जितना दिखता है, उससे कहीं ज़्यादा अहम है झारखंड चुनाव
झारखंड में 26 फ़ीसदी आबादी वाले आदिवासी समुदाय के रोष के बीच शनिवार को विधानसभा चुनाव शुरू हो गए। 2014 में हुए विधानसभा चुनावों के बाद से ही कई वजहों से आदिवासियों में नाराज़गी है। तब चुनावों के बाद बीजेपी के वरिष्ठ नेता रघुबर दास ने राज्य के पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के तौर पर कार्यभार संभाला था।
झारखंड को सन् 2000 में बिहार से अलग कर राज्य बनाया गया था। इसका उद्देश्य आदिवासियों की संस्कृति और संसाधनों की रक्षा के साथ इलाके का विकास करना भी था। ओबीसी समुदाय से आने वाले रघुबर दास का मुख्यमंत्री के तौर पर चुनाव आदिवासियों की नाराज़गी की एक वजह भी है। ऊपर से रघुबर दास छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगांव इलाके से ताल्लुक रखते हैं, इससे आदिवासियों की नाराज़गी और बढ़ गई। जैसे ही दास ने शपथ ली, आदिवासियों ने विरोध करना शुरू कर दिया था। संथाल जनजाति के लोगों ने धरना प्रदर्शन भी किए थे।
झारखंड में आदिवासी बड़ी ताकत हैं। 81 विधानसभा सीटों में से 28 जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। 2014 में बीजेपी ने 37 सीटें जीती थीं। अपने सहयोगी, 'ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन या AJSU' के साथ मिलकर बीजेपी ने बहुमत के आंकड़े को पार किया था। AJSU ने पांच सीटों पर जीत दर्ज की थी। AJSU के पास कुर्मी जाति का समर्थन है, इसके चलते यह छोटा नागपुर इलाके में मजबूत पार्टी बन जाती है। अब यह देखना होगा कि क्या बीजेपी औऱ AJSU की लड़ाई में कुर्मी वोट बंटेगा या नहीं।
कुलमिलाकर झारखंड के समाजिक परिवेश को धर्म नहीं, बल्कि नृजातीयता (एथनिसिटी) प्रभावित करती है। मुख्यमंत्री के जन्मस्थल और समुदाय के अलावा, रघुबर दास से बीते पांच सालों में आदिवासियों की नाराज़गी की कई दूसरी वजहें भी हैं। आदिवासियों के बड़े हिस्से में यह भावना है कि कॉरपोरेट और बीजेपी की सांठगाठ के चलते उन्हें अधिकारों से वंचित कर हाशिए पर धकेला जा रहा है।
इसकी वजह है कि 34 फ़ीसदी वोट पाने वाले बीजेपी गठबंधन ने 2016 के नवंबर में राज्य के भू-कानूनों (छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट,1908 और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट,1949) में संशोधन कर दिया। आदिवासियों की ज़मीन के हस्तांतरण को रोकने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए इन कानूनों का संशोधन आदिवासियों की जनजातीयता के खत्म करने की ओर बढ़ाए गए कदम हैं।
ऊपर से निवास नीतियों ने भी जनजातीयता को खत्म करने की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया। झारखंड राज्य के बनने के एक महीने बाद ही प्रवासी लोगों में अपना सामाजिक आधार बनाने की बीजेपी की मंशा सामने आ गई थी।
2001 में बाबूलाल मरांडी सरकार ने एक बिल का प्रस्ताव दिया। इसमें 1932 के ज़मीन रिकॉर्ड को आधार बनाकर आदिवासी और मूलवासी बनाम दिकुस (प्रवासी) का मामला निपटाने की बात थी। इस कानून को रांची हाई कोर्ट ने 2001 में ख़ारिज कर दिया। बाद में 1986 को आधार बनाया गया। मतलब 1986 से जो भी झारखंड में रह रहा है, वह राज्य का निवासी है। जनसंख्या बदलाव ने प्रवासियों की संख्या को बढ़ा दिया है। इससे आदिवासियों पर प्रवासियों का प्रभाव और भी मजबूत हुआ है।
