आख़िर क्यों तकलीफ़ भरे दौर से गुज़र रहे हैं रबर उत्पादक?
रबर की कीमतें, जिनमें कोविड महामारी के दौरान गिरावट के बाद कुछ सुधार दिखाई दिया था, एक बार फिर बैठ गई हैं। इसकी सबसे ज़्यादा मार केरल के किसानों पर पड़ रही है, जो देश की रबर की कुल पैदावार में से, क़रीब 80 फ़ीसदी हिस्सा पैदा करते हैं। लेकिन, केंद्र सरकार ने रबर उत्पादकों की मदद करने से साफ़-साफ़ मना ही कर दिया है। मुसीबत के मारे इन किसानों की मदद करने से अपनी मनाही को उचित ठहराने के लिए केंद्र सरकार की ओर से जो दलीलें पेश की गई हैं, उन्हें पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता है।
कृषि मूल्यों का सवाल: सरकार की बेतुकी दलीलें
सीपीआई(एम) के सांसदों के एक ग्रुप ने जब इस सिलसिले में वाणिज्य व उद्योग मंत्री, पीयूष गोयल से मुलाकात की और न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था के माध्यम से, रबर उत्पादकों के पक्ष में केंद्र सरकार द्वारा हस्तक्षेप किए जाने का आग्रह किया, तब मंत्री महोदय ने उनकी इस मांग को सीधे तौर पर खारिज ही कर दिया। इसके लिए अपनी दलील का खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया (न्यूज़क्लिक, 28 मार्च): “एमएसपी के अंतर्गत आने वाली फसलें आम तौर पर ऐसी मुख्य कृषि उपजें होती हैं, जो व्यापक पैमाने पर पैदा की जाती हैं तथा एक विशाल रकबे में पैदा की जाती हैं और ये ऐसी जन-उपभोग की वस्तुएं होती हैं, जिन्हें काफ़ी समय तक भंडार कर के रखा जा सकता है और ये खाद्य सुरक्षा के लिहाज़ से ज़रूरी होती हैं।” उनका कहना था कि नकदी फसलें, इस मानदंड के तहत आती ही नहीं हैं।
लेकिन, यह तो तर्क ही बहुत अजीब है। वास्तव में ऐसा लगता है कि मंत्री महोदय को तो इसकी ख़बर ही नहीं है कि एमएसपी की व्यवस्था शुरू ही क्यों की गई है और इसकी ज़रूरत क्या है? अगर किसी माल की कीमतें वक्त गुज़रने के बाद भी कमोबेश स्थिर बनी रहती हैं, तब तो एमएसपी की व्यवस्था की कोई ज़रूरत नहीं होगी। किसी भी फसल के लिए, न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी की ज़रूरत तो तब होती है, जब उसके दामों में ज़्यादा उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। और ऐसी अवस्था में एमएसपी की व्यवस्था यह सुनिश्चित करने का काम करती है, उस पैदावार की कीमतों में उतार-चढ़ाव की ऐसी नौबत ही नहीं आने पाए कि, उसे पैदा करने वाले किसान बर्बाद ही हो जाएं। संक्षेप में यह कि एमएसपी की ज़रूरत का इससे कोई लेना-देना ही नहीं है कि कोई फसल बहुत व्यापक रूप से उगाई जाती है या नहीं। उसकी ज़रूरत तो संबंधित पैदावार की कीमतों में ज़्यादा उतार-चढ़ावों की वजह से होती है, जिनसे किसानों को बचाना ज़रूरी होता है। आम तौर पर नकदी फसलों के मामले में कीमतों में उतार-चढ़ाव, खाद्यान्नों के मुकाबले कहीं ज़्यादा ही देखने को मिलता है।
एमएसपी की भूमिका और इसकी ज़रूरत
