कश्मीरः इतिहास का तोड़ना-मरोड़ना शांति की राह में बाधक
देश पर नोटबंदी लादते समय कहा गया था कि इससे कश्मीर में आतंकवाद पर रोक लगेगी. नोटबंदी से जनता को भले ही कितनी ही परेशानियां हुई हों इससे आतंकवादियों को कोई तकलीफ हुई है, ऐसा नहीं लगता.
अपने दावों के खोखला सिद्ध होने के बाद भाजपा ने फिर एक बार नेहरू को दोषी ठहराने की अपनी नीति का प्रयोग करना शुरू कर दिया है. केन्द्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि कश्मीर के हालात के लिए नेहरू की गलतियां जिम्मेदार हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फरमाया कि अनुच्छेद 370 सारी समस्याओं की जड़ है. इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता. इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने के लिए कांग्रेस के महासचिव जयराम रमेश ने रिजिजू को ‘डिस्टारशियन' बताया.
रिजिजू के अनुसार यह कहना गलत है कि कश्मीर के महाराज भारत से विलय के मामले में असमंजस में थे या ना-नुकुर कर रहे थे. उनका कहना है कि हरिसिंह तो भारत का हिस्सा बनने के लिए तत्पर थे समस्या तो नेहरू ने खड़ी की. सच यह है कि भारत के स्वाधीन होते समय राजे-रजवाड़ों को यह स्वतंत्रता दी गई थी कि वे या तो भारत में शामिल हो जाएं या पाकिस्तान में या अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखें. कश्मीर के शासक महाराजा हरिसिंह ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया. भारत का हिस्सा न बनने के उनके निर्णय को तत्कालीन प्रजा परिषद का समर्थन प्राप्त था. इसी प्रजा परिषद के सदस्य आगे चलकर भारतीय जनसंघ का हिस्सा बने और यही जनसंघ वर्तमान भाजपा का पूर्व अवतार है. कश्मीर के शासक अपने विशेषाधिकार नहीं खोना चाहते थे और इसलिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ ‘स्टेंडस्टिल एग्रीमेंट' करने का प्रस्ताव किया था. पाकिस्तान ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और इसलिए स्वाधीनता के बाद कश्मीर के डाकखानों और अन्य सरकारी इमारतों पर पाकिस्तान का झंडा फहराया गया. भारत ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया.
बाद में पाकिस्तानी सेना के समर्थन से कुछ आदिवासी और पठान समूहों ने कश्मीर पर हमला कर दिया. बहाना यह बनाया गया कि चूंकि जम्मू में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की जा रही थी इसलिए उसका बदला लिया जाना जरूरी था. जम्मू में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा स्वयं महाराजा द्वारा पोषित थी क्योंकि वे चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर के कम से कम एक हिस्से में हिन्दुओं का बहुमत रहे. इस पाक समर्थित हमले के कारण हरिसिंह को भारत से सैन्य मदद मांगनी पड़ी. भारत ने यह शर्त रखी कि वह अपनी सेना तभी भेजेगा जब महाराजा हरिसिंह भारत सरकार के साथ विलय की संधि पर हस्ताक्षर करें, जिसमें रक्षा, संचार, मुद्रा और विदेशी मामलों को छोडकर, सभी शक्तियां राज्य की विधानसभा में निहित हों.
जहां तक अनुच्छेद 370 का प्रश्न है, इसे हरिसिंह के जोर देने पर लागू किया गया क्योंकि वे जम्मू एवं कश्मीर के लिए एक विशेष दर्जा चाहते थे. ‘‘कश्मीर सरकार और नेशनल कांफ्रेंस दोनों ने हम पर यह दबाव डाला कि हम इस विलय को स्वीकार कर लें और हवाई रास्ते से सेना कश्मीर भेजें. परंतु उनकी यह शर्त भी थी कि कश्मीर के लोग शांति और व्यवस्था पुनर्स्थापित होने के बाद इस विलय पर विचार करेंगे..." (जवाहरलाल नेहरू, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 18, पृष्ठ 421). इस मुद्दे पर संविधान सभा द्वारा विचारोपरांत अनुच्छेद 370 लागू किया गया.
जहां तक युद्धविराम और मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष ले जाने का प्रश्न है, ये दोनों निर्णय भारत सरकार द्वारा सामूहिक रूप से लिए गए थे ना कि अकेले जवाहरलाल नेहरू द्वारा. सरदार पटेल ने 23 फरवरी 1950 को नेहरू को लिखे अपने एक पत्र में कहा था, ‘‘जहां तक पाकिस्तान द्वारा उठाए गए कुछ मुद्दों का प्रश्न है, जैसा कि आप कह चुके हैं, कश्मीर का प्रश्न अब सुरक्षा परिषद के सामने है. भारत और पाकिस्तान दोनों संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य हैं और सदस्यों के बीच के विवादों को सुलझाने के लिए वहां जो मंच उपलब्ध है उसे दोनों ने चुन लिया है. इसलिए अब इस मामले में आगे कुछ भी करने की जरूरत नहीं है सिवा इसके कि हम उस मंच द्वारा मुद्दों के निराकरण का इंतजार करें."
