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जम्मू-कश्मीर: धान की जगह सेब और शहरीकरण से राशन की दुकानों पर कतारें हुईं लंबी, चावल की क़ीमत बढ़ी  

किसानों ने यह सोचकर धान के खेतों को सेब के बग़ीचों में बदल दिया था कि राशन से मिलने वाला चावल उनके लिए काफी होगा, पीडीएस आपूर्ति में कटौती के कारण लोग निजी दुकानों से महंगा चावल ख़रीदने पर मजबूर हो गए हैं।
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कभी हलचल भरी रहने वाली सारा की चावल मिल अब खाली हो गई है (फोटो - आतिफ अम्माद, 101रिपोर्टर्स)।

अनंतनाग, जम्मू-कश्मीर: सुबह की सर्दी में, इरशाद भट्ट अपने परिवार के लिए राशन लेने के दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में श्रीनगर से 75 किमी दूर स्थित शंगस में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) स्टोर यानी राशन की दुकान के बाहर इंतजार कर रहे थे। गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे रहने वाला उनका पांच लोगों का परिवार प्रति व्यक्ति पांच किलो मुफ्त चावल का हकदार है।

चालीस वर्षीय इरशाद ने बताया कि मिलने वाला बहुत अधिक नहीं है। "यहां तक कि मेरा 10 साल का बेटा भी एक महीने में पांच किलो से अधिक चावल खाता है, इसलिए निजी विक्रेताओं से महंगी कीमतों पर अधिक चावल खरीदना पड़ता है।"

इरशाद पहले अपने चावल के खेतों में खेती करते थे, लेकिन कुछ साल पहले उन्होंने कश्मीर में बढ़ रहे चलन से प्रभावित होकर अपने खेतों को सेब के बगीचों में बदल दिया था। "मुझे लगता है कि मुझसे ग़लती हुई, ख़ासकर सब्सिडी वाला अनाज काफी कम मिलने से यह स्थिति पैदा हुई है।"

जैसे ही जम्मू-कश्मीर में चावल का उत्पादन घटा, राशन के चावल पर अधिक निर्भर होने लगे। लेकिन तभी झटका लगा क्योंकि 23 दिसंबर, 2022 को, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को मिला दिया गया था, जिससे राशन पाने की पात्रता कम हो गई। तब तक, बीपीएल परिवारों को हर महीने प्रति व्यक्ति 5 किलो चावल मुफ्त मिलता था, जिसमें अतिरिक्त 5 किलो चावल 3 रुपये प्रति किलो की दर से खरीदने का विकल्प होता था। योजना की एकीकरण के बाद अतिरिक्त चावल का विकल्प हटा दिया गया है।

इसी तरह, गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले (एपीएल) परिवारों को 15 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम अनाज मिलता था, जिसमें हर परिवार को अतिरिक्त 10 किलोग्राम अनाज रियायती दरों पर खरीदने का विकल्प होता था। अंत्योदय परिवारों को पहले प्रति परिवार 35 किलोग्राम मुफ्त अनाज मिलता था, इसके अलावा उन्हें 3 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर 25 किलोग्राम अतिरिक्त अनाज उपलब्ध होता था। अतिरिक्त चावल का विकल्प अब दोनों श्रेणियों से हटा दिया गया है।

ऐसा लगता है कि किसान धान की खेती बंद करने से पहले हालात का ठीक से आकलन नहीं कर सके क्योंकि उन्हें इससे पहले कभी चावल की कमी का सामना नहीं करना पड़ा था। पीडीएस स्टोर प्रबंधकों के पास चावल का पर्याप्त स्टॉक होता था क्योंकि किसान चावल के लिए उन पर निर्भर नहीं थे। इसलिए, स्टोरकीपर उन परिवारों को अतिरिक्त उपलब्ध चावल आसानी से उपलब्ध करा सकते थे जिन्हें इसकी अधिक की जरूरत होती थी।

जम्मू-कश्मीर के लिए सब्सिडी वाले चावल का मासिक कोटा 2011 में 44,431 टन था, लेकिन 2023 तक यह घटकर 42,900 टन हो गया था। हालांकि गिरावट बहुत बड़ी नहीं है, बढ़ती आबादी और धान के खेतों में आए बदलाव ने पीडीएस पर निर्भरता बढ़ा दी है। सीमित आपूर्ति के चलते, लोगों के पास निजी डीलरों से उच्च दरों पर चावल खरीदने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था, जिससे कीमतें और बढ़ गईं और क्रय शक्ति कम हो गई।