मूल्यों में उतार-चढ़ाव की वजह इस प्रकार है। अगर, न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में किसी पैदावार के लिए सरकार की ओर से कोई मदद ही उपलब्ध नहीं होगी, तो मांग से फालतू आपूर्ति की सूरत में उस पैदावार के दाम तब तक गिरते ही जाएंगे, जब तक निजी स्टॉक जमा करके रखने वालों को यह नहीं लगने लगेगा कि उस ख़ास कीमत पर पूरी की पूरी फालतू आपूर्ति जमा करके रख लेना, उनके लिए भविष्य में अच्छे फायदे का सौदा होगा। और ऐसा कीमतों के कितना गिरने के बाद होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि वे भविष्य में कितनी कीमत की उम्मीद करते हैं, जिस पर बेच कर वे आज की ख़रीदी से मुनाफ़ा कमा लेंगे। इसलिए, जब वर्तमान में कीमतें गिरती हैं, अगर भविष्य की प्रत्याशित कीमत जस की तस रहती हैं या कम गिरती हैं, तो ये निजी स्टॉक रखने वाले ख़रीदी के लिए ज़्यादा तत्पर होंगे और इसलिए वर्तमान कीमतों में गिरावट भी कम बनी रहेगी। इसलिए, भविष्य की प्रत्याशित कीमत जितनी स्थिर होगी, वर्तमान कीमत में गिरावट भी उतनी ही कम बनी रहेगी।
अब जहां तक ऐसी फसलों का सवाल है, जिनकी मांग आबादी के विशाल हिस्से के लिए और जिंदा रहने के लिए आवश्यक मांग हो, जैसे कि खाद्यान्न, जो विशेषताएं पीयूष गोयल के कथन के अनुसार एमएसपी के दायरे में आने की पात्रता बनाती हैं, भविष्य के लिए उनकी प्रत्याशित कीमतों के कहीं ज़्यादा स्थिर बने रहने की ही ज़्यादा संभावना है। ऐसा और कुछ नहीं भी हो तो भी सभी यह मानकर चलते हैं कि कोई भी समाज - शायद एक नृशंस औपनिवेशिक व्यवस्था ही इसका अपवाद होगी - इतने ज़रूरी माल की कीमतों में, बहुत ज़्यादा उतार-चढ़ाव नहीं होने देगा, भले ही वहां इसके लिए अलग से एमएसपी की व्यवस्था हो या नहीं हो। लेकिन नकदी फसलों के मामले में, जो या तो निर्यात कर दी जाती हैं या फिर अन्य ऐसे मालों के उत्पादन के लिए घरेलू लागत सामग्री के रूप में उपयोग में आती हैं, जो उतने आवश्यक नहीं होते हैं तथा जिनकी मांग ख़ुद काफ़ी घट-बढ़ सकती है, भविष्य में कीमतों में उस तरह की स्थिरता की प्रत्याशा होती ही नहीं है। इस वजह से भी नकदी फसलों की कीमतों में, खाद्यान्नों की कीमतों के मुकाबले ज़्यादा उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है।
रबर की कीमतों के आंकड़े ख़ुद-ब-ख़ुद इस बात की सचाई साबित कर देते हैं। साल 2014 में प्राकृतिक रबर के दाम, 245 रूपये प्रति किलोग्राम से गिरकर, 77 रूपये प्रति किलोग्राम पर आ गए थे। यह क़रीब 70 फ़ीसदी की गिरावट हुई, जो बरबाद कर देने वाली गिरावट थी। अपेक्षाकृत हाल में ही इस दाम में, 40 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज हुई है और 2021 के नवंबर में क़रीब 200 रूपये प्रति किलोग्राम के स्तर से गिरकर, यह अब 120 रूपये प्रति किलोग्राम पर आ गया है। ठीक इसी तरह के भारी उतार-चढ़ाव को संभालने के लिए, केंद्र सरकार द्वारा एमएसपी के माध्यम से हस्तक्षेप करने की ज़रूरत होती है क्योंकि एमएसपी की व्यवस्था न सिर्फ़ एक निचली सीमा तय कर देती है, जिससे नीचे कीमत जा ही नहीं सकती है, वह कीमतों में उतार-चढ़ाव के परिमाण पर भी अंकुश लगाती है।
नियंत्रणात्मक अर्थव्यवस्था के दौर में विभिन्न कमोडिटी बोर्डों की वाकई यही भूमिका रहती थी। वे एक सुनिश्चित न्यूनतम मूल्य (एश्योर्ड मिनिमम प्राइज़) पर नकदी फसलें ख़रीदते थे और जब भी कीमतों के बैठने की आशंका होती थी, अपरिहार्य रूप से बाज़ार में मजबूती से हस्तक्षेप करते थे। इसी तरह ये बोर्ड घरेलू कीमतों के उतार-चढ़ावों को अंंकुश में रखते थे। लेकिन, नवउदारवादी व्यवस्था के आने के बाद से, ये बोर्ड तो बने रहे हैं, लेकिन उनकी ख़रीदी तथा मार्केटिंग की भूमिका को ख़त्म कर दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि अब उन पर कीमतों को स्थिर करने के लिए, बाज़ार में हस्तक्षेप करने की ज़िम्मेदारी नहीं रही है।
