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भुगतान संतुलन के मोर्चे पर जमा होते संकट के तूफ़ानी बादल !

"वित्त वर्ष 2022-23 की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) के लिए भारत का चालू खाता घाटा बढ़कर पूरे 36.4 अरब डालर पर पहुंच गया है, जो सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी का 4.4 फीसदी होता है। पिछले नौ साल में पहली बार चालू खाता घाटा बढ़कर इस ऊंचाई पर पहुंचा है।"
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : Getty Images

 

वित्त वर्ष 2022-23 की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) के लिए भारत का चालू खाता घाटा बढ़कर पूरे 36.4 अरब डालर पर पहुंच गया है, जो सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी का 4.4 फीसदी होता है। पिछले नौ साल में पहली बार चालू खाता घाटा बढ़कर इस ऊंचाई पर पहुंचा है। इससे पहले, 2012 की अक्टूबर-दिसंबर की तिमाही के दौरान, चालू खाता घाटा 32.6 अरब डालर के स्तर पर पहुंचा था, जो तब की जीडीपी के 6.7 फीसदी के बराबर था।

माल व्यापार घाटे में होती बढ़ोतरी चिंताजनक

इसके बरक्स, 2022-23 की पहली तिमाही में चालू खाता घाटा 18.2 अरब डालर या जीडीपी के 2.2 फीसद के बराबर ही था और 2021-22 की दूसरी तिमाही में यानी एक साल पहले तो 9.7 अरब डालर यानी जीडीपी के 1.3 फीसदी के बराबर ही था। दूसरे शब्दों में इसी साल की पहली तिमाही के मुकाबले चालू खाता घाटा, जीडीपी के अनुपात में दोगुना हो गया है, जो कि बहुत भारी बढ़ोतरी है। और एक साल पहले, वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही के मुकाबले में तो, जीडीपी के अनुपात में चालू खाता घाटे में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है।

चालू खाता घाटे के विशाल आकार के अलावा भी कम से कम तीन कारणों से भुगतान संतुलन की स्थिति को चिंताजनक माना जाना चाहिए। पहली बात तो यह कि पिछली तिमाही के मुकाबले, चालू खाता घाटे में जो पूरे 18.2 अरब डॉलर की बढ़ोतरी दर्ज हुई है, वो मालों के व्यापार के घाटे से हुई बढ़ोतरी ही है यानी यह बढ़ोतरी, मालों के निर्यात की तुलना में, आयातों के ज़्यादा होने को दिखाती है। मालों के व्यापार का घाटा, पहली और दूसरी तिमाहियों के बीच 20 अरब डालर से ज़्यादा बढ़ा है यानी यह घाटा 63 अरब डालर से बढक़र 83.5 अरब डालर पर पहुंच गया है।

माल व्यापार घाटे में बढ़ोतरी एक लंबा संकट

भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुसार, माल व्यापार के घाटे में यह बढ़ोतरी दो कारणों से हुई है। पहला है, यूक्रेन युद्घ के चलते तेल की कीमतों में बढ़ोतरी और इसके चलते तेल के आयात पर होने वाले खर्चे में बढ़ोतरी। दूसरा कारण है, विश्व अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ने के चलते, हमारे माल निर्यातों का फीका प्रदर्शन। मीडिया में आर्थिक टिप्पणीकारों ने इनके साथ ही कुछ और कारकों को भी जोड़ा है, जैसे रुपये का कमज़ोर होना और घरेलू मांग में नयी जान आना, इससे भी मालों के व्यापार का घाटा बढ़ रहा है। लेकिन, वास्तव में ये दावे भ्रांतिपूर्ण हैं। रुपये के कमज़ोर होने से, अगर कोई असर पड़ना भी था, तो उससे तो हमारे देश का विदेश व्यापार घाटा बढ़ने की जगह पर, कम ही होना चाहिए था। रही बात घरेलू मांग में जान आने की तो, घरेलू मांग में तेजी इतनी भी खास नहीं है कि उससे चालू खाता घाटा इतना बढ़ जाए। आखिरकार, जीडीपी तो खुद ही निचले स्तर पर बनी हुई है, जबकि वही तो घरेलू आय का मुख्य स्रोत है।

