खाद्यान्न संकट से निपटने के लिए सरकार की योजनाएं अजीब हैं!
खाद्यान्न के मोर्चे पर आ रही कई चिंताजनक खबरों के बीच नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार न केवल अजीब तरह से शांत दिख रही है, बल्कि पूरी खरीद-वितरण प्रणाली को बदलने के लिए अजीबोगरीब प्रस्ताव भी पेश कर रही है। यह मोदी सरकार की उसी सोच 'आपदा में अवसर' खोजने से प्रभावित हो सकती है जिसने अतीत में विनाशकारी प्रभाव पैदा किए हैं– बढ़ती महामारी के बीच कुख्यात कृषि कानूनों और श्रम संहिताओं को पारित करना, कोविड टीकाकरण अभियान का निजीकरण करने का प्रयास करना, जब अर्थव्यवस्था धीमी पड़ रही थी तब कॉरपोरेट टैक्स में कटौती करना आदि। इनमें से कुछ कदमों को सरकार को वापस लेना पड़ा, जैसा कि कृषि कानूनों या निजी टीकाकरण के मामले में हुआ; लेकिन दूसरे कदमों से, असफल उद्देश्यों के कारण देश को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है, जिसे अमीरों के टैक्स कटौती करने से चुकाया जा रहा है।
पैदा हुए खाद्यान्न संकट से निपटने के लिए उसी तरह के दृष्टिकोण को अपनाना इसे हल्के में लेना एक मूर्खता ही होगी। ऐसे लाखों लोग हैं जो ज़िंदा रहने के लिए सरकारी सब्सिडी वाले खाद्यान्न पर निर्भर हैं और इस व्यवस्था के साथ कोई भी छेड़छाड़ राजनीतिक रूप से विनाशकारी होने के अलावा बड़े पैमाने पर भूख का कारण बन सकती है।
लेकिन पहले, आइए देखें कि खाद्यान्न के मोर्चे पर क्या हो रहा है।
खाद्यान्न उत्पादन के मामले में बुरी खबर
हाल ही में 2022-23 के लिए खाद्यान्न उत्पादन का पहला अग्रिम अनुमान, जो केवल खरीफ सीजन को कवर करता है, यह दर्शाता है कि चावल का उत्पादन 104.99 मिलियन टन होने की संभावना है, जो लगभग 6.77 मिलियन टन या 6 प्रतिशत कम है। दालों में अरहर (अरहर), मूंग और उड़द का सभी पिछले साल के उत्पादन से कम रहने की संभावना है। मोटे अनाज और पोषक अनाज में 35.9 मिलियन टन से 36.6 मिलियन टन की मामूली वृद्धि होने की संभावना है। खरीफ में उत्पादित छह तिलहनों में से, उत्पादन पिछले वर्ष के 238.88 मिलियन टन की तुलना में 235.73 मिलियन टन होने का अनुमान है- जो 30 लाख टन से अधिक की कमी है। यह सब एक मनचले मानसून के कारण हो रहा है जिसमें शुरू में देरी हुई थी, और फिर कई अनाज उत्पादक इलाकों में इसकी कमी देखी गई और कुछ अन्य में अत्यधिक वर्षा देखी गई थी।
याद करें कि इस साल की शुरुआत में, 2021-22 की रबी गेहूं की फसल के उत्पादन में भी उत्तर भारत में शुरुआती गर्मी की लहर के कारण कमी देखी गई थी। गेहूं का उत्पादन 2020-21 में 109.59 मिलियन टन से गिरकर 2021-22 में 106.84 मिलियन टन यानी लगभग 30 लाख टन कम हो गया था।
आम तौर पर, खरीफ मौसम में चावल और कुछ महत्वपूर्ण दलहनों और तिलहनों के उत्पादन में यह गिरावट (गेहूं के उत्पादन में पहले की गिरावट के साथ) बढ़ गई होगी क्योंकि भारत, बड़े पैमाने पर खाद्यान्न भंडार का आदी हो गया है, और इसलिए भी क्योंकि दालों और खाना पकाने के तेल को किसी भी मामले में घरेलू मांग को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में आयात किए जाता हैं।
हालांकि, जैसा कि हम नीचे देखेंगे, कि कैसे सरकार इस संकट का अनुमान लगाने में असमर्थ रही, या शायद जोखिम से भरी नीतियों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने संभावित संकट को जन्म दिया है।
खाद्यान्न भंडार में बड़ी गिरावट
जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है, पिछले तीन वर्षों में सितंबर महीने के लिए खाद्यान्न स्टॉक आश्चर्यजनक रूप से गिर गया है। यह उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के तहत खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग द्वारा हर महीने जारी नवीनतम खाद्यान्न बुलेटिन (अगस्त के लिए) से लिया गया है। ये आंकड़े चावल, गेहूं और मोटे अनाज जैसे बाजरा, ज्वार आदि के स्टॉक पर आधारित हैं।
पिछले साल की तुलना में, इस सितंबर में खाद्यान्न भंडार में 37 प्रतिशत या कहिए लगभग 293 लाख टन की भारी गिरावट आई है। विशेष रूप से, गेहूं का स्टॉक पिछले साल के 518 लाख टन से गिरकर इस साल सिर्फ 248 लाख टन रह गया है, जबकि चावल का स्टॉक पिछले साल के 268 लाख टन से घटकर इस साल 245 लाख टन रह गया है।
इस गिरावट का कारण सरकार की कुप्रबंधन और अदूरदर्शिता से पैदा हुआ लगता है। पिछले साल चावल की फसल रिकॉर्ड 130.29 मिलियन टन की हुई थी। इसके बावजूद, इस साल चावल का स्टॉक कम है क्योंकि सरकार ने गेहूं खरीद में कमी की भरपाई के करने लिए 55 लाख टन से अधिक चावल को डायवर्ट किया है। यह दर्शाता है - कुछ हद तक - चावल की कमी रही है। लेकिन सवाल उठता है कि गेहूं क्यों कम है?