खाद्य सुरक्षा और क्रय शक्ति का सवाल
अब हम पीयूष गोयल की दलील में पेश किए गए दूसरे तर्क पर आ जाते हैं। वह खाद्यान्न की कीमतों के स्थिरीकरण को तो खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक मानते हैं, लेकिन नकदी फसलों की कीमतों के स्थिरीकरण को, खाद्य सुरक्षा के लिए अप्रासांगिक मानते हैं। लेकिन, यह भी एक बेतुकी दलील है। बेशक, इसमें तो कोई दो राय नहीं हो सकती हैं कि खाद्यान्नों के लिए एमएसपी मुहैया कराना, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है। लेकिन, मांग को सहारा देकर उठाए रखने के लिए, नकदी फसलों के लिए एमएसपी का प्रावधान भी वैसे ही ज़रूरी है। रबर जैसी किसी नकदी फसल की कीमतों में गिरावट होती है, तो रबर उत्पादकों के हाथों में क्रय शक्ति घट जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि खाद्यान्न की औसत कीमतें जस की तस बनी रहने की स्थिति में भी, वे पहली जितनी मात्रा में खाद्यान्न ख़रीदने में असमर्थ हो जाएंगे।
लेकिन, बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है। अगर हम तर्क के लिए यह भी मान लें कि नकदी फसलों की कीमतों में गिरावट के बावजूद, उनके उत्पादक पहले जितना ही खाद्यान्न भी ख़रीदते रहते हैं, तब भी इसका मतलब यह होगा कि उन्हें खाद्यान्न को छोडक़र, अन्य मालों की अपनी ख़रीदी में कटौतियां करनी पड़ रही होंगी। और जब ऐसा होगा तो इसका मतलब यह होगा कि इन बाद वाले मालों के उत्पादकों के हाथों में क्रय शक्ति, संबंधित नकदी फसल की कीमतों में गिरावट के बिना जितनी होती, उससे घटकर रह जाएगी। इस घटी हुई क्रय शक्ति का नतीजा, इन बाद वाले उत्पादकों द्वारा खाद्यान्नों की अपनी ख़रीद में कटौतियां किए जाने के रूप में सामने आएगा। हो सकता है कि वे भी नहीं, कोई और ही उत्पादक खाद्यान्न की अपनी ख़रीद में कटौती करने के लिए मजबूर हो रहे हों क्योंकि उनके मालों की ख़रीद में किसी को कटौती करनी पड़ रही हो। यह सिलसिला कितने ही आगे तक चले, किसी न किसी जगह क्रय शक्ति में कमी के चलते, खाद्यान्न की ख़रीद में कटौती ज़रूर की जा रही होगी।
दूसरे शब्दों में, खाद्य सुरक्षा बनाए रखने के लिए, सिर्फ़ खाद्यान्न की पर्याप्त आपूर्तियां सुनिश्चित करना ही काफ़ी नहीं होता है बल्कि जनता के हाथों में पर्याप्त क्रय शक्ति होना भी ज़रूरी होता है, ताकि इस खाद्यान्न की पर्याप्त मांग हो। नकदी फसलों के लिए एमएसपी का प्रावधान करना, यह सुनिश्चित करने का भी साधन है कि जनता के हाथों में पर्याप्त क्रय शक्ति रहे। खाद्य सुरक्षा को सिर्फ़ पर्याप्त खाद्यान्न पैदा करने के पहलू से देखना, एक भ्रांतिपूर्ण विचार है। खाद्य सुरक्षा का अर्थ खाद्यान्न की पर्याप्त आपूर्ति के साथ ही, अर्थव्यवस्था में खाद्यान्न की पर्याप्त मांग का होना भी होता है। और अर्थव्यवस्था में इस तरह की मांग, एमएसपी की ऐसी व्यवस्था के ज़रिए ही सुनिश्चित की जा सकती है, जिसके दायरे में खाद्यान्न तथा नकदी फसलें, दोनों ही आते हों।
नवउदारवाद की चाकर सरकार?
