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ख़बरों के आगे-पीछे: विपक्षी एकजुटता में नीतीश की कोशिश, भाजपा-शिंदे गुट के बीच खटपट व अन्य ख़बरें...

विपक्षी एकजुटता के लिए नीतीश की कोशिश समेत पहलवान आंदोलन से बेफ़िक्र भाजपा, भगवंत मान की अलग राजनीति, भाजपा-शिंदे गुट के बीच खटपट और संजय सिंह की बढ़ती मुश्किलों पर अपने साप्ताहिक कॉलम में चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
Nitish Kumar & Opposition
फ़ोटो साभार: PTI

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पूरे राजनीतिक करियर में यह पहला मौका है, जब उन्होंने अपने प्रदेश से बाहर की राजनीति की है और देश भर की विपक्षी पार्टियों को एक करने का प्रयास किया है। उनके बुलावे पर करीब 18 विपक्षी पार्टियों के नेता 12 जून को पटना पहुंचने वाले हैं। नीतीश कुमार ने पूरे देश की यात्रा करके नेताओं को निजी तौर पर आमंत्रित किया है। पटना में होने वाली बैठक में विपक्षी गठबंधन की एक रूपरेखा बन सकती है। सीटों के बंटवारे पर बात नहीं होगी क्योंकि वह अंदरखाने तय हो रहा है कि किसको कहां आमने-सामने लड़ना है और कहां सीटों का रणनीतिक तालमेल किया जाना है। बहरहाल, नीतीश की बुलाई बैठक में कांग्रेस की ओर से पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे हिस्सा लेंगे। तृणमूल नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इस बैठक में शामिल होंगी। नीतीश ने ममता, शरद पवार, सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन और उद्धव ठाकरे को निजी तौर पर मुलाकात करके न्योता दिया है। नीतीश ने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से भी मुलाकात की थी लेकिन वे बैठक में शामिल नहीं होंगे। विपक्षी एकता का प्रयास शुरू करने के बाद नीतीश की मुलाकात तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव से नहीं हुई है। नीतीश दोनों से मिलने जा सकते हैं। वे एचडी कुमारस्वामी से मिल चुके हैं। उनकी कोशिश इसे एक बड़ा इवेंट बनाने की है। अगर वे सफल होते हैं तो इस गठबंधन का संयोजक बन सकते हैं।

शिंदे गुट और भाजपा के बीच खटपट शुरू

महाराष्ट्र में मिल कर सरकार चला रही भाजपा और एकनाथ शिंदे की शिवसेना के बीच खटपट शुरू हो गई है। मुख्यमंत्री शिंदे भले ही खुल कर कुछ नहीं कह रहे हैं लेकिन उनकी पार्टी के सांसद और विधायक अब खुल कर नाराज़गी ज़ाहिर करने लगे हैं। उनकी पहली नाराज़गी इस बात को लेकर है कि एक साल होने के बाद भी पाला बदलने वाले ज़्यादातर विधायकों को न तो मंत्री बनाया गया है और न ही कोई दूसरा सरकारी पद मिला है। सांसदों को नाराज़गी है कि उन्हें केंद्र में मंत्री नहीं बनाया गया। पहले कहा जा रहा था कि शिवसेना के विभाजन में जो 13 सांसद शिंदे के साथ आए हैं उनमें से दो को केंद्र में मंत्री बनाया जा सकता है। शिंदे गुट के सांसद अनौपचारिक बातचीत में बताते हैं कि अभी तक दिल्ली में उन्हें केंद्र सरकार के सहयोगी के तौर पर स्वीकार ही नहीं किया गया है। उनका कोई भी काम नहीं होता है। काम नहीं होने की यही शिकायत महाराष्ट्र में शिंदे गुट के विधायकों की भी है। शिंदे भले ही मुख्यमंत्री हैं लेकिन सरकार भाजपा की मानी जा रही है। ऊपर से 15 विधायकों पर अयोग्यता की तलवार लटकी है। हालांकि स्पीकर का फैसला उनके पक्ष में आएगा लेकिन उन्हें यह भी पता है कि ठाकरे गुट उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगा और कोर्ट का क्या रुख है, यह सबने देखा है। बृहन्नमुंबई महानगर निगम सहित कई शहरों में नगरीय निकायों का कार्यकाल खत्म हो गया है। सो, वहां भी सारे काम अधिकारी ही कर रहे हैं।

पहलवानों के आंदोलन से क्यों बेफ़िक्र है भाजपा?

