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कर्नाटक चुनाव नतीजे: न 'मुखड़ा' काम आया न 'दुखड़ा'

हालांकि यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि कर्नाटक में जो हुआ वह 2024 के लोकसभा चुनावों में भी होगा। लेकिन एक बात तय है कि यदि विपक्ष एकजुट होकर भाजपा की विभाजनकारी राजनीति के मुक़ाबले, सामाजिक न्याय के मुद्दों को तरज़ीह देता है तो 2024 में भाजपा को चुनौती दी जा सकती है।
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फ़ोटो साभार: PTI

भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा अवतार से पहले, 1980 के दशक में पार्टी की बागडोर जब अटल-आडवाणी के हाथों में होती थी और जो करीब-करीब 2004 तक उनके हाथों में रही, तो पार्टी पर अक्सर इल्ज़ाम यह लगता था कि इसकी कथनी और करनी में बहुत फर्क है। इसलिए मीडिया में आडवाणी जी को अक्सर एक कट्टर हिन्दू और अटल विहारी वाजपेयी को उदार चेहरा माना जाता था।

लेकिन विपक्षी पार्टियां खासतौर पर वामपंथी और कांग्रेस पार्टी इसे एक धोखे या भाजपा की राजनीतिक रणनीति के रूप में देखती थीं। यही कारण है कि अटल बिहारी वाजपेयी को भाजपा का मुखौटा कहा जाने लगा, जिसका काम कहना कुछ और करना कुछ और था। ऐसा खासतौर पर बाबरी मस्जिद के विध्वंस और गुजरात में 2002 में मुस्लिम विरोधी दंगों के संदर्भ में कहा जाने लगा, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने बाबरी विध्वंस की आलोचना की थी हालांकि वे कुछ ही समय बाद अपने बयान से पलट गए थे, दूसरी टिप्पणी गुजरात दंगों पर थी जिसमें उन्होंने मुख्यमंत्री मोदी को अपना राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। इन दोनों बयानों के अर्थ, उदार बनाम कट्टर चेहरे के रूप में लगाए जाने लगे। इसके कुछ अन्य कारण भी मौजूद हैं जो वाजपेयी को भाजपा के उदार चेहरे के रूप में पेश करते हैं, मोदी के विपरीत वाजपेयी, देश के विकास में पिछली गैर-भाजपा सरकारों के योगदान को मानते हैं। वाजपेयी के लोकसभा के भाषणों के वीडियो आजकल सोशल मीडिया में आम हैं जिनमें वे एक उदार छवि में नज़र आते हैं और गैर-भाजपा सरकारों की आलोचना के साथ-साथ उनके योगदान को भी रेखांकित करते नज़र आते हैं।

पहले की भाजपा बनाम आज की भाजपा?

भारतीय जनता पार्टी के भीतर कट्टर बनाम उदार, नाम के लिए ही सही, लेकिन हमेशा से ये दो चेहरे मौजूद थे। लेकिन 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी-शाह ने इस मामूली से भ्रम को भी मिटा दिया और खुले तौर पर हिंदूराष्ट्र के एजेंडे की वकालत शुरू कर दी। इसका स्पष्ट मतलब यह था कि भाजपा को अब किसी उदार चेहरे की जरूरत नहीं थी क्योंकि उसने 2014 में ही खुद के बलबूते पर लोकसभा में बहुमत हासिल कर लिया था और कई राज्यों में चुनाव जीत रही थी या फिर वह मजबूत विपक्ष के रूप में उभर रही थी। अल्पसंख्यकों, खासतौर पर मुसलमानों को हिंदूराष्ट्र के निर्माण में सबसे बड़ी अड़चन बताया जाने लगा और भाजपा के स्थानीय से लेकर राज्य नेताओं तक के भाषणों में मुसलमानों का सफाया तक करने का आह्वान किया जाने लगा। पूरे देश में गौ-हत्या, लव-जिहाद, मंदिर-मस्जिद और अब रामनवमी जैसे त्योहारों पर मस्जिदों के सामने से जुलूस निकाल कर सांप्रदायिक घृणा फैलाना, भाजपा और बजरंग दल जैसे कट्टर हिन्दू संगठनों के रोज़मर्रा की गतिविधियों का हिस्सा बन गया है।

यही कारण है कि भाजपा ने अपने चुनावों की रणनीति भी बदल दी और सीधे सांप्रदायिक एजेंडे पर वोट मांगा जाने लगा। 2014 में विकास के एजेंडे से सीधे सांप्रदायिक एजेंडे पर चुनाव लड़ना भाजपा की पसंदीदा रणनीति बन गई है क्योंकि यह रणनीति कहीं न कहीं धर्म के आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रही थी और इस ध्रुवीकरण से केवल भाजपा को ही फायदा हो रहा था। हिन्दी पट्टी में भाजपा का बढ़ता समर्थन इस रणनीति को जारी रखने का सबब बना। जिस रणनीति का सबसे बड़ा फायदा हमने उत्तर-प्रदेश के चुनावों में देखा जहां भाजपा ने अपना मत प्रतिशत को बढ़ाते हुए हालांकि कम सीटों के साथ दूसरी बार सत्ता में वापसी की थी। भाजपा के लिए राजनीतिक तौर पर उत्तर-प्रदेश काफी महत्व रखता है।

फिर कर्नाटक में यह रणनीति काम क्यों नहीं आई?

इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि बी.एस. बोम्मई सरकार कथित तौर पर भ्रष्टाचार में लिप्त थी और विपक्ष के भारी हमलों का सामना कर रही थी। ठेकेदारों की यूनियनों से लेकर स्कूल एसोसिएशनों तक ने आरोप लगाया था कि बोम्मई सरकार 40 प्रतिशत कमीशन वाली सरकार है। न तो भाजपा के राज्य नेताओं ने और न ही मोदी या अमितशाह ने इन आरोपों का जवाब दिया और नतीजतन आम जनता में बोम्मई सरकार की छ्वि एक भ्रष्ट सरकार वाली बन गई। भाजपा ने इन मुद्दों को संबोधित करने के बजाय हिजाब, हलाल, टीपू सुल्तान और अजान को लेकर सांप्रदायिक विवाद खड़ा कर दिया ताकि उन्हे प्रदेश की जनता को ध्रुवीकरण करने में मदद मिल सके। यही कारण है कि भाजपा नेताओं की एक महत्वपूर्ण संख्या अक्सर धार्मिक आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के लिए मुस्लिम विरोधी टिप्पणियों में शामिल होती रही।

लेकिन जब लगा कि मात्र ध्रुवीकरण की राजनीति से काम नहीं चलेगा और भाजपा के खिलाफ स्पष्ट सत्ता विरोधी भावनाएं काफी मजबूत हैं तो बोम्मई सरकार ने अंतिम समय में मौजूदा आरक्षण प्रणाली को पुनर्व्यवस्थित करने का प्रयास किया। यह विचार दो प्रमुख समुदायों लिंगायतों और वोक्कालिगाओं के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित तबकों यानी आदिवासियों और दलितों को उप-कोटा पेश कर खुश करने की कोशिश थी। जिसकी पूर्ति पिछड़े मुसलमानों के लिए मौजूद 4 प्रतिशत कोटा को खत्म करके की गई थी, जो फिर से भाजपा की मुसलमानों के प्रति घृणा को दिखाती है।

क्यों ये तरकीबें काम नहीं आईं?

इन तरकीबों ने भी पार्टी के पक्ष में काम नहीं किया क्योंकि विपक्ष और जनता ने इस बात को मान लिया कि यह सरकार की एक गैर-जिम्मेदार चुनावी नौटंकी है जो राज्य में चुनाव के मुहाने पर यूपी और अन्य हिन्दी भाषी राज्यों की तर्ज़ पर सोशल इंजीनियरिंग करके चुनाव जीतना चाहती है। इसके अलावा, नई आरक्षण प्रणाली की ध्रुवीकरण प्रकृति ने सभी समुदायों के भीतर विश्वास दिला दिया कि वह ऐसा कर समाज को विभाजनकारी रास्ते पर धकेलना चाहती है।

महंगाई और बेरोज़गारी बने बड़े मुद्दे

भाजपा शायद आम जनता को विभाजनकारी राजनीति के ज़रिए यह भुलाने की कोशिश कर रही थी कि महंगाई और बेरोजगारी दो बड़े मुद्दे हैं, जो देर-सवेर राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर जोर पकड़ेंगे। चुनाव अभियान के दौरान पता चला कि पूरे कर्नाटक में, मतदाता महंगाई, विशेष रूप से एलपीजी गैस सिलेंडर की कीमतों में कई गुना वृद्धि के बारे में शिकायत करते नज़र आए। यही कारण है कि जब मतदाता वोट करने गए तो सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो नजर आए जहां कई मतदाता एलपीजी सिलेन्डर पर माला अर्पित करने के बाद मत डालने गए। इसी तरह, लोगों ने यह भी बताया कि कैसे बोम्मई सरकार रोजगार पैदा करने में विफल रही है। कई लोगों ने कथित तौर पर आरोप लगया कि सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों द्वारा भारी रिश्वत की मांग से बोम्मई सरकार के कार्यकाल के दौरान औद्योगिक विकास को भारी धक्का लगा है।