राज्य में बीजेपी के मुख्य राजनीतिक विरोधी झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM), कांग्रेस, और झारखंड विकास मंच (JVM) हैं। ये आदिवासियों में यह बात पहुंचाने में कामयाब रहे हैं कि बीजेपी सरकार पहले से बने कानूनों में छेडछाड़ कर आदिवासियों की कीमत पर उद्योगपतियों को खुश कर रही है।
प्रस्तावित संशोधनों के खिलाफ राज्यपाल द्रौपदी मुरमू के पास 192 याचिकाएं आईं। यह याचिकाएं आदिवासी और पर्यावरण समूहों से जुड़े संगठनों ने भेजी थीं। आदिवासियों ने बड़े स्तर पर बिल का विरोध किया। इसे विधानसभा में भी चुनौती दी गई। राष्ट्रीय मीडिया में भी खबरें छपीं कि मुख्यमंत्री आदिवासियों की नब्ज़ समझने में नाकामयाब रहे। आखिर राज्यपाल ने बिल पर हस्ताक्षर नहीं किए।
लेकिन उसी साल बीजेपी ने झारखंड विधानसभा में एक और संशोधन का प्रस्ताव रख दिया। इसके ज़रिए केंद्रीय स्तर पर बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून को बदला जाना था। संशोधित कानून के जरिए सरकार को चार जिम्मेदारियों से छूट दे दी गई: पहली, इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट का निर्माण जिसमें स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी और हॉस्पिटल जैसी कई चीजें शामिल थीं। दूसरा, भूमि अधिग्रहण के दौरान सामाजिक प्रभाव का आकलन। तीसरा, प्रभावित लोगों की सहमति औऱ चौथा, खाद्यान्न सुरक्षा। भूमि अधिग्रहण कानून को प्रभावित लोगों को सही मुआवज़े दिलाने के लिए लाया गया था। पर झारखंड सरकार के संशोधित कानून से यह उद्देश्य खत्म कर दिया गया।
इससे इस बात को और बल मिला कि बीजेपी और कॉरपोरेट की सांठगांठ, राज्य में आदिवासियों को अधिकारों से वंचित कर रही है। इसी के चलते 2017 के मई में तीन सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी हर सीट पर हारी।
2019 आते-आते स्थिति और खराब हो गई है। बीजेपी को सामान्य तौर पर समर्थन देने वाली महतो आदिवासी जनजाति में भी पार्टी के प्रति अविश्वास पैदा हो गया है। यह अविश्वास सुदेश महतो की अगुवाई वाली AJSU के अकेले चुनाव लड़ने से भी साफ दिख जाता है। AJSU 2019 में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ रही है।
टाटा की नगरी, जमशेदपुर (टाटानगर) झारखंड में है। बीजेपी द्वारा चुनाव आयोग के सामने रखे गए तथ्यों के मुताबिक़, पार्टी को टाटा समूह के 'इलेक्टोरल ट्रस्ट' से 473 करोड़ रुपये मिले हैं। यह पार्टी के अनुदान का 75 फ़ीसदी हिस्सा है। सिर्फ टाटा ही नहीं, देश के उद्योगपतियों का बड़ा हिस्सा झारखंड के चुनावों में रूचि लेता है। राज्य के पास देश के खनिज भंडार का 40 फ़ीसदी हिस्सा है। यहां घने जंगल हैं, मतलब कि एक उद्योगपति की चाहत की सभी चीजें (ज़मीन, खनिज और पानी) यहां मौजूद हैं। इसके चलते भी महज़ 81 सीटों वाली विधानसभा का चुनाव ज़्यादा वजनदार हो जाता है।
2017 तक जब भू कानूनों को संशोधित करने की बीजेपी की कोशिशें कामयाब नहीं हुईं, तो पार्टी अपने हिंदुत्व के एजेंडे पर वापस लौट आई। अगस्त, 2017 में सरकार ने विधानसभा में 'एंटी कंवर्जन' विधेयक रखा। इसमें उल्लंघन के लिए तीन साल की सजा और 50 हजार रुपये तक का जुर्माना भी था।
