जवाहरलाल नेहरू : अंतिम नायक होने का अर्थ
"महामानव चले गए, केवल बौने किस्म के लोग बचे हैं, उन्हीं से हमें काम चलाना है।"— भूतपूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव (अगस्त क्रांति की पचासवीं वर्षगाँठ पर मुम्बई में दिए गए भाषण का एक अंश)
"मेरा जन्म हिन्दू परिवार में हुआ, मेरे परिवार की तहज़ीब इस्लामी थी, मेरा लालन-पालन पश्चिमी तौर-तरीके से हुआ, यह महज़ संयोग ही है कि मैं हिन्दुस्तान में पैदा हुआ।"— जवाहरलाल नेहरू ('मेरी कहानी' पुस्तक से)
यह भी विचित्र संयोग ही है कि 1989-90 में आर्थिक क्षेत्र में जिस 'संरचनात्मक सुधार' के नाम पर नयी 'आर्थिक नीति' का आरंभ हुआ था, जिसने नेहरूवादी 'नियोजित विकास के मॉडल' को ख़ारिज कर दिया था, 2014 में उसके ठीक पच्चीस वर्ष पश्चात औपचारिक रूप से 'योजना आयोग' के समाप्ति की घोषणा करके इस मॉडल के ताबूत पर अंतिम कील ठोंक दी गई तथा सारी अर्थव्यवस्था मुक्तबाज़ार के हवाले कर दी गई। एक ऐसे ही समय में हम नेहरू का पुनर्मूल्यांकन कर रहे हैं, जब समाज में, जीवन में, साहित्य, कला और सिनेमा में नायक-खलनायक का भेद समाप्त हो गया है। सत्ता के शीर्ष पर भारी जनसमर्थन से एक ऐसा व्यक्ति बैठा है, जिसे खुलेआम हिन्दू नेता बतलाया जा रहा है तथा बहुत तेजी से संविधान द्वारा प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता के मूल्य को तिलांजलि देकर देश हिन्दुत्व की ओर आगे बढ़ रहा है।
आधुनिक भारत के निर्माता कहे जाने वाले जवाहरलाल नेहरू भारतीय पुनर्जागरण के सर्वोत्तम प्रतिनिधि थे, यह बात अलग है कि यूरोप के पुनर्जागरण की तरह प्रकृति, मौलिकता और सृजनशीलता के संदर्भ में भारतीय जागरण सीमित और पंगु था, औपनिवेशिक स्थिति और पूँजीवाद के अवसान काल में जन्मे राष्ट्रवादी जागरण में न तो वह आवेग था, न जुझारूपन, न मौलिकता और न ही सृजनशीलता, फ़िर भी जागरण तो था, उसकी अभिव्यक्तियाँ थीं, उसकी वाहक शक्तियाँ थीं और व्यक्ति थे।
जवाहरलाल नेहरू को अतीत से प्यार था, उससे अधिक भविष्य से और सबसे ज़्यादा वर्तमान से। वे अंतर्मंथन करते थे और सिंहावलोकन भी। एक ओर 'मार्डन रिव्यू' में 'चाणक्य' नाम से लिखा उनका आत्मविश्लेषणात्मक प्रसिद्ध लेख है, दूसरी ओर उनकी आत्मकथा 'भारत एक खोज' है। एक व्यापक दृष्टि से सम्पन्न नेहरू एक देशभक्त और राष्ट्रवादी थे। वे तिलक और अपने गुरु एवं पोषक गांधी से भिन्न थे, चाहे विकास के मॉडल में या फिर धर्म के मामले में।
इतिहास की गति बहुत निर्मम होती है, इसमें व्यक्ति के प्रतिभा की चकाचौंध स्थायी नहीं होती, स्थायी होता है यह कि व्यक्ति किन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है, उन शक्तियों द्वारा किए गए और स्वीकारे गए दायित्वों का कैसे निर्वाह करता और इतिहास की धारा को कितना आगे बढ़ाता है और कितना बाधित करता है।
अब हम नेहरू की उपलब्धियों पर एक सरसरी नज़र डालें— गुटनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक इतिहास लेखन, संसदीय जनतंत्र, नियोजित अर्थव्यवस्था, आधुनिकीकरण और समाजवाद आदि।
● गुटनिरपेक्षता:-पंचशील सिद्धांत के साथ नेहरू गुटनिरपेक्ष नीति के पोषक और प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्धि के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गए। महायुद्धों से दुनिया मुक्त हुई थी कि शीतयुद्ध का आतंक फैलने लगा था। सारी दुनिया दो गुटों में बँटती जा रही थी। 'बादुँग सम्मेलन' में नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की घोषणा कर दी। भारत की विदेश नीति नेहरू के इसी विचार पर आधारित थी। उन्होंने कहा था, "भारत अपने विकल्पों की स्वतंत्रता बनाए रखेगा।" इससे लाभ यह हुआ कि दोनों ख़ेमों में मददगार मिले, एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए इससे राजनीतिक ही नहीं आर्थिक लाभ भी हुआ। आज वर्तमान शासकों ने नेहरू की इस नीति को उलट दिया तथा अमेरिकी साम्राज्रवादी ख़ेमे के साथ जाकर खड़े हो गए।