दूसरी ओर, भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा चालू खाता घाटे में बढ़ोतरी के लिए जिन कारकों की पहचान की गई है, उनकी समस्या यह है कि ये कारक जल्दी से दूर होने वाले नहीं हैं। मिसाल के तौर पर यूक्रेन युद्घ कोई द्विपक्षीय मुद्दों पर, दो देशों के बीच का ही टकराव नही है। इसका संबंध तो साम्राज्यवाद के आने वाले दिनों के रूप से है और इसलिए इसका एक निर्णायक महत्व है। इसके चलते साम्राज्यवाद, इस युद्घ के किसी भी सरल तथा सौहार्दपूर्ण तरीके से समाधान का, प्रतिरोध करेगा। इसी प्रकार, विकसित पूंजीवादी दुनिया में मुद्रास्फीति तो इस युद्घ के छिड़ने से पहले ही आ गयी थी, फिर भी इस युद्घ के चलते मुद्रास्फीति ने बहुत ही गंभीर रूप धारण कर लिया है। इस मुद्रास्फीति की काट भी, विकसित दुनिया में मंदी तथा बेरोजगारी पैदा करने के प्रयास के ज़रिए की जा रही है। ज़ाहिर है कि यह सिलसिला अभी लंबा चलने वाला है। इसका अर्थ यह हुआ कि माल व्यापार का संतुलन, आने वाले काफी समय तक भारत के लिए, 2022-23 की दूसरी तिमाही जितना ही प्रतिकूल बना रहने वाला है।

अवमूल्यन के बीच बढ़ता माल व्यापार घाटा

चिंता का दूसरा कारण यह है कि माल व्यापार में यह घाटा, रुपये की विनिमय दर में काफी ज़्यादा गिरावट के बीच में आया है। वर्ष 2022 में ही रुपये की विनिमय दर में पूरे 10 फीसदी की गिरावट हो चुकी है। सामान्यत: इसकी उम्मीद की जाती है कि विनिमय दर में गिरावट से, व्यापार संतुलन में सुधार होना चाहिए। बेशक, इसके चलते व्यापार संतुलन में सुधार होने में समय लगता है और इसलिए, अगर विनिमय दर में गिरावट के बावजूद, फौरी तौर पर व्यापार संतुलन में गिरावट नज़र भी आ रही हो, तो इसमें हैरान होने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए। फिर भी, अगर व्यापार घाटा ज़्यादा समय तक ऊंचे स्तर पर बना रहता है, तो इससे अपरिहार्य रूप से विनिमय दर के बढऩे की प्रत्याशाएं पैदा होती हैं और इससे विनिमय दर में वास्तविक गिरावट आती है, जो अर्थव्यवस्था से वित्तीय पूंजी के पलायन का कारण बनती है।

चूंकि भारत के विदेश व्यापार घाटे के बढ़ने के पीछेे रिज़र्व बैंक ने जिन कारकों की पहचान की है, उनमें से कोई भी विनिमय दर में गिरावट से प्रभावित होने वाला नहीं है, और चालू व्यापार घाटे पर काफी समय के बाद भी कोई खास सुधार आने वाला नहीं है। और इसका अर्थ यह हुआ कि हम रुपये के अनियंत्रित अवमूल्यन के दौर में प्रवेश कर रहे हैं। भारतीय रुपये को पहले ही एशिया की सबसे कमज़ोर मुद्रा कहा जाने लगा है। लेकिन, ये हालात आगे बने ही रहने वाले हैं। और आयातित लागत सामग्रियों के चलते कीमतों में बढ़ोतरी के धक्के के ज़रिए, देश में मुद्रास्फीति बनी रहने वाली है।