केंद्र सरकार और भाजपा पहलवानों के आंदोलन से उसी तरह बेफ़िक्र हैं, जैसे वे किसान आंदोलन को लेकर लंबे समय तक बेफ़िक्र थे। भाजपा ने एक साल तक किसान आंदोलन की कोई परवाह नहीं की थी। हालांकि एक साल के बाद प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानून वापस ले लिए थे लेकिन बावजूद  इसके आरोप लगते हैं कि किसानों से किया गया कोई वादा पूरा नहीं किया गया। भाजपा के नेता मानते हैं कि उनको किसान आंदोलन का कोई राजनीतिक नुकसान नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों जगह भाजपा बड़े बहुमत से जीती। पंजाब में भाजपा जहां थी वहीं रही लेकिन किसान आंदोलन का खुल कर समर्थन करने वाली कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ। यहां तक कहा जा रहा था कि पंजाब की तत्कालीन कांग्रेस सरकार और हरियाणा के कांग्रेस नेताओं ने आंदोलन को मदद पहुंचाई थी। पहलवानों के यौन शोषण के आरोपी भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह लगातार इस आंदोलन को एक परिवार और एक खाप का आंदोलन और कांग्रेस पार्टी की साज़िश साबित करने में लगे हैं। इस वजह से भाजपा बेपरवाह है। उसे लग रहा है कि आम आवाम पर इसका कोई असर नहीं होगा। वैसे भी भाजपा ने हरियाणा में गैर जाट मुख्यमंत्री बना कर अपना राजनीतिक इरादा साफ कर दिया है। इसलिए उसे अपने नुकसान की चिंता नही है। हां, उसकी सहयोगी जननायक जनता पार्टी को बड़ा नुकसान हो सकता है। इसलिए उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला और उनकी पार्टी के नेता ज़्यादा परेशान हैं।

भगवंत मान की राजनीति केजरीवाल से अलग

ऐसा लगता है कि पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान अब अपने पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की पारंपरिक राजनीति से अलग हट कर काम कर रहे हैं। गौरतलब है कि केजरीवाल पर उनके विरोधियों ने गंभीर आरोप लगाए थे कि उन्होंने पंजाब में बेहद आक्रामक और काफी हद तक कट्टरपंथी राजनीति की थी। आरोप ये भी लगे कि इस वजह से उन्हें कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया में सक्रिय कट्टरपंथी संगठनों की ओर से मदद मिली थी। यह 2017 के चुनाव की बात है। तब उन पर कई आरोप लगे थे और बड़ी आलोचना हुई थी। इसीलिए इस बार जब पंजाब में आम आदमी पार्टी जीती तो विरोधियों की तरफ से यह कहा गया कि कट्टरपंथी राजनीति मजबूत होगी और यह देश की सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि मुख्यमंत्री मान वह राजनीति नहीं कर रहे हैं। बताया जा रहा है कि वे केंद्र सरकार के साथ मिल कर पंजाब की सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने और कट्टरपंथी गतिविधियों को रोकने के लिए काम कर रहे हैं। पता नहीं केजरीवाल को यह राजनीति कितनी पसंद आ रही है। लेकिन हकीकत है कि कट्टरपंथी उपदेशक अमृतपाल और उसके संगठन 'वारिस पंजाब दे’ को जिस तरह से हैंडल किया गया है वह काफी सफल रहा। बिना माहौल बिगड़े अमृतपाल और उसके सारे करीबियों को भी पकड़ लिया गया। इस मामले में मान को केंद्रीय एजेंसियों का पूरा साथ मिला। उसके बाद केंद्रीय एजेंसियों की ओर से खतरे का आकलन किया गया और केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से मान को पूरे देश में ज़ेड प्लस सुरक्षा दी गई। ऐसी सुरक्षा केजरीवाल को भी नहीं मिली है। केंद्र सरकार की आलोचना में मान के सुर भी नरम पड़े हैं।

पुराने ट्वीट मिटाने में लगे हैं आप नेता 

आम आदमी पार्टी के नेताओं, ख़ासतौर पर, सर्वोच्च नेता अरविंद केजरीवाल को विपक्षी नेताओं से मिलते हुए बेहद शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है। इसका कारण यह है कि देश का कोई भी नेता ऐसा नहीं है, जिस पर उन्होंने भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगाया है या कोई अनाप-शनाप ट्वीट नहीं किया है। आते ही देश की राजनीति पर छा जाने की अपनी सोच और अति महत्वाकांक्षा में उन्होंने कांग्रेस और भाजपा समेत सभी पार्टियों निशाना बनाया था। 'भ्रष्ट’ नेताओं की एक सूची जारी की थी, जिसमें देश के 28 बड़े नेताओं के नाम थे। जैसे-जैसे उन्हें राजनीतिक असलियत का ज्ञान और अपनी हैसियत का अंदाज़ा हुआ, वे यू टर्न लेते गए। अब वे भाग-भाग कर सभी विपक्षी नेताओं से मिल रहे हैं। अपने पुराने बयानों और आरोपों के लिए वे देश के कई नेताओं से लिखित और मौखिक तौर पर माफी मांग चुके हैं। उनकी पार्टी के नेता अब पुराने ट्वीट डिलीट करने में लगे हैं, क्योंकि केजरीवाल को जिस विपक्षी नेता से मिलने जाना होता है उसके बारे में किए गए उनके पुराने ट्वीट तुरंत सोशल मीडिया में घूमने लगते हैं। आप नेताओं की मुश्किल यह है कि जितने भी ट्रोल्स हैं उन्होंने केजरीवाल के ट्वीटर हैंडल की टाइमलाइन से उनके पुराने ट्वीट उठा कर उनके स्क्रीनशॉट सेव करके रखे हैं। हर पार्टी के आईटी सेल ने भी इन्हे संभाल कर रखा है। इसलिए टाइमलाइन डिलीट करने के बावजूद पुराने ट्वीट सामने आ रहे हैं।

हरिवंश के बारे में जनता दल (यू) क्या करेगा?