● इतिहास लेखन:-नेहरू की दूसरी निर्विवाद उपलब्धि इतिहास लेखन के क्षेत्र में है, वे पेशेवर इतिहासकार नहीं थे, उन्होंने कभी इतिहास की बाकायदा शिक्षा नहीं ली थी, वे विज्ञान तथा कानून के विद्यार्थी थे, परन्तु उन्होंने जो भी इतिहास लेखन किया, वह अपने समकालीन इतिहासकारों से बेहतर था। रमेशचन्द्र मजूमदार जैसे राष्ट्रवादी इतिहासकार की तरह उन्होंने कहीं भी प्राचीन भारतीय इतिहास का महिमामंडन नहीं किया, लेकिन राष्ट्रवादी इतिहासकारों का इतिहास लेखन आज फासीवादियों के काम आ रहा है। 'विश्व इतिहास की झलक', 'भारत एक खोज' में उन्होंने जिस इतिहास बोध, इतिहास चेतना और रचनात्मक इतिहास लेखन का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। उन्होंने इतिहास बनाते हुए इतिहास लिखा, फिर भी इतिहास की शक्तियों को व्यक्तियों से अधिक महत्व दिया।
● धर्मनिरपेक्षता:- जवाहरलाल नेहरू की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि उनकी धर्मनिरपेक्षता की नीति थी। भारत जैसे बहुधर्मीय और बहुजातीय देश में साम्प्रदायिकता की जड़ें इतिहास में रही हैं। उपनिवेशवादियों द्वारा इस उपमहाद्वीप की आज़ादी के समय धर्म के नाम पर विभाजन, दो राष्ट्रों का जन्म ; जिसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों की हत्याएँ तथा विस्थापन विश्व इतिहास की दुखद घटनाओं में से एक है। इन सब में सबसे बड़ी बात हिन्दू फासीवादियों द्वारा गांधी हत्या; ऐसे कठिन हालात में धर्मनिरपेक्षता की नीति लागू करना भारत में एक बहुत कठिन काम था, जबकि कांग्रेस में ख़ुद हिन्दूवादी तत्वों का बहुमत था। संघ परिवार ; जिसने स्वाधीनता संग्राम में भाग नहीं लिया था, वह पाकिस्तान के मुस्लिम राष्ट्र की तरह देश को एक हिन्दू राष्ट्र में बदलना चाहता था तथा इसके लिए वह षड्यंत्रों में लगा हुआ था, परन्तु नेहरू धर्मनिरपेक्षता की नीति पर दृढ़ता से खड़े रहे।
आमतौर पर आजकल नेहरू पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे पश्चिम की तरह विशेष रूप से, फ्रांस की तरह धर्मनिरपेक्षता की नीति को देश में लागू न कर सके, जिसमें राज्य का धर्म से बिलकुल अलगाव रहता है। हमारे देश में जो धर्मनिरपेक्षता की नीति लागू की गई, वह सर्वधर्म समभाव की नीति थी, जिसमें राज्य द्वारा सभी धर्मों को समान रूप से विकसित होने का अवसर दिया जाता है, लेकिन इस नीति में सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें बहुसंख्यकों को ही अधिक फायदा मिलता है, परन्तु इसके लिए केवल नेहरू को दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं हो सकता था। आज अपनी तमाम कोशिशों के बावज़ूद अगर फासीवादी तत्व देश को हिन्दू राष्ट्र में नहीं बदल पाए हैं, तो इसके लिए नेहरू द्वारा लागू की गई धर्मनिरपेक्षता की नीति ही ज़िम्मेदार हैं, चाहे इसका स्वरूप जो भी हो। यही कारण है कि आज फासीवादियों को नेहरू का भूत सबसे ज़्यादा आतंकित करता है।
