विश्व मंच पर भारत के ‘रियलिटी शो’ कमज़ोर पड़ने लगे हैं
कुछ साल पहले सीआईए की गुप्त सूची से जिन दस्तावेज़ों को हटाया गया था, उनमें 1980 के दशक में सोवियत संघ को लेकर चलने वाले चुटकुलों की एक सूची भी थी। इन चुटकुलों में अमेरिकी गुप्त शीत युद्ध सेना की तरफ़ से दुश्मन को बेपर्दा करने और उसके हौसले को तोड़ने वाले एक गुप्त अमेरिकी हथियार की झलक भी मिलती है। इन सीआईए चुटकुलों में से एक चुटकुला लियोनिद ब्रेझनेव के कार्यकाल (1964-1982) में सोवियत युग के ठहराव से सम्बन्धित है।
रूस के लोग इसे ठहराव काल कहते हैं। यह मज़ाक कुछ इस तरह से चलता है: लेनिन, स्टालिन, ख्रुश्चेव और ब्रेझनेव किसी ट्रेन में सवार हैं। उन्हें ले जाने वाली वह ट्रेन अचानक तब रुक जाती है, जब उसकी पटरी ख़त्म हो जाती है। इस मसले का हल उस ट्रेन पर सवार हर नेता अपने-अपने अनूठे तरीक़े से देता है। इसके लिए लेनिन दूर-दूर से हर तरफ़ के श्रमिकों और किसानों को इकट्ठा करते हैं और उन्हें और ज़्यादा ट्रैक बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। स्टालिन ट्रेन के चालक दल को गोली मार देते हैं। ख्रुश्चेव मृत चालक दल को पूर्व की अवस्था में लाते हैं और ट्रेन के पीछे की पटरियां उखाड़ देने हैं और सामने पलट देने का आदेश देते हैं। ब्रेझनेव मुस्कुराते हैं और ट्रेन के भीतर लटक रहे पर्दे को खींच देते हैं और दिखावा करते हैं कि ट्रेन चल रही है।
यह रूपक भारत की विदेश नीति की मौजूदा ठहराव काल की एक सटीक व्याख्या है। शायद, एक बेहद सख़्त सरकार और ठहराव के बीच आपसी रिश्ता होता है। शायद मोदी के सामने कश्मीर, सीएए, अर्थव्यवस्था, कोरोनावायरस जैसे इतने घरेलू संकट हैं कि उनके ध्यान का विस्तार गंभीर रूप से बहुत सीमित हो गया है। मुमकिन है कि आगे चलकर सोशल डिस्टेंसिंग के चलते "गले लगने की कूटनीति" का दायरा भी सिमट जाये।
कम से कम पांच साल के अंतराल के बाद एक "तेज़ दिमाग़" वाले विदेश मंत्री के आने के साथ भारतीय कूटनीति का ठिकाना पीएमओ से विदेश-नीति नौकरशाही की तरफ़ स्थानांतरित हो गया था। लेकिन, जब नौकरशाही कूटनीति चलाती, तो इसके फ़ायदे और नुकसान दोनों होते हैं। इसका फ़ायदा यह होता है कि संस्थागत धारणा पुनर्जीवित हो जाती है; इसका बड़ा नुकसान यह होता है कि नौकरशाह व्यापक तौर पर संजीदा और बेख़बर होते हैं। दिखते तो गंभीर हैं,लेकिन अंततः निरर्थक प्रयासों में समय ज़्यादा लगाते हुए ‘आधे-अधूरे काम करने के सिंड्रोम’ से ग्रस्त होते हैं।
आजकल यह सिंड्रोम साउथ ब्लॉक में बहुत अधिक दिखने को मिल रहा है। इन दिनों विदेश सेवा के अधिकारियों के बीच एक दिलचस्प मज़ाक ख़ूब चल रहा है कि दिवंगत सुषमा स्वराज के कार्यकाल के दौर में विदेश सचिव के रूप में कार्य करने वाले एस. जयशंकर ही वास्तविक विदेश मंत्री कहे जाते थे, अब जब कि वे ख़ुद इस समय विदेश मंत्री हैं, तो उन्हें वास्तविक विदेश सचिव बनना पसंद है। विदेश नीति के सच का यही सार है।