अब पूछा जा सकता है कि रबर के बाज़ार में अपनी सरकार के हस्तक्षेप नहीं करने के क़दम को उचित ठहराने के लिए, केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री ऐसी कुतर्क भरी दलीलें क्यों दे रहे हैं? इस सिलसिले में यह याद रखना चाहिए कि बेशक, सरकार अब इसकी दलील दे रही है कि खाद्यान्नों के लिए तो एमएसपी ज़रूरी है, लेकिन नकदी फसलों के लिए नहीं, लेकिन चंद महीने पहले ही वही सरकार कुुख्यात नए कृषि कानूनों के ज़रिए, खाद्यान्नों के लिए भी एमएसपी की व्यवस्था को ख़त्म करने के मंसूबे बना रही थी, जिसके ख़िलाफ़ किसानों को साल भर लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी और वे अपने आंदोलन के सामने, सरकार को झुकाकर ही माने थे।
कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ पर टिकी यह सरकार, कृषि के क्षेत्र में कारपारेटों की घुसपैठ को आगे बढ़ाने के लिए बहुत उत्सुक है, जिससे कृषि को कारपोरेटों की मांगों के हिसाब से ढाला जा सके और हमारी कृषि में किसान और जनता तक कारपोरेटों को सीधे पहुंच हासिल हो जाए। बेशक, इसके चलते, हमारी किसानी घरेलू तथा विदेशी, दोनों ही प्रकार के एग्री-बिज़नस पर निर्भर हो जाएगी। लेकिन, नवउदारवादी व्यवस्था ठीक यही तो चाहती है। और यह केंद्र सरकार, ‘राष्ट’ के हितों को कायम रखने के अपने गला-फाड़ दावों के बावजूद, ठीक इसी नवउदारवादी एजेंडा को ही आगे बढ़ाने में लगी है। इस क्षेत्र में विश्व व्यापार संगठन, इस एजेंडा को बाकायदा खुलकर पेश भी करता आया है।
विश्व व्यापार संगठन बहुत ही बेतुके तरीके से कृषि के लिए सरकार की मदद में विभाजन करता है और उसे ‘बाज़ार-विकृतिकारी’ और ‘गैर-बाज़ार विकृतिकारी’ में बांट देता है। यह विभाजन करने के बाद, वह कथित ‘बाज़ार विकृतिकारी’ मदद को निशाना बनाता है। इसमें एमएसपी तथा सरकारी ख़रीद की व्यवस्थाएं शामिल हैं। दूसरी ओर, वह सीधे आय सहायता दिए जाने को जायज़ मानता है, जबकि अमरीका और यूरोपीय यूनियन की सरकारें, इसी तरह से अपने किसानों को अरबों डॉलर की सहायता हर साल देती हैं। इस विभाजन का बेतुकापन, इस तथ्य से ख़ुद-ब-ख़ुद ज़ाहिर हो जाता है कि यह माना जाता है कि ‘मूल्य विकृतियां’ तो ‘कुशलता’ को कमज़ोर करती हैं, इसीलिए उनका कथित रूप से त्याग किए जाने की ज़रूरत होती है। लेकिन, यह तो एक संपूर्ण रूप से प्रतिस्पर्धी बाज़ार पर ही लागू हो सकता है, जबकि हमारी आज की दुनिया की पहचान तो इजारेदारियों तथा अल्पतंत्रीय इजारेदारियों (ओलिगोपोलीज़) से होती है और एग्री-बिज़नस कॉर्पोरेशन्स इसका जीता-जागता उदाहरण हैं।
केरल की पहल, एक वर्गीय कदम
बहरहाल, जहां वर्तमान केंद्र सरकार अपने वर्गीय चरित्र को सच साबित करते हुए, कारपोरेटों के हाथों खेती-किसानी को कमज़ोर होते देखना चाहती है और इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए, रबर की फसल के उत्पादकों को कोई भी मदद देने से इनकार कर रही है, वहीं दूसरी ओर केरल की सरकार है जो अपने सीमित संसाधनों में भी, इन रबर उत्पादकों की मदद करने के लिए बढ़कर आगे आई है। केरल सरकार ने साल 2014 में एक रबर मूल्य स्थिरीकरण कोष कायम किया था, जिसकी राशि ताज़ा बजट में बढ़ाकर 600 करोड़ रूपये कर दी गई है। उसने रबर के लिए 170 रूपये प्रति किलोग्राम का न्यूनतम मूल्य तय किया है और यह ऐलान किया है कि रबर किसानों को बाज़ार से मिलने वाले भाव और इस न्यूनतम मूल्य में जो भी अंतर रह जाएगा, उसकी भरपाई इस कोष में सरकार करेगी।
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