दरअसल समस्या यह थी कि साम्प्रदायिक ताकतें जम्मू-कश्मीर का भारत में तुरंत और जबरिया विलय चाहती थीं. नेहरू जबरदस्ती की बजाए कश्मीर के लोगों के दिल जीतने के हामी थे. सरदार पटेल भी ठीक यही चाहते थे. ऊपर उद्धत पत्र में वे आगे लिखते हैं, ‘‘कुछ लोग मानते हैं कि मुस्लिम बहुल इलाके आवश्यक रूप से पाकिस्तान का भाग होने चाहिए. वे चकित हैं कि हम कश्मीर में क्यों हैं. इसका उत्तर बहुत सीधा-सादा और स्पष्ट है. हम कश्मीर में इसलिए हैं क्योंकि कश्मीर के लोग चाहते हैं कि हम वहां हों. ज्योंहि ऐसा महसूस होगा कि कश्मीर के लोग नहीं चाहते कि हम वहां रहें, हम उसके बाद एक मिनट भी वहां नहीं रुकेंगे...परंतु जब तक हम वहां हैं तब तक हम कश्मीर के लोगों को निराश नहीं कर सकते." (हिन्दुस्तान टाईम्स, अक्टूबर 31, 1948)
आगे जो हुआ वह ठीक इसके उलट था. धीरे-धीरे कश्मीर की स्वायत्ता में कटौती की जाने लगी. इससे कश्मीरी लोगों में अलगाव का भाव बढ़ा और असंतोष भी. विरोध शुरू हुआ और धीरे-धीरे बढ़ता गया. शुरूआत में इस विरोध का स्वरूप साम्प्रदायिक नहीं था. पाकिस्तान के हस्तक्षेप और असंतुष्टों को पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित किए जाने के बाद हिंसा शुरू हुई. सन् 1980 के दशक में अलकायदा जैसे तत्व घाटी में घुस आए और उन्होंने कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. कश्मीर में आतंकी हिंसा के लिए अनुच्छेद 370 जिम्मेदार नहीं है. इसके लिए जिम्मेदार है कश्मीर की स्वायत्ता में निरंती कमी. आतंकी हिंसा की योजना बाहरी तत्वों ने बनाई और इसमें अमरीका द्वारा समर्थित कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन शामिल थे. इन्हें अमरीका में तैयार किए गए पाठ्यक्रम के आधार पर पाकिस्तानी मदरसों में प्रशिक्षित किया गया था.
योगी आदित्यनाथ को यह समझना चाहिए कि अगर हिंसा का कारण अनुच्छेद 370 होता तो तीन साल पहले उसको हटाए जाने के बाद से कश्मीर में हिंसा समाप्त हो गई होती. अगर अनुच्छेद 370 ही सभी समस्याओं की जड़ होता तो उसके हटने के बाद कश्मीरी पंडित स्वयं को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करने लगते. परंतु न तो आतंकी हिंसा खत्म हुई है और ना ही कश्मीरी पंडित चैन की बंसी बजा रहे हैं. इसका कारण यह है कि कश्मीर की समस्या की जड़ में वहां के निवासियों में अलगाव का भाव और लोगों के प्रजातांत्रिक हकों का दमन है.
रिजिजू कश्मीर समस्या के लिए केवल नेहरू को जिम्मेदार बताकर पल्ला नहीं झाड़ सकते. महाराजा हरिसिंह अपने राज्य को भारत का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. उन्हें अनेक तत्वों का समर्थन प्राप्त था और उस समय वहां भारत समर्थकों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था. यह बात कई प्रमुख पत्रकारों और लेखकों ने अपनी-अपनी रचनाओं में कही है जिनमें बलराज पुरी की पुस्तक ‘कश्मीरः इनसर्जेंसी एंड आफ्टर' शामिल हैं.
भाजपा नेता कश्मीर की स्थिति के लिए नेहरू और अनुच्छेद 370 को जिम्मेदार ठहराकर समाज को धु्रवीकृत करने का प्रयास कर रहे हैं. वे जानबूझकर तत्समय की अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को नजरअंदाज कर रहे हैं. पाकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक फैले आतंकी नेटवर्क और अमरीका द्वारा अतिवादी इस्लामवादी समूहों का समर्थन भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है. आज हमें कश्मीर के हालात को बिना पूर्वाग्रह और बिना किसी को कठघरे में खड़ा करते हुए समझना होगा. अपनी गलती छुपाने के लिए दूसरों पर आरोप लगाने की प्रवृति अच्छी नहीं है.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
साभार : सबरंग
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