फिर भी पार्टी की राह आसान नहीं हुईं। पठालगाड़ी आंदोलन के ज़रिए बीजेपी द्वारा आदिवासियों की जनजातीयता खत्म करने की कोशिशों का प्रतिरोध हुआ। इस आंदोलन का आगाज़ रघुबर दास द्वारा 2014 में ''लैंड बैंक'' को बढ़ावा देने के साथ हुआ। इस बैंक के ज़रिए हजारों एकड़ गैर कृषि भूमि को कॉरपोरेट को दिए जाने का रास्ता साफ किया गया था। रघुबर दास ने 16 और 17 फरवरी 2017 में 'मोमेंटम झारखंड' नाम से 'ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट' करवाई थी। इसमें कई एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए और लैंड बैंक को एक नीति के तौर पर माना गया। जून, 2019 में एक और समिट हुई। इसमें पता चला कि प्रदेश सरकार के राजस्व और भू सुधार विभाग ने पहले ही 21 लाख एकड़ ज़मीन, प्रमुखत: ग्रामीण इलाकों में ले ली है।
पत्थलगड़ी आंदोलन अब इस तरह की नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध की पहचान बन चुका है। इसके ज़रिए आदिवासी समुदाय केंद्र और राज्य सरकार की ताकतों को ग्रामसभा की शक्तियों से बदलने की कोशिशों में लगे हैं। सात दिसंबर को खूंटी जिले और आसपास के इलाके में चुनाव होने जा रहे हैं। इस दौरान कुछ दूसरे जिलों की विधानसभा सीटों पर भी वोटिंग होगी। इस पट्टी के कई गांवों में एक पत्थर पर हरा रंग पोतकर मुख्य दरवाजे पर लगाया गया है। इस पर संविधान के वह प्रावधान लिखे हैं, जो आदिवासियों के आत्म-प्रतिनिधित्व और ज़मीन के अधिकारों को दिखाते हैं।
इन पत्थरों की सिल्लियों पर PESA (पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरिया) एक्ट, 1966 के कुछ अंश भी लिखे हैं। ऐसे गांवों में साफ तौर चेतावनी देते हुए लिखा गया है कि किसी भी बाहरी/प्रवासी/दिकु का अंदर आना मना है। इस तरह के विरोध के ज़रिए जनजातीय समूह पांचवी अनुसूची का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसमें ''कानून के गैर विधायी स्त्रोंतों, परंपरा आधारित प्रचलनों को प्राथमिकता दी गई है।''
बता दें PESA एक्ट कोई साधारण कानून नहीं है। इसके ज़रिए ऐसी सरकार को बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जो लोकतांत्रिक भागीदारी वाली स्थानीय परंपराओं पर आधारित हो। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के ''ओडिशा माइनिंग कॉरपोरेशन बनाम पर्यावरण मंत्रालय और अन्य'' में कहा कि ''हर ग्रामसभा के पास अपनी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों, लोक परंपराओं और विवाद सुलझाने के सामुदायिक तरीकों को सुरक्षित करने का अधिकार है। इसलिए वन अधिकार कानून और PESA एक्ट के सेक्शन 4(d) के तहत ग्रामसभा का कर्तव्य है कि वो आदिवासियों और दूसरे वनवासियों की परंपराओं, पहचान, संसाधनों और तौर-तरीकों का संरक्षण करे।''
रांची से सिर्फ एक घंटे की दूरी पर स्थित खूंटी इस आंदोलन का केंद्र है। इस इलाके में बिरसा मुंडा और जयपाल सिंह मुंडा जैसे नामी आदिवासी नेताओं का जन्म हुआ है। पत्थलगड़ी के जवाब में बीजेपी ने दमन की नीति अपनाई। 26 जून, 2018 को सरकार ने 10 हजार खूंटी लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मुक़दमा दायर कर दिया। जैसा कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा, 'इस घटना से हमारे ऱाष्ट्र की आत्मा को झटका लगना था और मीडिया को तूफान खड़ा कर देना था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।'
