बढ़ता सरकारी क़र्ज़ : वित्तीय पूंजीपतियों का लाभ, आम जनता पर बढ़ता बोझ
भारत का बढ़ता सार्वजनिक कर्ज आर्थिक विश्लेषकों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय बन चुका है। लेकिन इसके प्रभावों पर कोई स्पष्ट चर्चा कॉरपोरेट मीडिया में उसके आर्थिक विश्लेषकों द्वारा नहीं की जाती है। वहां चर्चा का एकमात्र केंद्र राजकोषीय घाटा कम करने और उसके लिए सरकारी खर्च में कटौती खास तौर पर सब्सिडी और शिक्षा-स्वास्थ्य पर खर्च में कटौती ही होता है। कर्ज के बढ़ने के कारणों और उसके घटक तत्वों पर तथ्यात्मक जानकारी ये विश्लेषक प्रस्तुत नहीं करते। यहाँ इसके प्रभावों पर सार्थक चर्चा से पहले हम इसके परिमाण संबंधित कुछ तथ्यात्मक आंकड़े प्रस्तुत कर देते हैं। इसके आधार पर ही हम समझ पाएंगे कि बढ़ते कर्ज से सर्वाधिक चिंता किसे और क्यों होनी चाहिए।
सरकारी कर्ज पर जो अंतिम आधिकारिक सर्वांगीण आंकड़े सार्वजनिक जानकारी में हैं वे अप्रैल 2022 में वित्तीय वर्ष 2020-21 के हैं। इनमें केंद्र व राज्यों दोनों के आंकड़े मौजूद हैं। साथ ही जारी वित्तीय वर्ष अर्थात 2023-24 के लिये पेश बजट से हमें केंद्र सरकार के राजस्व तथा व्यय खास तौर पर कर्ज पर ब्याज व्यय के आंकड़े उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त हम कुल राष्ट्रीय आय में कर्ज और ब्याज भुगतान के अंश की स्थिति समझने हेतु सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के ताजा आंकड़ों को भी देखेंगे।
2020-21 में केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा लिया गया कुल सरकारी कर्ज 173.46 लाख करोड़ रुपये था जिसमें से अकेले केंद्र की देनदारी ही 115.98 लाख करोड़ रुपये थी। यह देनदारी उस साल की कुल जीडीपी का 87.8% थी। अकेले केंद्र की देनदारी ही कुल जीडीपी का 59.2% थी। अर्थात उस साल जितनी कुल राष्ट्रीय आय हुई सरकारी देनदारी उसका 87.8% थी। कुल कर्ज का 5.3% ही विदेशी है अर्थात जीडीपी का मात्र 3.1%। अतः सरकारी कर्ज का अधिकांश देशी साहूकारों का है और सरकारी कर्ज के तौर पर विदेशी कर्ज बहुत बड़ा मसला नहीं है। निजी विदेशी कर्ज इससे अलग है जो इस लेख का विषय नहीं है।
वित्तीय वर्ष 2020-21 के इस सारे कर्ज पर औसत ब्याज दर 5.79% थी जबकि सरकारी प्रतिभूतियों पर औसत ब्याज दर 7.27% थी। इस प्रकार कर्ज पर कुल ब्याज चुकाने मात्र में ही केंद्र सरकार द्वारा एकत्र कुल राजस्व का 41.6% और राज्यों के कुल राजस्व का 14.1% चला जा रहा था। सरकार को कुल कर्ज देने वालों में से व्यापारिक बैंकों का हिस्सा 37.8% और बीमा कंपनियों का 25.3% था। सरकारी-निजी कर्मचारियों-मजदूरों का अर्थात प्रोविडेंट फंड का हिस्सा मात्र 4.4% ही था। सरकारी कर्ज का शेष एक तिहाई कर्ज देशी कॉरपोरेट व व्यक्ति निवेशकों का था।
केंद्र-राज्य सरकारों के कुल अंतिम आधिकारिक आंकड़े तो यही उपलब्ध हैं। किंतु अकेले केंद्र सरकार के आंकड़े इस साल के बजट दस्तावेज में उपलब्ध हैं। बीते वित्तीय वर्ष 2022-23 के संशोधित अनुमान के अनुसार सरकार का कुल बजट 41.87 लाख करोड़ रुपये रहा और चालू वित्तीय वर्ष 2023-24 में यह 45.03 लाख करोड़ रुपये हो जाएगा। इसमें से कुल राजस्व प्राप्तियाँ क्रमशः 23.44 और 26.28 लाख करोड़ रुपये हैं। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा लिया जाने वाला कर्ज क्रमशः 17.58 और 17.99 लाख करोड़ रुपये है। इस कर्ज पर चुकाया जाने वाला ब्याज साल 2022-23 में 9.41 लाख करोड़ रुपये था जबकि इसके वर्ष 2023-24 में बढ़कर 10.80 लाख करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान बजट में लगाया गया है।
इन आंकड़ों का विश्लेषण करें तो इन दोनों साल में केंद्र सरकार के कुल बजट का क्रमशः 55.98% और 58.36% ही राजस्व प्राप्ति से आने वाला है जबकि बजट का क्रमशः 41.99% और 39.95% कर्ज से प्राप्त होने वाला है। इस कर्ज पर ब्याज चुकाने में ही कुल बजट का क्रमशः 22.47% और 23.98% खर्च हो जाएगा। मगर सरकार की कुल राजस्व प्राप्ति के दृष्टिकोण से देखें तो उसका क्रमशः 53.53% और 60.03% मात्र ब्याज चुकाने में ही चला जाएगा।
