हिमाचल प्रदेश: “सेब के लिए टेलीस्कोपिक नहीं यूनिवर्सल कार्टन चाहिए”
समूचे हिंदुस्तान में 21 प्रतिशत सेब की आपूर्ति करने वाले हिमाचल के किसानों का आरोप है कि वे मेहनत से कम भुगतान पाने को मजबूर हैं। इन किसानों का कहना है कि जब प्रदेश में भाजपा की सरकार थी तब भी वही हाल था, सरकार बदलकर कांग्रेस की हो गई है, अब भी यही हाल है। यानी कैसे न कैसे सेब व्यापारियों और किसानों को नुकसान उठाना ही पड़ता है। अब भी राज्य सरकार प्रति पेटी 24 किलो सेब भरने पर अड़ी हुई है, जबकि किसान इसे घाटे का सौदा बताते आए हैं और इसमें सुधार की मांग करते रहे हैं।
हालांकि सेब उत्पादक संघ ने इसबार सरकार के साथ आर-पार का मूड़ बना लिया है और स्थिति अनुकूल नहीं होने पर आंदोलन की चेतावनी दी है। आपको बताते हैं कि मामला क्या है? दरअसल पूरी लड़ाई है टेलीस्कोपिक कार्टन और यूनिवर्सल कार्टन के बीच की। तो सबसे पहले इन दोनों में फर्क समझ लेते हैं...
यूनिवर्सल कार्टन में सिर्फ 20 किलो सेब ही भरा जा सकता है, जबकि टेलीस्कोपिक में बागवानों को 25 से 40 किलो तक सेब भरना पड़ता है। जबकि बागवानों को दाम औसत 20 से 25 किलो प्रति पेटी के हिसाब से ही दिए जाते हैं। इस तरह बागवानों को प्रति पेटी 5 से 15 किलो ज़्यादा सेब देना पड़ रहा है।
आपको बता दें कि दुनियाभर में सेब 4 लेयर में भरा जाता है, जो सेब पैकिंग का इंटरनेशनल स्टैंडर्ड भी है। दुनिया के किसी भी मुल्क से भारत में सेब आयात किया जाता है तो भी किलो के हिसाब से खरीदा जाता है, लेकिन हिमाचल में बागवान टेलीस्कोपिक कार्टन में 6 से 8 तह में सेब भर रहे हैं। कुछ बागवान ऐसा कमीशन एजेंट के दबाव में आकर तो कुछ सबसे महंगा सेब बिकने की चाहत में कर रहे हैं।
हिमाचल में भी यूनिवर्सल स्टैंडर्ड को लागू करने के लिए सेब उत्पादक संघ बीते एक हफ्ते से एप्पल बेल्ट में निरंतर बैठकें कर रहा है। इनमें बागवानों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा रहा है। सेब उत्पादक संघ, हिमाचल प्रदेश के अध्यक्ष सोहन ठाकुर कहते हैं कि सेब उत्पादक संघ ने सरकार की 24 किलो सेब पैकिंग की शर्त को ख़ारिज कर दिया है। ठाकुर कहते हैं कि 24 किलो पैंकिग का फैसला सरकार ने आढ़तियों और व्यापारियों के दबाव में लिया था, उन्होंने कहा कि इस मामले में 3 जून को राज्य स्तरीय बैठक होगी और आंदोलन की रूप-रेखा तय की जाएगी। सोहन ठाकुर ने आरोप लगाया कि नारकंडा की डोगरा और लाफूघाटी की जोसीओ सहित कई कंपनियां मार्केट की एक प्रतिशत फीस नहीं चुका रही हैं। यही कारण है कि एपीएमसी यानी एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी में करोड़ों का घोटाला सामने आ रहा है। इसके अलावा ठाकुर ने ये भी बताया कि सेब के वज़न के हिसाब से मालभाड़ा भी लागू नहीं किया जा रहा है।