धान की खेती का रकबा लगातार घट रहा है, एक सरकारी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि पिछले दशक में जम्मू-कश्मीर में 6,00,000 कनाल (33,309 हेक्टेयर) धान के खेत नष्ट हो गए हैं। चावल की खेती का क्षेत्रफल 2015-16 में 3,04,500 हेक्टेयर से घटकर 2022 में 2,68,800 हेक्टेयर रह गया है, जिससे अन्य राज्यों से चावल पर बढ़ती निर्भरता और भविष्य में केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) में मुख्य भोजन की संभावित कमी के बारे में चिंता बढ़ गई है। यूनियन टेरीटरी में चावल का उत्पादन 2012-13 में 8,18,100 टन से गिरकर 2013-14 में 6,10,900 टन और 2021-22 में 4,92,900 टन रहा गया है। 

एक के बाद एक झटके

कश्मीर के इतिहासकार और लेखक ज़रीफ़ अहमद ज़रीफ़ ने कहा कि, "धान की भूमि में बदलाव दशकों की अराजकता का परिणाम है, जिसमें पहले और अब की सरकारों ने इस मुद्दे की उपेक्षा की है। इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया है, जिससे लोगों को कृषि भूमि को निर्माण स्थलों और सेब के बागानों में स्वतंत्र रूप से परिवर्तित करने की अनुमति मिलती है।" 

one(ऊपर) राशन की दुकान पर शांगस की एक महिला (नीचे) कभी हलचल भरी रहने वाली सारा की चावल मिल अब खाली हो गई है (फोटो - आतिफ अम्माद, 101रिपोर्टर्स) 

यद्यपि निर्माण भूखंडों में बदलाव को रोकने के लिए एक कानून है, लेकिन बागवानी उद्देश्यों के लिए कृषि भूमि का इस्तेमाल करने के लिए कोई विशेष नियम नहीं हैं। चूंकि बागवानी अधिक लाभ देती है, किसान कृषि भूमि को बागवानी इस्तेमाल के लिए बदलाव करते हैं। फलों की फसलों का क्षेत्रफल 2020-21 में 3,34,719 हेक्टेयर से बढ़कर 6,978 हेक्टेयर हो गया है, जिसमें 2.08 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है।

अनंतनाग जिले में खिरम-सिरहामा की भूमि में आया बदलाव इसका एक उदाहरण है। 2017 में घाटी के पहले सेब मॉडल गांव के रूप में घोषित यह क्षेत्र 90 के दशक में चावल उत्पादन के लिए जाना जाता था। अब, कृषि क्षेत्र तेजी से चावल के खेतों से वृक्ष के क्षेत्र में बदल रहे हैं।

सिरहामा के एक किसान रियाज़ अली मीर (54) ने 101रिपोर्टर्स को बताया कि, “ख़िरम-सिरहामा की यह पूरी बेल्ट केवल चावल की खेती करती थी। बहुत कम लोग सेब का उत्पादन करते थे। पिछले 20 वर्षों में स्थिति बदल गई है। वर्तमान में, सिरहामा की 786.7 हेक्टेयर भूमि में से 458.2 हेक्टेयर से अधिक भूमि पर सेब के पेड़ लगे हुए हैं। उन्होंने कहा कि, "चूंकि सेब उगाने से अधिक लाभ होता है और कम श्रम की आवश्यकता होती है, जिन्होंने अभी तक अपने धान के खेतों को बगीचे में नहीं बदला है, वे आने वाले वर्षों में ऐसा करेंगे।" 

कश्मीर हिमालय में भूमि के इस्तेमाल और भूमि कवर में आए बदलाव शीर्षक वाला अध्ययन: संकेतक-आधारित डीपीएसआईआर दृष्टिकोण के साथ रिमोट सेंसिंग को जोड़ना 1990 से 2017 तक दक्षिण कश्मीर के 113 गांवों में भूमि इस्तेमाल में अंतर पर केंद्रित है। निष्कर्षों में पता चला कि कृषि भूमि में 5 फीसदी से अधिक की कमी के साथ एक उल्लेखनीय बदलाव जिसमें बागवानी में 4.29 फीसदी की वृद्धि हुई है। 