ऐसा सोचा जा सकता है कि भारत के हांथों में चूंकि विशाल विदेशी मुद्रा संचित कोष जमा है, इसके बल पर रुपये के अनियंत्रित अवमूल्यन को रोका जा सकता है। लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए कि रुपये के मूल्य में अब तक जो अवमूल्यन हो चुका है, वह भी रुपये के मूल्य को स्थिर करने की अपनी कोशिशों में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा करीब 100 अरब डालर खर्च किए जाने के बाद हुआ है। 2022-23 की दूसरी तिमाही में ही विदेशी मुद्रा संचित कोष में पूरे 25 अरब डॉलर की कमी हो चुकी है। इसलिए, विदेशी मुद्रा संचित कोष में कमी करने के ज़रिए, रुपये के अवमूल्यन को नहीं रोका जा सकता है। इससे भी बड़ी बात यह कि जैसे-जैसे संचित कोष घटता जाएगा, वैसे-वैसे रुपए के खिलाफ  सट्टेबाज़ी का खेल तेज से तेजतर होता जाएगा। इससे हालात, और भी बुरे हो जाएंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि अपने लंबे-चौड़े विदेशी मुद्रा संचित कोष के बावजूद, भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति गंभीर चिंता का कारण हो चुकी है।

जीडीपी में वृद्घि अपने निचले स्तर पर

भारत की अर्थव्यवस्था के लिए भुगतान संतुलन की स्थिति अनिष्ट-सूचक होने की वजह यह है कि वर्तमान में माल व्यापार घाटे में बहुत भारी बढ़ोतरी, ऐसे हालात में हुई है, जब जीडीपी में वृद्घि बहुत थोड़ी ही है। 2022-23 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में वृद्घि दर, 2021-22 की उसी तिमाही के मुकाबले 13.5 फीसद रही थी। यह कोविड के चलते आर्थिक वृद्घि में आयी भारी गिरावट से उबरने को दिखाता था। लेकिन, दूसरी तिमाही में वृद्घि दर, 2021-22 की दूसरी तिमाही की तुलना में 6.3 फीसद ही रह गयी है। दूसरी तिमाही में सकल मूल्य संवर्धन (जीवीए) में वृद्घि इससे भी कम, सिर्फ 5.6 फीसद रही थी, जबकि जीवीए ही है जो सामान्य रूप से जीडीपी में कर संबंधी बदलावों के जो प्रभाव जुड़ जाते हैं, उन प्रभावों को अलग कर के, उत्पादन में वास्तविक बढ़ोतरी को ही सामने लाता है।

आर्थिक वृद्घि के धीमी पड़ने की वजह है, विनिर्माण क्षेत्र की रफ्तार का सुस्त पड़ना और ऐसा कोई प्रसंगत रूप से नहीं हो रहा है बल्कि यह तो एक ऐसा रुझान है जो बराबर बना ही हुआ है। संक्षेप में यह कि भारत का धीरे-धीरे बढ़ता औद्योगिक गतिरोध, जीडीपी की वृद्घि दर को नीचे खींच रहा है और माल व्यापार घाटे में वर्तमान बढ़ोतरी, जीडीपी की वृद्घि के इस तरह धीमी पड़ जाने के बावजूद हो रही है।

व्यापार घाटे में इस बढ़ोतरी के साथ, करीब-करीब निश्चित रूप से भारत में ब्याज की दरों में बढ़ोतरी बनी रहने वाली है। ब्याज की दरों में यह बढ़ोतरी, कई लक्ष्यों को ध्यान में रखकर की जा रही होगी। इसके ज़रिए एक ओर तो वैश्विक पूंजी को लुभाने की कोशिश की जा रही होगी ताकि व्यापार घाटे के लिए वित्त पोषण किया जा सके। दूसरी ओर, घरेलू मांग पर अंकुश लगाने के रास्ते से, घाटा कम करने की कोशिश की जा रही होगी। वही इसके अलावा इसके ज़रिए, रुपये की विनिमय दर में गिरावट से उन्मुक्त हो रही मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने की भी कोशिश की जा रही होगी। नव-उदारवादी पूंजीवाद के पास इन विविध आर्थिक मुश्किलों का मुकाबला करने लिए, एक यही हथियार है और आगे वाले दिनों में इस हथियार का जोर-शोर से इस्तेमाल किया जाने वाला है। लेकिन, यह तो जीडीपी की वृद्घि दर की स्थिति बदतर बनाने और बेरोज़गारी तथा आर्थिक बदहाली को बढ़ाने का ही काम करने जा रहा है। इसलिए, देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह तथ्य अनिष्ट-सूचक है कि माल व्यापार घाटे में भारी बढ़ोतरी, अर्थव्यवस्था में किसी बड़े उछाल की पृष्टभूमि में नहीं हो रही है बल्कि दबे पांव बढ़ते औद्योगिक गतिरोध की वजह से हो रही है।