इन्हीं सब बातों से मिलकर जयशंकर का विश्व दृष्टिकोण बनता है और भारत की मौजूदा विदेश नीति और कूटनीति का विषय-वस्तु इन्हीं सब स्थितियों से बनती है। वे सोच-विचार करते हैं और मोदी इसे पूरी ऊर्जा और उत्साह के साथ निर्धारित भूमिकाओं में निष्पादित करते हैं। इस समय, एस.जयशंकर का विश्व नज़रिया दो छोरों वाली एक धुरी पर घूमता है,एक छोर तो यह है कि यदि आपको चीन के साथ कोई समस्या है, तो एक कप दार्जिलिंग चाय के लिए आप यहां आयें’; और दूसरा छोर यह है कि भारतीय घोड़े को अमेरिकी अस्तबल में ले जायें, अस्तबल में ताला लगा दें और ताले की चाबी को फेंक दें।
मिसाल के तौर पर मोदी का उनके ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष, स्कॉट मॉरिसन के साथ चार जून के दोपहर बाद हुई "आभासी शिखर सम्मेलन" को ही ले लें। आस्ट्रेलिया का दिल्ली को लेकर इस समय का मुख्य आकर्षण दोहरा है: पहला तो यह कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एक भावुक दोस्त हैं; दूसरा, उन्होंने बीजिंग को उलझा दिया है। ये दोनों बातें आपस में जुड़ी हुई हैं।
ट्रंप के एक वफ़ादार दोस्त के रूप में मॉरिसन ने भी "वुहान वायरस" मुहावरे का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था और कोविड-19 महामारी की उत्पत्ति की स्वतंत्र जांच की मांग करते हुए बीजिंग पर एक पागल सांड होने का आरोप लगा दिया था, और उनके मुताबिक़ जिसकी वजह से "200,000 से अधिक जानें चली गयीं है और वैश्विक अर्थव्यवस्था बंद पड़ गयी हैं।"
स्वाभाविक रूप से बीजिंग ने इस पर अपनी नाराज़गी जतायी और चेतावनी दी कि चीन इसका माकूल "जवाब” देगा। मॉरिसन को इस बात का होश था कि उन्होंने अपना पांव एक ऐसे मामले में घुसा दिया है, जिस मामले को छूने के लिए अमेरिका के सबसे क़रीबी सहयोगी भी डरते हैं।
लेकिन, जितना नुकासान होना था, वह तो हो चुका है। ऑस्ट्रेलिया से आयात पर चीन के हालिया जौ टैरिफ और गोमांस प्रतिबंध का इन सब से कोई लेना-देना हो सकता है या नहीं भी हो सकता है और व्यापार परामर्श विशेषज्ञों का कहना है कि चीनी कार्रवाइयां वास्तविक "तकनीकी निर्यात मसले" से प्रेरित थीं और कोविड-19 का "इस तरह के उठाये गये प्रमुख व्यापार क़दमों के पीछे का एकमात्र कारण या मुख्य प्रेरक कारक होने की संभावना नहीं है।"
लेकिन, मोदी-मॉरिसन के बीच हुई उस आभासी बैठक से एक उत्साहपूर्ण वातावरण तो बनता ही है। दिल्ली, चीनी प्रलोभन को लेकर कैनबरा के साथ हो लेने की कल्पना कर रही है। लेकिन मोदी जल्द ही मॉरिसन को कारोबार के रिश्ते में एक जकड़ा हुआ आदमी पायेंगे। मोदी को मालूम है कि उन्होंने स्पष्ट रूप से इस बात की अनदेखी कर दी है कि ऑस्ट्रेलिया अपनी समृद्धि के लिए चीन के साथ अपने उस व्यापार को श्रेय देता है, जो वास्तव में उसके दूसरे उन चार सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों के साथ उसके व्यापार की मात्रा की तुलना में कहीं अधिक है, जिनमें अमेरिका और जापान भी शामिल हैं !