जलवायु परिवर्तन धान भूमि में आए बदलाव का एक मुख्य कारण है। 2014 में कश्मीर में बाढ़ और भीषण सूखा पड़ा था। 6.94 लाख एकड़ में हुई कुल 3,674 करोड़ रुपये की फसल के नुकसान में 2,100 करोड़ रुपये मूल्य की कृषि फसलें, मुख्य रूप से धान शामिल हैं। इसलिए, किसान जलवायु-लचीले विकल्पों की तलाश कर रहे हैं। हाल के सूखे ने उन्हें दक्षिण कश्मीर के कई हिस्सों में मक्का की ओर रुख करने पर मजबूर कर दिया है क्योंकि इसमें कम पानी की आवश्यकता होती है।

सीमित सिंचाई सुविधाएं भूमि के इस्तेमाल में आए बदलाव का एक अन्य कारण है। शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी (SKUAST)-कश्मीर में पढ़ाने वाले कृषिविज्ञानी प्रोफेसर शेख ताहिर ने 101रिपोर्टर्स को बताया कि, "जलवायु परिवर्तन के कारण, धान की खेती के महत्वपूर्ण चरणों (मई-जून) के दौरान किसानों को न्यूनतम या बिल्कुल भी पानी नहीं मिलता है। इससे उन्हें जमीन को परती छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है क्योंकि देरी से सिंचाई करने से चावल की मात्रा और गुणवत्ता काफी कम हो जाती है।" 

2020 तक जम्मू-कश्मीर में केवल 237 कस्टम हायरिंग सेंटर स्थापित किए गए हैं। SKUAST-कश्मीर के कृषिविज्ञानी और संकाय सदस्य डॉ. साद अहमद ने कहा कि, "धान किसानों के पास आधुनिक तकनीक और मशीनीकरण की कमी है।" यह सेब की ओर एक बदलाव को प्रेरित करता है जिसके लिए कम मशीनीकरण की आवश्यकता होती है लेकिन अधिक मुनाफा मिलता है।

बढ़ते प्रवासन के कारण, कश्मीर में पिछले दो दशकों में शहरीकरण और निर्माण क्षेत्रों में वृद्धि देखी जा रही है। विशेष रूप से, शहरी आबादी 1980 में 20 फीसदी से बढ़कर 2020 में 30 फीसदी हो गई है, जिससे भूमि की मांग और दरें बढ़ गई हैं और जिसने किसानों को अपने धान के खेत बेचने के लिए मजबूर किया है।

Twoशांगस में सूखा जलस्रोत, जो कृषि के लिए एक महत्वपूर्ण सिंचाई की जीवन रेखा है (फोटो-आतिफ अम्माद, 101रिपोर्टर्स)

मजबूत असर 

आखिरी बार, 20वीं सदी की शुरुआत में जम्मू-कश्मीर अपनी जरूरतों के हिसाब से  पर्याप्त चावल उगा पा रहा था। 21वीं सदी तक, केंद्र शासित प्रदेश में चावल की खेती केवल 55  फीसदी आवश्यकता को पूरा करती थी। पीडीएस के स्टॉक मैनेजर आशिक भट ने दावा किया कि, "हाल के वर्षों में, मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। पहले, मैं अपने शंगस स्टोर में आवंटित सारा चावल शायद ही कभी बेच पाता था, लेकिन अब सारा चावल सात से 10 दिनों के भीतर बिक जाता है।"

अनंतनाग के एक प्रमुख चावल व्यापारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि, “35 वर्षों तक चावल बेचने के बाद, आम तौर पर शादी के मौसम के दौरान चावल की ऊंची मांग देखने को मिलती थी, लेकिन अब मांग साल भर लगातार ऊंची बनी रहती है। कई बार, हमें डीलरों से आपूर्ति की कमी का भी सामना करना पड़ता है।'' 

डॉ. ताहिर ने बताया कि, “हमें पहले पंजाब और अन्य राज्यों से पर्याप्त मात्रा में चावल का स्टॉक मिलता था। हालांकि, कृषि में अधिक फायदे की तलाश ने इन राज्यों को अन्य फसलों की ओर स्थानांतरित कर दिया है। इस बदलाव से चावल की आपूर्ति कम हो सकती है।"  