आदिवासियों की नाराज़गी के उलट मई, 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में एनडीए ने आसानी से आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज कर ली। आरक्षित सीटों पर ज़्यादा वोटिंग हुई और बीजेपी की जीत का अंतर भी बड़ा रहा। झारखंड में संथाल, हो, मुंडा, ओरांव और दूसरे आदिवासी समूहों में अंत: जनजातीय विभाजन कोई छुपी बात नहीं है। यह विभाजन हर समूह के चुनावी व्यवहार में भी झलकता है। हालांकि यह वफादारी बदलती रहती है। जैसे बीजेपी के साथ रहने वाली महतो जनजाति हाल में पार्टी के खिलाफ मजबूती से खड़ी रही है।
झारखंड में आरएसएस की पहुंच भी एक बड़ा कारण है। संगठन प्रदेश के भीतरी इलाकों में भी पहुंच बना चुका है। जैसा वांडरब्लिट यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर तारिक ताशिल ने 2016 में लिखी किताब, 'एलाइट पार्टीज़ पूअर वोटर्स: हाउ सोशल सर्विस विन वोट्स इन इंजिया' में बताया है कि अपने शैक्षणिक संगठन शिशु विद्या मंदिर के ज़रिए आरएसएस बेहद मजबूत हो चुका है।
ऊपर से आदिवासियों में आर्थिक स्तर पर निचले से मध्यम तबके में पहुंच चुके लोग बीजेपी की तरफ जा रहे हैं। ज़्यादा वंचित तबके, जो ज़्यादातर ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, वो आज भी जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आदिवासी राजनीति का यह पहलू बिहार की 'नक्सल बेल्ट' में हाल में आए आर्थिक और राजनीतिक बदलाव से बहुत ज़्यादा अलग नहीं है। क्रांतिकारी वाम आंदोलनों से लोगों, खासकर दलितों का जो वर्ग आर्थिक और सामाजिक तौर पर सशक्त हुआ, वो मुख्यधारा की पार्टियों की ओर मुड़ गया है। यह पार्टियां राज्य का संरक्षण देने की बेहतर स्थितियों में होती हैं।
इससे अलग, लोकसभा और विधानसभा में मतदाताओं की चिंताएं अलग-अलग होती हैं। हाल ही में हरियाणा और पंजाब चुनावों में बीजेपी के आधार में बहुत गिरावट आई है। झारखंड में पार्टी अंदरूनी लड़ाईयों से भी जूझ रही है। तुलनात्मक तौर पर विपक्ष में मौजूद महागठबंधन जिसमें JMM, कांग्रेस और आरजेडी शामिल हैं, वह ज़्यादा मजबूत दिखाई दे रहा है। इसमें केवल एक गड़बड़ यह हो सकती है कि राज्य के 14 फ़ीसदी मुस्लिम इन्हें एकमुश्त वोट न दें। क्योंकि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने बीस प्रत्याशी उतारे हैं। AIMIM 'अब बराबरी की बात होगी' नाम का हैशटैग भी चला रही है। इसका मतलब है कि अब मुस्लिम सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगेंगे।
देश के आधे खनिज भंडार के साथ झारखंड उद्योगपतियों के लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं है। यह उन जनजातीय लोगों का प्रदेश भी है, जो इन संसाधनों पर संवैधानिक, कानूनी और प्राकृतिक अधिकार होने का दावा भी करते हैं। इन बड़े सवालों के जवाब देने की स्थिति में झारखंड चुनाव ज़्यादा वजनदार हो जाता है।
जीशान अहमद कानून के छात्र हैं और मोहम्मद सज्ज़ाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाते हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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