, तब सर्वप्रथम 1974 में उन्होंने विधानपरिषद (एमएलसी) का चुनाव लड़ा, लेकिन वे कांग्रेस उम्मीदवार शिवहर्ष उपाध्याय से चुनाव हार गए। 1984 में उन्होंने जेल में रहते हुए महाराजगंज संसदीय सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन यह चुनाव भी वे हार गए। उनके विरोधी में से एक वीरेन्द्र प्रताप शाही भी थे, जिन्होंने भी जेल से इस चुनाव में भाग लिया था, इस चुनाव में हरिशंकर तिवारी दूसरे स्थान पर और वीरेन्द्र प्रताप शाही तीसरे स्थान पर रहे और यह चुनाव कांग्रेस के जीतेन्द्र सिंह ने जीता था।
हरिशंकर तिवारी की महत्वपूर्ण चुनाव की पारी तब शुरू हुई, जब चिल्लूपार के कांग्रेस के विधायक और वरिष्ठ नेता भृंगनाथ चतुर्वेदी ने हरिशंकर तिवारी के लिए अपने विधायक पद से इस्तीफ़ा दे दिया। 1983 में हरिशंकर तिवारी को उनका संरक्षण प्राप्त हुआ और हरिशंकर तिवारी को नेशनल पीजी कॉलेज की प्रबंध समिति का अध्यक्ष बनाया गया और चिल्लूपार की राजनीतिक विरासत सौंप दी।1985 में वहाँ से हरिशंकर तिवारी ने चुनाव लड़ा और पहली बार विधायक बने।
उन्होंने यह चुनाव जेल से ही लड़ा। इसके बाद वे यहाँ पाँच बार चुनाव जीतकर विधायक बने रहे। 1997 से जब उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की राजनीति का अस्थिर दौर शुरू हुआ, तब वे कल्याण सिंह, राम प्रसाद गुप्ता,राजनाथ सिंह, मायावती और मुलायम सिंह के मंत्रिमंडल में मंत्री बने, यहाँ तक कि जब जगदम्बिका पाल ने उत्तर प्रदेश में जोड़-तोड़कर एक दिन की सरकार बनाई,तब वे उसकी ओर चले गए तथा कैबिनेट के मंत्री का दर्ज़ा भी हासिल कर लिया।
चिल्लूपार से लगभग अपराजेय माने-जाने वाले हरिशंकर तिवारी अगले चुनाव 2007 और 2012 में पत्रकार से नेता बने राजेश त्रिपाठी से हार गए। लगातार दो बार चुनाव हारने के बाद उन्होंने यह सीट अपने बेटे विनयशंकर तिवारी को सौंप दी और चुनावी राजनीति से दूर हो गए, लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण नेता के रूप में उनकी छवि बनी रही। सभी दल के ब्राह्मण नेता उनसे मिलते-जुलते रहते थे। आप इसे घोर राजनीतिक अवसरवाद भी कह सकते हैं। उनका किसी राजनीतिक दल से कोई परहेज़ नहीं था, वे कांग्रेस, भाजपा और सपा-बसपा सभी में आराम से आते-जाते रहे। उन्होंने ब्राह्मण नेता की अपनी छवि चमकाने के लिए लखनऊ में एक परशुराम पूजन समिति का गठन किया तथा गोरखपुर में शीशमहल कॉलोनी स्थित एक पुराने शिवमन्दिर में परशुराम मन्दिर की आधारशिला रखी।
हरिशंकर तिवारी की यह कहानी भारतीय राजनीति में उस पतन की कहानी है, जिसके ऊपर आज भाजपा का फासीवाद खड़ा है। अपराध और जाति का गठजोड़ भारतीय राजनीति में किस तरह एक मामूली छात्र नेता को राजनीति के शीर्ष पर पहुँचा सकता है?
हरिशंकर तिवारी की मृत्यु के बाद जिस तरह से सभी राजनीतिक दलों के नेताओं ने शोक प्रकट किया; जिसमें एक जाति विशेष के लोगों का बहुमत था, परन्तु आश्चर्यजनक बात यह है कि गोरखपुर विश्वविद्यालय तथा यहाँ के अन्य शैक्षिक संस्थानों में पढ़ने-पढ़ाने वाले लोगों ने उसी तरह का शोक प्रकट किया, मानो उनके किसी अपने प्रियजन की मृत्यु हो गई हो,जिसमें बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार, छात्र-शिक्षक सभी थे। क्या भारतीय समाज में जाति का महत्व सभी विचारधाराओं और सामाजिक-राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से बड़ा है। क्या भारतीय फासीवाद के बीज इसी में निहित हैं? क्या यह परिघटना हमारे विचार का विषय नहीं होनी चाहिए?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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