साफ है कि केंद्र सरकार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों व अन्य भाड़ों, शुल्कों, सरचार्जों आदि से साल भर में जितना राजस्व प्राप्त करती है उसका लगभग 60% हिस्सा मात्र कर्ज पर ब्याज चुकाने में ही चला जाता है। हालांकि सरकार प्रचार माध्यमों द्वारा जनता को लगातार बताती है कि अधिक टैक्स चुकाने से सरकार देश के विकास और जनकल्याण कार्यों पर खर्च करती है और टैक्स वसूली बढ़ने से जनकल्याण पर खर्च अधिक होगा। मगर वास्तविकता यह नहीं है। जनता से वसूले जाते बढ़ते करों का अधिकांश हिस्सा तो कर्ज पर ब्याज चुकाने में ही चला जाता है। और कर्ज व ब्याज की यह मात्रा हर साल बढ़ती ही जाती है। इसी बात की वजह को हमें समझना है।
एक अहम बात और। हालांकि यहाँ हमने लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए हर साल चुकाये जाने वाली कर्ज की मूल धन की किस्तों और नए लिए जाने वाले कर्ज का विस्तृत ब्यौरा नहीं दिया है, लेकिन जरा सा हिसाब लगाने से ही कोई भी व्यक्ति समझ जाएगा कि असल में यह कर्ज चुकाया नहीं जाता है। बल्कि अकाउंटिंग की भाषा में कहें तो इसका मात्र रोल-ओवर होता है अर्थात नए कर्ज से पुराने कर्ज की मूलधन की किस्तें व ब्याज चुकता होता रहता है। अतः हर साल इस कर्ज की मात्रा बढ़ती जाती है। लगभग सभी पूंजीवादी देशों में ऐसा ही होता है। अमेरिका में अभी कुछ दिन पहले ही लिए जाने वाले कर्ज की उच्चतम सीमा बढ़ाने का विवाद हमने देखा है। असल में 1945 से यह सीमा वहाँ 57वीं बार बढ़ाई गई है। भारतीय पूंजीवाद इससे चतुर है। यहाँ ऐसी ठोस सीमा रखी ही नहीं गई है। यहाँ यह सीमा एक तो प्रतिशत में है अर्थात अपने आप बढ़ती जाती है। दूसरे, यहाँ सरकार को सीमा से ऊपर जाने के लिए संसद से अनुमति लेने के बजाय पहले ही बहुत सी छूट दी गई है।
किंतु जो मुख्य बात समझने की है वह यह कि सरकार को इतना बड़ा कर्ज देने वाले देश में कौन लोग हैं। असल में कर्ज की यह रकम चाहे बॉन्ड/प्रतिभूतियों/राष्ट्रीय विकास पत्र/किसान विकास पत्र/इंदिरा विकास पत्र आदि के जरिए कॉरपोरेट या व्यक्ति निवेश करें यह बैंक व बीमा कंपनी के जरिए, यह देश के वित्तीय पूंजीपतियों तथा संपन्न मध्य वर्ग की पूंजी ही होती है। यह वह पूंजी जिसे वे उत्पादक औद्योगिक क्षेत्र में निवेश नहीं कर पाते। अतः वे इसे सरकार को कर्ज पर देते हैं और बिना जोखिम की गारंटीशुदा आय प्राप्त करते हैं। इस तरह क़र्ज़ बढ़ने का अर्थ है कि केंद्र व राज्य सरकारों को जनता से जितना कर भविष्य में वसूल होने वाला है उसका आधे से अधिक हिस्सा सरकार ने देश के वित्तीय अमीरों को गिरवी रख दिया है।'
इसके चलते सरकार के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाते जाना जरूरी है ताकि इस कर्ज व ब्याज की भुगतान में चूक या डिफ़ॉल्ट न हो। पेट्रोल-डीजल हो या जीसटी इन सबके जरिए टैक्स वसूली को बढ़ाते जाना और मजदूर वर्ग को मिलने वाली अत्यंत निम्न मजदूरी पर भी अप्रत्यक्ष करों से डाका डाल लेने का और कोई विकल्प सरकार के पास नहीं है।
दूसरे, जैसे-जैसे यह कर्ज की रकम और इस पर चुकाये जाने वाले ब्याज की मात्रा बढ़ती जाती है तो सरकार के कुल बजट और राजस्व में से जनकल्याण के कार्यों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक यातायात, बाल-स्त्री कल्याण, वंचित तबकों के लिए छात्रवृत्ति, आदि जैसे मदों में कटौती अनिवार्य है। इन कटौती के जरिए ही सरकारें अपने कुल राजस्व व बजट में से पूंजीपतियों के कर्ज व ब्याज को चुकाते रहने की गारंटी कर सकती हैं।
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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