● आधुनिकीकरण:- नेहरू की सबसे प्रचारित छवि है आधुनिक भारत के निर्माता की। एक ऐसा समाज; जो पूरी तरह से तकनीकी तथा मूल्यों-विचारों से गैरआधुनिक था, वहाँ का आधुनिकीकरण एक कठिन काम है। निश्चित रूप से वह देश को आधुनिक मंदिरों के रूप में विकसित करना चाहते थे। बड़े-बड़े बाँध, तकनीकी संस्थाओं तथा प्रयोगशालाओं का निर्माण उन्हीं के समय में हुआ। उन्हें लगता था कि आधुनिकीकरण की यह प्रक्रिया देश को वैचारिक रूप से भी आधुनिक बनाएगी, धार्मिक और जातीय समस्याएँ हल हो जाएँगी, अलग से आधुनिकता के लिए कोई आंदोलन चलाने की ज़रूरत नहीं है। परन्तु वे सम्भवतः भारत की जटिल सामाजिक बुनावट को नहीं समझ पाए, यही कारण है कि आज हिन्दू फासीवाद सिर उठा रहा है। मशीनी उपकरण, शहरीकरण, उपग्रह तथा परमाणु ऊर्जा संस्थान से जो आधुनिकता विकसित हुई, उसकी आज स्थिति यह है कि इसरो के वैज्ञानिक उपग्रह छोड़ने से पहले मंदिरों में पूजा-पाठ करते हैं। एक ओर हम मंगल तथा चाँद पर यान भेज रहे हैं और दूसरी ओर खाप पंचायतों के हुक्म से प्रेमी जोड़ों को फाँसी पर लटकाया जा रहा है। तमाम आधुनिक बड़े-बड़े वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थानों के बावज़ूद मध्ययुगीन बर्बर मूल्य-मान्यताएँ समाज में मौजूद हैं। वैज्ञानिक मनोवृत्ति विकसित करने का प्रयास कभी नहीं किया गया। पिछड़ी मूल्य-मान्यताओं से समझौता किया गया, जो आज अपने चरम पर पहुँच गया है।
● प्रजातंत्र और समाजवाद:- प्रजातंत्र की सबसे लोकप्रिय परिभाषा- 'जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए सरकार'। अब्राहम लिंकन की प्रजातंत्र की यह अवधारणा क्या नेहरू और उनकी सरकार पर लागू होती थी? दो उदाहरण काफ़ी होंगे- हिन्दुस्तान में जनता द्वारा चुनी गई पहली वामपंथी सरकार केरल में गैरजनवादी तरीके से उनके प्रधानमंत्रित्व काल में गिराई गई। दूसरा उन्हीं के राज में आज़ाद भारत में अनेक पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा जैसे'- बिहाइंड दी कर्टन इन कश्मीर', 'डिस्ट्रीब्यूट थ्रू न्यूट्रल आईज', यहाँ तक कि मेमन की रामायण सहित अनेक अन्य किताबें। निश्चय ही नेहरू विरोध और असहमति का सम्मान करते थे, लेकिन सत्ता में धन और बल की बढ़ती भूमिका पर नियंत्रण लगाने का सचेत प्रयास नहीं कर पाए और राजनीतिक भ्रष्टाचार उनके ही शासन काल में बढ़ना शुरू हो गया था। यहाँ यह बात भी सत्य है कि आज की तरह वह दौर अभी नहीं आया था कि मंत्रिमण्डलों में खुलेआम अपराधी बैठे हों, प्रधानमंत्री खुलेआम अपराधियों के मंच की भागीदारी करें, परन्तु इसकी नींव उनके शासनकाल में पड़ चुकी थी।
● नेहरू के सरोकारों में समाजवाद सबसे विवादास्पद है, नेहरू के जीवनी लेखक 'बी आर नन्दा' उनकी आर्थिक नीतियों पर मार्क्सवाद का स्पष्ट प्रभाव बतलाते हैं। यह सही है कि वे सोवियत संघ से बहुत प्रभावित थे मिश्रित और नियोजित अर्थव्यवस्था सम्भवतः इसी का परिणाम थी,परन्तु बाद में वे कांग्रेस की पूँजीपरस्त नीतियों के बड़े समर्थक बनकर उभरे, यहाँ तक कि समाजवाद के मामले में लोहियावादी समाजवादियों से भी बहुत पीछे चले गए।
और अंत में इतिहास किसी व्यक्ति का मूल्यांकन उसी मंच पर करता है, जिस पर वह अभिनय कर रहा होता है। आज़ादी के बाद का लम्बा समय नेहरूयुग था, ढेरों फिल्मकार, कलाकार और निर्देशक उनके समाजवाद से गहरे तक प्रभावित थे -बलराज साहनी, राजकपूर और गुरुदत्त की फिल्मों का आशावाद नेहरू के समाजवाद का आशावाद था। वे स्वयं कहते थे, "भारतीय जनता मुझे बेहद प्यार करती है।" इसमें काफ़ी हद तक सच्चाई भी है। 1962 में चीन के हाथों भारत को मिली विवादास्पद पराजय ने नेहरू के जादुई मिथक को काफ़ी हद तक तोड़ दिया था, परन्तु उनके जीवनपर्यंत उनके नायकत्व की छवि बरकरार रही। वे भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के अंतिम नायक थे। राष्ट्रवाद के अंधराष्ट्रवाद में बदलने के साथ ही नायक-खलनायक का अंतर धूमिल पड़ता गया, अब तो उसे पहचानना भी मुश्किल है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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