यह संकट आगे और बढ़ेगा

कुछ लोग यह दलील देे सकते हैं कि आज जैसे हालात कोई पहली बार नहीं हुए हैं, और 2012-13 में भी देश को ऐसी ही दशा का सामना करना पड़ा था, जब अमरीका में फैडरल रिज़र्व द्वारा बॉन्ड की खरीदी धीरे-धीरे बंद की जा रही थी, जो अमरीका की मुद्रा नीति की कड़ाई को दिखाता था और इसके चलते भी माल व्यापार घाटे में ऐसी ही बढ़ोतरी हुई थी (जिसका ज़िक्र हम पीछे कर आए हैं) तथा उस समय भी रुपए का अवमूल्यन हो रहा था। लेकिन, उस प्रकरण ने हमारे देश के लिए आर्थिक मुश्किलों के दौर का इशारा तो किया था, लेकिन अर्थव्यवस्था में कोई ऐसा भारी संकट नहीं पैदा किया था, जिस पर काबू पाना ही मुश्किल हो।

अब एक बार फिर वैसी ही स्थिति का पैदा हो जाना, इतनी गंभीर चिंता का कारण क्यों माना जा रहा है?

तब और अब की स्थितियों के बीच एक मौलिक अंतर है। आज विश्व अर्थव्यवस्था ऊंची मुद्रास्फीति की गिरफ्त में है, जबकि तब ऐसा नहीं था। इसी अलग स्थिति का नतीजा है कि आज हर जगह ही ब्याज की दरें आम तौर पर बढ़ोतरी पर हैं और समूची विश्व अर्थव्यवस्था ही, भारी मंदी की ओर बढ़ रही है। उस समय यानी 2012-13 के प्रकरण के समय, भारतीय रिज़र्व बैंक के लिए भारत में ब्याज की दरें बढ़ाने के ज़रिए हालात को संभालना संभव था क्योंकि दूसरे देश अपनी ब्याज की दरों को नहीं बढ़ा रहे थे और ऐसे में भारतीय रिज़र्व बैंक का ऐसा करना, संकट को टालने में कामयाब रहा था। लेकिन, अब रिज़र्व बैंक द्वारा महज़ ब्याज की दरों के बढ़ाए जाने से ही काम बनने वाला नहीं है क्योंकि इस समय तो सभी पूंजीवादी देश अपने यहां ब्याज की दरों को बढ़ाने में ही लगे हुए हैं। ब्याज की दरों में यह आम बढ़ोतरी विश्व मंदी लाने जा रही है और इस तरह आने वाले काफी समय तक हमारे देश का माल व्यापार घाटा ऊंचा ही बना रहने वाला है। इसलिए, भारत में काफी समय तक के लिए आर्थिक संकट भड़कने वाला है, जैसा कि हमने शुरू में ही ज़िक्र किया।

यह सब उस बंद गली की ओर इशारा करता है, जिसमें अब नवउदारवादी पूंजीवाद पहुंच गया है और यह पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए पैदा हो गई एक गंभीर चुनौती का सूचक है। संक्षेप में यह कि विश्व पूंजीवाद अब ऐेसी अवस्था में पहुंच गया है, जो इसको लांघे जाने की नयी संभावनाएं पैदा करती है। लेकिन, इस मौके को बढ़कर पकड़ने के बजाए अगर हमारी अर्थव्यवस्था नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था के ही दायरे में फंसी रहती है और कर्ज लेने के सहारे, बेल-आउट के प्रयासों के ज़रिए ही, अपनी वर्तमान दुर्दशा से उबरने की कोशिश करती है, तब तो ये आने वाले दिनों के लिए उस आर्थिक संकट को और तीखा करने का काम करेगा, जिस संकट का आज हमारे देश को सामना करना पड़ रहा है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why India’s Balance of Payments is Headed for Hard Times

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