सोहन ठाकुर ने बड़े व्यापारियों और आढ़तियों पर भी आरोप लगाया कि "ये लोग मार्केट में फीस चोरी करते हैं। सीज़न की शुरुआत में ज़्यादातर मंडियों में सेब 3000 से 4000 रुपये प्रति पेटी बिकता है, लेकिन कोई भी आढ़ती पूरी कीमत पर मार्केट फीस नहीं चुकाता और आधा रेट बताकर फीस देता है। इससे सरकार को भी राजस्व के रूप में घाटा हो रहा है।" उन्होंने सभी आढ़तियों और कॉर्पोरेट घरानों से पूरी मार्केट फीस लेने और इससे वातानुकूलित स्टोर बनाए जाने की मांग की। बता दें कि एपीएमसी निजी घरानों और आढ़तियों से एक फीसदी मार्केट फीस लेता है।
आपको बता दें कि हिमाचल में पूर्व वीरभद्र सिंह सरकार ने भी यूनिवर्सल कार्टन को लेकर 2 बार विधेयक पेश किया, लेकिन बिना तैयारियों के लाया गया विधेयक बागवानों के विरोध के बाद वापस लेना पड़ा। उस दौरान यूनिवर्सल कार्टन तो अनिवार्य कर दिया गया, मगर बाज़ार में इसकी उपलब्धता नहीं कराई गई। कार्टन बनाने वाली कंपनियों से पहले संपर्क नहीं साधा गया। हालांकि यूनिवर्सल कार्टन इस्तेमाल न करने वाले बागवानों पर पैनल्टी लगाने इत्यादि का प्रावधान अध्यादेश में कर लिया गया था। ख़बरों के मुताबिक तब यूनिवर्सल कार्टन के साइज़ इत्यादि तैयार करने पर पूर्व सरकार ने तकरीबन 11 लाख रुपये खर्च किए थे।
दरअसल हिमाचल प्रदेश राज्य पर देशभर में सेब की 21 प्रतिशत पूर्ति करने की ज़िम्मेदारी होती है, यहां शिमला, कुल्लू, मंडी, किन्नौर, सिरमौर, चंबा और सोलन में सेब के बागान हैं। हिमाचल प्रदेश में पैदा किया जाने वाला सेब प्रदेश की आर्थिकी के लिए बेहद ज़रूरी है, और यही कारण है कि यहां के किसानों के साथ तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र के लदानियों और व्यापारियों से लेकर नेपाल तक का मज़दूर इसी पर निर्भर है।
हिमाचल प्रदेश में 5000 करोड़ की इकॉनमी सेब की है, ये अपने आप में एक बहुत बड़ा रोज़गार देता है, लेकिन आरोप है कि सरकार की अनदेखी के चलते ये संकट में जा रही है। बागवानी में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें, जैसे खाद, बीज, दवाई, की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं, जो 25 फीसदी इनपुट कॉस्ट थी वो 60 फीसदी पर चली गई है, जिससे किसानों को नुकसान हो रहा है। खाद और दवाई में मिलने वाला अनुदान बिल्कुल ख़त्म कर दिया है।
इसके अलावा आरोप है कि जो सेब प्रदेश के कोल्ड स्टोरेज में रखा जाता है, भले ही वो ए-ग्रेड का ही क्यों न हो, औने पौने दाम में खरीदा जाता है, जिसका औसत दाम 50 रुपये होता है। और इसी सेब को कंज्यूमर एंड पर तीन से साढ़े तीन सौ रुपये किलो बेचा जाता है। यानी सरकार ने बागान और कंज्यूमर के बीच रेट की जो खाई पैदा कर दी है, उसे अगर नहीं भरा गया तो इसका असर आने वाले वक्त में प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर पड़ सकता है। यहां से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि एक कार्टन में कितना भी सेब भर दिया जाए लेकिन उसकी कीमत किसानों को 20 किलों प्रति कार्टन के हिसाब से ही मिलती है, जबकि दूसरी ओर कंज़्यूमर एंड पर प्रति किलो के हिसाब से रेट बढ़ाकर बेचे जाते हैं।
फिलहाल अब देखना होगा कि सेब उत्पादक संघ की ओर से दी गई आंदोलन की चेतावनी राज्य सरकार पर कितना असर डालती है।
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