कुछ साल पहले चावल की कीमतें 22 से 24 रुपये प्रति किलो से शुरू होती थीं। हालांकि, व्यापारी अब 30 किलोग्राम चावल न्यूनतम 1,100 रुपये (36 रुपये प्रति किलोग्राम) में बेचते हैं। व्यापारी ने बताया कि, "हम बिक्री मूल्य पर मुश्किल से 3 फीसदी का लाभ कमाते हैं क्योंकि हम डीलरों से उच्च दरों पर चावल खरीदते हैं और हमें अपनी बिक्री मूल्य को समायोजित करने की जरूरत होती है।"

पैसन के मुबाशिर राशिद खान (42) एक निजी पुस्तकालय चलाते हैं और एक एपीएल परिवार से हैं। "मेरे पास अन्य किराने के सामान पर कम खर्च करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। अन्यथा, हम व्यापारियों से चावल कैसे खरीदेंगे? दुकानदार इसे 40 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेच रहे हैं।"

बीपीएल परिवार से आने वाले अब्दुल भट (55) एक दुकान चलाते हैं और शांगस में रहते हैं। वे कहते हैं कि, ''चावल खरीद के लिए मुझे प्रति माह लगभग 3,000 रुपये की जरूरत है, जबकि पहले यह राशि 1,200 रुपये थी। इस अतिरिक्त खर्च से मेरे बेटे की पढ़ाई का खर्च पूरा हो सकता था।'' उन्होंने आगे कहा कि सरकार को पीडीएस चावल की मात्रा बढ़ानी चाहिए।

45 वर्षीय एक मजदूर तारिक अहमद (बदला हुआ नाम) जो अंत्योदय श्रेणी के अंतर्गत आते हैं, चित्तरगुल में रहते हैं। उनके परिवार में सात सदस्य हैं, इसलिए 35 किलो चावल काफी कम है। "मैं प्रति माह केवल 10,000 रुपये कमाता हूं। मैं इन दिनों चावल पर अतिरिक्त 1,500 रुपये खर्च करता हूं। पहले, मेरी आय का एक बड़ा हिस्सा मेरे बच्चों की शिक्षा पर खर्च होता था, लेकिन मुझे उन खर्चों में कटौती करनी पड़ी। मैं कम अन्य सभी मदों में खर्च कम करने पर मजबूर हूं।"

कुछ अन्य लोगों की बचत पर असर पड़ा है। अनंतनाग शहर के एक सरकारी कर्मचारी मुश्ताक भट (55) ने कहा कि, "मैं पहले अपने वेतन का एक अच्छा हिस्सा बचा लेता था, लेकिन सब्सिडी वाले चावल की कटौती ने इस पर असर डाला है।" अचबल के एक रेस्तरां मालिक फारूक शिगन (47) ने कहा कि, "अतिरिक्त चावल का खर्च उस हिस्से से पूरा किया जाता है जिसे हम आमतौर पर बचाते हैं। हम अन्य आवश्यक चीजों पर समझौता नहीं कर सकते।"

“चावल के लिए अन्य राज्यों पर बढ़ती निर्भरता व्यापार की गतिशीलता में बदलाव का प्रतीक है। हालांकि चावल का आयात तत्काल उपभोग की जरूरतों को पूरा कर सकता है, लेकिन इससे व्यापार घाटा हो सकता है,” कृषि अर्थशास्त्र में विशेषज्ञता रखने वाले कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के संकाय सदस्य डॉ मोहम्मद इकबाल राथर ने ये बात कही। 

कृषि भूमि कम होने से, कई लोग आजीविका के संभावित नुकसान के बारे में चिंतित हैं। पिछले 30 वर्षों से ट्रैक्टर के मालिक बशीर अली (50) ने अफसोस जताया कि, "हाल के वर्षों में मेरी कमाई में काफी गिरावट आई है। पहले, मैं प्रति सीजन [तीन महीने] लगभग 1 लाख रुपये कमा पाता था, लेकिन अब एक साल में मुश्किल से 25,000 से 30,000 रुपये कमा पाता हूं।" 

शांगस की एक मिल मालिक सारा (70) ने बताया कि, "हमारी मिल धान से भरी रहती थी और लोगों को अपने चावल को प्रोसेस करने के लिए अक्सर कई दिनों और कभी-कभी महीनों तक इंतजार करना पड़ता था। धान की खराब उपलब्धता ने मुझ पर काफी प्रभाव डाला है।"

(मोहम्मद आतिफ अम्माद कंठ जम्मू-कश्मीर स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101रिपोर्टर्स के सदस्य हैं, जो जमीनी स्तर के पत्रकारों का एक अखिल भारतीय नेटवर्क है।) 
 

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