न मुखड़ा काम आया न दुखड़ा

भाजपा में यह आम धारणा बनी हुई है कि यदि कुछ काम न आए तो प्रधानमंत्री मोदी हैं जिनकी अपील आखिरी उपाय है जो मतदाताओं को अंतत भाजपा के पक्ष में मतदान करने में सहायक होगी। लेकिन मोदी जो आज भाजपा का जीत का मुखड़ा बने हुए हैं वह भी काम न आया। कांग्रेस ने जब बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की बता कहीं तो भाजपा साथ ही प्रधानमंत्री मोदी हमलावर रुख में नज़र आए और अपने लंबे रोड शो में उन्होंने कांग्रेस को फिर से हिन्दू-विरोधी और बजरंगबली विरोधी पार्टी करार देते हुए जनता से कांग्रेस को दंड देने को कहा और भाजपा के पक्ष में मतदान करने की अपील की। उन्होंने रोड-शो के दौरान जय बजरंगबली के नारे भी लगाए, हालांकि धार्मिक आधार पर मत मांगना गैर-कानूनी है।

फिर प्रधानमंत्री मोदी का वह दुखड़ा भी काम न आया जिसमें उन्होंने कहा था कि कांग्रेस और उनके नेताओं ने उन्हें 91 बार गाली दी। इस पर एक चुनावी सभा में कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने चुटकी लेते हुए कहा कि हमारे देश के ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो खुद के दुखड़े जनता के सामने रो रहे हैं, लेकिन उन्हें जनता की तकलीफों की परवाह नहीं है। शायद जनता में प्रियंका गांधी की अपील ने ज्यादा काम किया और मोदी का दुखड़ा नहीं चला। नतीजतन, कर्नाटक की जनता भाजपा के विभाजनकारी एजेंडे को समझ गई थी और उसने अपने मुद्दों पर मतदान किया। इसलिए यह कहना सही होगा कि, न तो मुखड़ा और न ही दुखड़ा काम आया।

कर्नाटक चुनाव में भाजपा की हार से लगता है कि भाजपा की अखिल भारतीय पार्टी के रूप में नज़र आने की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। क्योंकि एकमात्र दक्षिणी राज्य कर्नाटक में इसका पतन हो गया है। इन नतीजों के संकेत स्पष्ट हैं कि हिंदुत्व का राजनीति, हिंदुओं को एकजुट करने की भाजपा की राजनीतिक रणनीति, लोगों के तात्कालिक मुद्दों, भाजपा के कुशासन और उदासीनता की धारणाओं को दूर करने के लिए अपर्याप्त है।

हालांकि यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि कर्नाटक में जो हुआ वह 2024 के लोकसभा चुनावों में भी होगा। लेकिन एक बात तय है की यदि विपक्ष एकजुट होकर भाजपा की विभाजनकारी राजनीति के मुक़ाबले, सामाजिक न्याय के मुद्दों को तरज़ीह देता है तो 2024 में भाजपा को चुनौती दी जा सकती है।

क्योंकि हक़ीक़त तो यह है कि 2019 के बाद से, जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ है, भाजपा बिहार, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब की सत्ता खो चुकी है – और पहले भी वह मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़ में चुनाव हार चुकी है। हरियाणा में चुनाव बाद गठबंधन कर वापस सत्ता में लौटी है। ये महत्वपूर्ण नुकसान हैं।

हाल के उपचुनावों से संकेत मिला है कि ओडिशा और तेलंगाना में इसकी अपील कम हो गई है, जहां 2019 के लोकसभा चुनावों में इसने आश्चर्यजनक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया था। उत्तर प्रदेश निकायों के चुनावों में भी जहां उसने सभी मेयर पद जीत लिए हैं वहाँ भी नगरपालिका की कुल 199 सीटों में से उसे 89 मिली हैं जबकि बाकी विपक्ष को 110 सीटें मिली हैं, नगर पंचायत की कुल 544 सीटों में से भाजपा को 193, बाकी विपक्ष को 351 सीटें मिली हैं। इसलिए पूरा खेल विपक्ष के हाथ में हैं।

देखना यह है की अब विपक्ष 2024 के आम-चुनाव के मद्देनज़र कैसी रणनीति बनाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले से ही कांग्रेस के इर्द-गिर्द केंद्रित एक राजनीतिक मोर्चा बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। हालांकि, ममता बनर्जी, के. चंद्रशेखर राव, यहां तक कि अखिलेश यादव और मायावती जैसे कुछ क्षेत्रीय नेता कांग्रेस की केंद्रीयता को स्वीकार करने में हिचक रहे हैं। शायद कर्नाटक में कांग्रेस की जीत कुछ हद तक विपक्षी एकता को सुलभ बनाने में काम आ सकती है।

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