यह लाख टके का सवाल है कि अगर जनता दल(यू) के राज्यसभा सदस्य हरिवंश ने पार्टी लाइन का उल्लंघन किया है तो पार्टी उन पर कार्रवाई करेगी या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि पार्टी उनके ख़िलाफ़ सिर्फ़ बयानबाजी करेगी और यथास्थिति बनी रहने देगी? यह सवाल इसलिए है क्योंकि पार्टी ने अब तक उनके बारे में चुप्पी साध रखी थी और जब नीतीश कुमार ने विपक्षी पार्टियों की बैठक बुलाई तब जाकर उनके ख़िलाफ़ बयान दिया गया। बयान भी पटना में पार्टी के प्रवक्ता ने दिया। पिछले दिनों केसी त्यागी को पार्टी का मुख्य प्रवक्ता बनाया गया, लेकिन उन्होंने इस पर कोई बयान नहीं दिया। इसका मतलब है कि दिल्ली और पटना में पार्टी की अलग-अलग रणनीति है। गौरतलब है कि नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह के ख़िलाफ़ भी कोई कार्रवाई नहीं की थी। यह आम धारणा है कि नीतीश की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ आरसीपी सिंह केंद्र में मंत्री बने थे। नीतीश चाहते थे कि उनकी पार्टी के तीन लोग मंत्री बने लेकिन भाजपा तैयार नहीं हुई। तब नीतीश ने सरकार में शामिल होने से इनकार किया लेकिन आरसीपी इसके बावजूद मंत्री बन गए। तभी से दोनों के संबंध बिगड़े और अंतत: जब उनका कार्यकाल समाप्त हुआ तो जनता दल (यू) ने उनको फिर राज्यसभा में नहीं भेजा। उस समय नीतीश की पार्टी भाजपा के साथ थी। फिर भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने उनकी मर्ज़ी के बगैर आरसीपी को मंत्री बनाए रखा। कहा जा रहा है कि नीतीश बिलकुल उसी अंदाज़ में हरिवंश का मामला भी हैंडल करेंगे। वे उनकी सदस्यता समाप्त करने के लिए राज्यसभा के सभापति को चिट्ठी नहीं लिखेंगे। लेकिन जब उनका कार्यकाल समाप्त होगा तो उन्हें फिर राज्यसभा नहीं भेजा जाएगा।

सिसोदिया के बाद संजय सिंह भी निशाने पर?

जैसे-जैसे विपक्ष की राजनीति में अरविंद केजरीवाल की सक्रियता बढ़ रही है, वैसे-वैसे उन पर भाजपा का हमला भी तेज़ हो रहा है। साथ ही केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई में भी तेज़ी आ रही है। ऐसा लग रहा है कि मनीष सिसोदिया को जेल में डालने के बाद अब केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर पार्टी के सांसद संजय सिंह हैं। आम आदमी पार्टी में संजय सिंह और गोपाल राय ही ऐसे नेता हैं, जिनका लंबा राजनीतिक अतीत रहा है। इनमें भी संजय सिंह ही ज़्यादा सक्रिय राजनीति करते हैं। संसद में तथा संसद से बाहर विपक्षी पार्टियों से तालमेल करने से लेकर भाजपा पर हमला करने का काम उन्हीं के जिम्मे रहता है। अगर वे किसी मामले मे फंसते हैं तो केजरीवाल की राजनीतिक योजना पंक्चर होगी। इसीलिए उनके ख़िलाफ़ राजनीतिक और सरकारी अभियान में तेज़ी आई है। एक तरफ सोशल मीडिया में उनके राजनीतिक अतीत को लेकर उन्हें बदनाम किया जा रहा है। दूसरी ओर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई तेज़ हो रही है। पहले प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के आरोपपत्र में उनका संदर्भ आया था तब संजय सिंह ने कानून पहल की थी, जिसके बाद एजेंसी ने कहा था कि उनका नाम गलती से आ गया। फिर ईडी ने उनके करीबी सर्वेश मिश्रा और अजीत त्यागी पर छापा मारा। अब कहा जा रहा है कि उनसे पूछताछ के आधार पर एक बार फिर ईडी के आरोपपत्र मे संजय सिंह का नाम शामिल किया जा सकता है। बताया जा रहा है कि एक कारोबारी अमित अरोड़ा ने ईडी की पूछताछ में कहा है कि मनीष सिसोदिया के यहां हुई मीटिंग में संजय सिंह भी मौजूद थे।

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