ऐसा गेहूं के निर्यात की हड़बड़ी के कारण हुआ है, तब-जब अनाज़ अप्रैल में बाजारों में आ रहा था। पीएम के नेतृत्व वाली सरकार ने निर्यात की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया जिसके कारण व्यापारियों ने खुले बाज़ार से गेहूं की भारी खरीद की। खरीद पिछले साल 433 लाख टन से घटकर इस साल सिर्फ 187 लाख टन रह गई– जो 57 प्रतिशत की भारी गिरावट को दर्शाता है। लेकिन सरकार को जल्द ही अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने समय पर निर्यात पर रोक लगा दी, नतीजतन हजारों टन गेहूं व्यापारियों के गोदामों या बंदरगाहों पर पड़ा रहा। यह अनाज़ न तो खरीदे गए खाद्यान्न के केंद्रीय पूल में उपलब्ध था और न ही इसका निर्यात किया गया था।
बेतुके नए विचार
पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई), जिस योजना के तहत मई 2020 से सभी व्यक्तियों को 5 किलो अनाज मुफ्त दिया जा रहा है, कुछ दिनों में वह समाप्त होने वाली है। हालाँकि इसे बढ़ाने की सार्वभौमिक माँग जा रही है, लेकिन इस लेख को लिखते समय सरकार की ओर से अभी तक कोई भी विचार सामने नहीं आया है। वास्तव में, विभिन्न 'विशेषज्ञ' तर्क दे रहे हैं कि लागत बहुत अधिक है और इसे बंद कर दिया जाना चाहिए। कम खरीद और कम स्टॉक के कारण यह निश्चित रूप से सरकार के लिए सुविधाजनक होगा। मोदी सरकार के दिमाग में शायद यही बात चल रही है कि इस तरह का कदम बेहद अलोकप्रिय होगा। जैसा कि आदत है, गेंद को ऊपर की ओर उछाला गया है और बताया जा रहा है कि इस पर अंतिम फैसला खुद प्रधानमंत्री करेंगे.
इस बीच, खाद्य सचिव, सुधांशु पांडे ने खाद्यान्न प्रणाली को पटरी पर लाने के लिए कुछ आवश्यक सुझाव दिए है। रोलर फ्लोर मिलर्स एसोसिएशन की एक बैठक को संबोधित करते हुए, पांडे ने सुझाव दिया कि वे गेहूं जमाखोरों पर नकेल कसेंगे, और व्यापारियों को अपने स्टॉक की घोषणा करने तथा स्टॉक पर सीमा लगाने के लिए कहा जाएगा। जाहिर तौर पर, इसका उद्देश्य बड़ी मात्रा में उस गेहूं का पता लगाना है जिसे न तो खरीदा गया है और न ही निर्यात किया गया है। यह धीरे-धीरे खुले बाजार में वापस आ रहा है, लेकिन गेहूं कमी के चलते पिछले कुछ महीनों में कीमतों में बढ़ोतरी हुई है।
इस सब चीर-फाड़ के पीछे छिपी धारणा यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के ज़रिए से वितरण- जो राशन की दुकानों के रूप में लोकप्रिय है- अब संभव नहीं है। इसलिए, मुक्त बाजार पर शिकंजा कसते हुए उन्हे खुले खेल की अनुमति देनी होगी।
यदि यह केवल एक सीजन की ही बात थी जिसे संबोधित किया जा रहा था, तो कोई जमाखोरी विरोधी उपायों की बात क्यों करेगा। लेकिन भविष्य के मामले में पांडे ने जो सुझाव दिए वे निम्नलिखित हैं।
पांडेय के अनुसार अगले वर्ष से खाद्यान्न की खरीद के लिए निजी खिलाड़ियों को आमंत्रित किया जाएगा। उन्होंने कहा कि केंद्र इस मामले पर पहले ही राज्य सरकारों को पत्र लिख चुकी है। उन्होंने स्पष्ट रूप से खुलासा किया कि जून में लंदन में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय अनाज सम्मेलन (आईजीसी), 2022 की हालिया यात्रा के दौरान, उन्होंने पाया कि मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, "निजी कंपनियां खरीद संचालन अधिक कुशलता से कर रही थीं"। आईजीसी अंतरराष्ट्रीय अनाज उत्पादकों और व्यापारियों के साथ-साथ वैश्विक बैंकों, परामर्शदाताओं और बहुपक्षीय कर्ज़ देने वाली एजेंसियों का एक मंच है।
संक्षेप में कहा जाए तो, खाद्यान्न आपूर्ति श्रृंखला में सबसे महत्वपूर्ण कदम यानि निजीकरण के लिए जमीन तैयार की जा रही है, जो पीडीएस के ज़रिए जरूरतमंद लोगों को सस्ती कीमतों पर खाद्यान्न की डिलीवरी सुनिश्चित करता है। विडंबना यह है कि खरीद का निजीकरण ठीक उसी वक़्त किया जा रहा है जब इस साल गेहूं की खरीद 56 फीसदी तक गिर गई है और खाद्य भंडार रिकॉर्ड निचले स्तर पर चल रहा है।
इस बात की बड़ी संभावना है कि आने वाले महीनों में, पीडीएस और खाद्य सुरक्षा को अपरिवर्तनीय रूप से बड़ा नुकसान होगा, और अंततः इसे मुनाफे के भूखे भेड़ियों यानि निजी खिलाड़ियों को सौंप दिया जाएगा।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
Govt’s Bizarre Plans of Dealing With Looming Food Grain Crisis
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