यह बात भारत के उलट है, जो चीन के ख़िलाफ़ अपनी अवरोध रणनीति को लगभग जुनूनी रूप से आगे बढ़ाता रहता है, मगर जब चीन के साथ "चतुष्कोणीय" सहयोगी, जिसमें जापान और आस्ट्रेलिया शामिल है, उनकी संपन्न आर्थिक साझेदारी की बात आती है, तो वे एक बारीक फ़र्क़ वाला रवैया अपना लेते हैं। (यही हाल ताइवान और दक्षिण कोरिया के साथ भी है।) वे दिल्ली की हताश बेचैनी को ख़ुद को चीन से "अलग" करने में इस्तेमाल नहीं होने देते हैं।
मगर, अमेरिकी विदेश नीति आज एक चौराहे पर है। ट्रान्सअटलांटिक साझेदारी ने अपना आकर्षण खो दिया है और वॉशिंगटन के प्रमुख यूरोपीय सहयोगी चीन को लेकर बहुत सावधानी के साथ अपनी अतियथार्थवादी तेवर से ख़ुद को दूर कर रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में रूस के साथ चीन एक और संशोधनवादी शक्ति के रूप में शामिल है और अमेरिका-रूस-चीन त्रिकोण का झुकाव आज अमेरिकी आधिपत्य के ख़िलाफ़ है।
इस तरह के निराशाजनक परिदृश्य में एस.जयशंकर के अमेरिकी समकक्ष माइक पोम्पिओ अपने वैश्विक प्रभुत्व को बनाए रखने और अपनी परमाणु श्रेष्ठता स्थापित करने के उद्देश्य से चीन के ख़िलाफ़ एक नये अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन को एक साथ लाने की संभावना की तलाश कर रहे है। चीन को एक काल्पनिक दुश्मन क़रार देकर उस पर हमला करने का विलक्षण विचार जयशंकर या पोम्पिओ में से किसका है,यह तो हमें कभी पता नहीं चल सकता है, लेकिन अमेरिका में मौजूदा गृह युद्ध की स्थितियों में अमेरिका की उदार शक्ति कमज़ोर ज़रूर पड़ रही है।
इसके अलावा, विश्व अर्थव्यवस्था के विकास में संचालक बनने की अमेरिकी क्षमता लगातार कम होती जा रही है। अमेरिका के नेतृत्व वाला वैश्वीकरण अब ख़त्म हो गया है और इसकी जगह चीन के नेतृत्व वाले वैश्वीकरण ने ले ली है। स्पष्ट रूप से, अमेरिका अपने बार-बार आते विचार के रूप में चीनी-प्रलोभन के साथ गठबंधन बनाने को लेकर कड़े दबाव में है। विश्व स्वास्थ्य सभा की हालिया बैठक में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर अमेरिकी प्रभाव की सीमायें उजागर हो गयी हैं।
यूरोपीय संघ विश्व व्यवस्था में एक स्वतंत्र ध्रुव बनने की आकांक्षा रखता है, जबकि रूस अपनी सामरिक स्वायत्तता बनाए हुए है; रूस, चीन के साथ मिलकर एक अर्ध-गठबंधन बना रहा है और वैश्विक संतुलन को स्थानांतरित करने के ट्रंप प्रशासन के प्रयासों का कड़ा विरोध करता है, जो कि मॉस्को के रणनीतिक सिद्धांत के लिए बेहद अहम है।
मूल रूप से सवाल तो यही है कि अगर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को लेकर पोम्पिओ को जुनून है, तो यह बात भारत की चिंता क्यों बननी चाहिए? मौजूदा विश्व व्यवस्था में भारत को अपने हितों की रक्षा करने और अपने विकास को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त संभावना और स्वतंत्रता हासिल है।
चकित करने वाली बात तो यह भी है कि इसके बावजूद भारत ने पोम्पिओ के "इच्छुक के गठबंधन" में शामिल होने के लिए अपने आपको पेश कर दिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि पोम्पिओ के इस परियोजना का समर्थन करने वाले क्रमश: ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, इज़रायल और ब्राजील जैसे देशों के साथ भारत की क्या समानता है? आख़िर ऐसे समूह से भारत किस तरह लाभ उठा पायेगा, जिसे एक महीने के भीतर अपनी दूसरी बैठक के लिए जल्द ही मिलना है? क्या इससे भारत के चीन के साथ सीमा विवाद हल हो पायेगा?
सच्चाई तो यही है कि यह समय भारत के लिए कुछ बड़ा सोचने और अपने मक़सद को साकार करने को लेकर अपना व्यापक विस्तार करने वाला एक परिवर्तनकारी काल है, जिसमें ज़रूरी नहीं कि भारत एक पीढ़ी या दो पीढ़ी के भीतर ख़ुद को मध्यम आय वाले देश के रूप में रूपांतरित कर ले। इस समय को तुच्छ मनोरंजन और रियलिटी शो में नहीं गंवाना चाहिए।
अमेरिका के पास "मेक इन इंडिया" में भागीदारी के लिए निवेश योग्य अधिशेष या विशेषज्ञता की कमी है। अन्य देशों को "आत्मनिर्भर" बनाने में भी अमेरिका की कोई दिलचस्पी नहीं है। ख़ासकर ट्रंप की मानसिकता एक व्यापारी की मानसिकता है। जबकि, चीन, भारत की अर्थव्यवस्था के लिए विकास का वाहक हो सकता है। हमें यथार्थवादी और व्यावहारिक होना चाहिए।
हमें कोई भी तब तक बहुत सम्मान नहीं देगा,जब तक कि लाखों करोड़ों भारतीय एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े में जैसे-तैसे जीवन निर्वाह के लिए पैदल ही चल रहे हों या किसी शापित की तरह फ़्लाईओवर के नीचे रह रहे हों। जयशंकर के तंग नज़रिये से भारत के राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंच रहा है। यही इस ठहराव की एक वजह भी है।
सौजन्य: इंडियन पंचलाइन
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।