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कश्मीर : हार की जीत

सवाल हैः क्या कश्मीर को उसका अपना कश्मीर वापस मिल सकता है?
jammu and kashmir
फाइल फ़ोटो। PTI

भारत के हिस्से वाला कश्मीर (जम्मू-कश्मीर) 11 दिसंबर 2023 को भारत के सुप्रीम कोर्ट से हार गया। लेकिन इस हार की जो व्याख्याएं हुई हैं, जो टिप्पणियां आयी हैं, उनमें शायद भावी जीत की निशानियां दिखायी दे रही हैं। हार जीत में भी बदल सकती है।

इस लेख का शीर्षक हिंदी लेखक सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ से लिया गया है। सुदर्शन पिछली शताब्दी में प्रेमचंद के ज़माने के लेखक थे। उनकी लिखी कहानी ‘हार की जीत’ आज भी पढ़ी और सराही जाती है। इस कहानी में बाबा भारती हार कर भी जीत जाता है और डाकू खड़क सिंह जीत कर भी हार जाता है। भारती को उसका घोड़ा वापस मिल जाता है, जिसे छल-कपट से खड़क ने छीन लिया था। खड़क का ‘ह्रदय परिवर्तन’ हो जाता है और वह घोड़ा लौटा देता है।

सवाल हैः क्या कश्मीर को उसका अपना कश्मीर वापस मिल सकता है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र की हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी सरकार ने 5 अगस्त 2019 को छीन लिया था और जिसे सुप्रीम कोर्ट ने चार साल बाद 11 दिसंबर 2023 को अपने फ़ैसले में जायज़ और वैध बता दिया?

इन चार वर्षों (2019-2023) में, जबकि सुप्रीम कोर्ट कश्मीर से जुड़े संवैधानिक अनुच्छेद 370 को रद्द किये जाने के मुद्दे पर पूरी तरह ख़ामोश रहा, केंद्र की भाजपा सरकार ने कश्मीर में बहुत-कुछ बदल डाला है। कश्मीर हिंदुत्व की नयी प्रयोगशाला बन चला है।

संदर्भ के लिए बता दिया जाये कि पिछले साल देश के राष्ट्रपति पद के चुनाव में विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा ने कश्मीर पर सुप्रीम कोर्ट की ‘सायास चुप्पी’ की तीखी आलोचना की थी।

5 अगस्त 2019 को केंद्र की भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान के अनुच्छेद 370 को, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देता था, रद्द कर दिया, और राज्य के रूप में जम्मू-कश्मीर के अस्तित्व को ख़त्म करते हुए उसे दो केंद्र-शासित इकाइयों—जम्मू-कश्मीर और लद्दाख—में बांट दिया।

केंद्र सरकार के इस क़दम को चुनौती देते हुए और इसे अवैध और असंवैधानिक बताते हुए 20 से ज्यादा याचिकाएं अगस्त में 2019 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयीं। चार साल तक सुप्रीम कोर्ट को वक़्त नहीं मिला कि वह इन याचिकाओं पर सुनवाई करे। सुप्रीम कोर्ट की ‘सायास चुप्पी’ ने नरेंद्र मोदी सरकार को कश्मीर में अपना एजेंडा लागू करने का भरपूर मौका दे दिया।

अगस्त 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की और 5 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। तीन महीने से ज्यादा वक़्त बीत जाने के बाद उसने 11 दिसंबर 2023 को अपना फ़ैसला सुनाया, जिसमें उसने अनुच्छेद 370 को रद्द करने के मोदी सरकार के फ़ैसले को जायज़ और वैध ठहराया।

ग़ौर करने की बात है कि कई लोगों को पहले ही अंदाज़ा लग गया था कि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला कुछ इसी तरह का आयेगा। जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती ने 10 दिसंबर 2023 को श्रीनगर में अपने एक बयान में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को भारतीय जनता पार्टी का एजेंडा लागू करने से बचना चाहिए। जिस दिन फ़ैसला आया, उसके कुछ घंटे पहले सुप्रीम कोर्ट के वकील और भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने ट्वीट किया कि कुछ लड़ाइयां हारने के लिए लड़ी जाती हैं।

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर तीखी प्रतिक्रियाएं और टिप्पणियां आयी हैं। महबूबा मुफ़्ती ने इसे ‘भारत के तसव्वुर (the idea of India) की हत्या’ कहा। उन्होंने कहा कि यह ‘ख़ुदा का फ़ैसला नहीं है’, और हमारी पार्टी पीडीपी अनुच्छेद 370 की बहाली के लिए संघर्ष जारी रखेगी।

ख़ास बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के दो भूतपूर्व जजों ने भी इस फ़ैसले की सख़्त आलोचना की है।

भूतपूर्व जज मदन लोकुर ने पत्रकार करन थापर से 15 दिसंबर 2023 को बात करते हुए कहा कि कश्मीर और अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम कोर्ट ने ग़लत किया है, और उसका फ़ैसला ‘जटिल’ और ‘असंगत’ है। मदन लोकुर ने कहा कि यह फ़ैसला ऐसा नहीं है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट गर्व कर सके। उसे अपने फ़ैसले की समीक्षा करनी चाहिए।

एक अन्य भूतपूर्व जज रोहिंटन नरीमन ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ‘बहुत परेशान करने वाला’ बताया। 15 दिसंबर को अपने एक सार्वजनिक भाषण में नरीमन ने कहा कि अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला जम्मू-कश्मीर को केंद्र-शासित क्षेत्र में बदलने के केंद्र सरकार के असंवैधानिक काम को जारी रखने की अनुमति देता है।

सबसे तीखी टिप्पणी, शायद, अंगरेज़ी अख़बार ‘द हिंदू’ की रही। उसने 12 दिसंबर को लंबा संपादकीय लिखा, जिसका शीर्षक था, ‘अनिष्ट सूचक, संघीय ढांचे के विरुद्ध’ (Ominous, anti-federal). अख़बार ने साफ़ लिखा कि सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला निश्चित तौर पर भाजपा के लिए राजनीतिक प्रोत्साहन है, कश्मीर पर भाजपा के दृष्टिकोण पर क़ानूनी मुहर लगाता है, और देश के संघीय ढांचे के लिए अनिष्टकारी है।

(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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