सामाजिक न्याय का नारा तैयार करेगा नया विकल्प !
डीएमके प्रमुख व तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन की ऑल इंडिया फेडरेशन फॉर सोशल जस्टिस बनाने की पहल को भले ही गोदी मीडिया उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा बता रहा है, लेकिन भय और निराशा के इस दौर में यह देश के विपक्षी दलों में एक नई उम्मीद पैदा कर रहा है। सामाजिक न्याय के मुद्दे को नए सिरे से और पूरी शिद्दत के साथ राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में लाने के लिए विपक्षी पार्टियों के भीतर चिंतन भी शुरू हो गया है। स्टालिन विपक्ष के नेताओं के साथ इस पर एक बैठक भी करने वाले हैं, जिसमें इस पर विस्तार से चर्चा कर आगे का रोडमैप तैयार किया जाएगा। बेहद कमजोर हो चुकी मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी इस मुद्दे पर काफी गंभीर नजर आ रही है, क्योंकि यह उसके लिए एक बेहतरीन अवसर साबित हो सकता है।
इस बारे में जब कांग्रेस नेता उदित राज से बात की गई तो उन्होंने कहा कि स्टालिन का आइडिया जबरदस्त है, जिस पर काम करने की जरूरत है। सामाजिक न्याय में ही आर्थिक न्याय भी शामिल है। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के संविधान में ही सामाजिक न्याय है, लेकिन इसे कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं। उन्होंने कहा कि, "सत्ता में रहते हुए कांग्रेस ने ही सबसे ज्यादा सामाजिक न्याय को जमीनी स्तर पर लागू किया। दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं समेत समाज के अन्य कमजोर तबकों को रोजगार में अवसर मिले। मनरेगा, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार व आदिवासियों के लिए जंगल की कृषि भूमि पर पट्टा देने जैसे कानून बने। कमजोर वर्ग के छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजनाएं चलाई गईं। इसी तरह के और भी कई काम हुए हैं। वर्तमान में जिस तरह की परिस्थितियां पैदा हुईं है, उसमें सामाजिक न्याय की गारंटी से ही देश और यहां के सामाजिक ताने बाने को बचाया जा सकता है।"
कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रभारी पीएल पुनिया ने भी कहा कि, "वर्तमान में संविधान, संवैधानिक संस्थाओं व लोकतंत्र पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। देश और समाज को बचाने के लिए समान विचारधारा वाली पार्टियों को एकजुट होना पड़ेगा। यदि पार्टियों को अपने हितों के साथ थोड़ा बहुत समझौता भी करना पड़े तो उन्हें इसके लिए उन्हें हिचकना नहीं चाहिए।"
दरअसल हाल ही में हुए यूपी समेत 5 राज्यों के विधानसभा में बसपा संस्थापक कांशीराम के ‘पचासी- पद्रह’ के फार्मूले पर ‘अस्सी-बीस’ के नारे का बुलडोजर चल गया। सपा और बसपा से जैसी पार्टियां कुछ भी नहीं कर सकीं। वैसे यह पहली बार नहीं हुआ है, क्योंकि भाजपा तो वर्ष 2014 से ही लगातार चुनाव जीत रही है और उसका वोट 39-40 फीसदी के आसपास बना हुआ है, लेकिन इस बार प्रचंड महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी व किसानों की समस्या समेत तमाम ज्वलंत मुद्दों के बावजूद जिस तरह से उसे जीत मिली है, उससे अपने को मंडल के झंडाबरदार कहने वाले दल समेत समूचा विपक्ष बुरी तरह से हिल गया है। खासतौर पर बसपा के जनाधार का जो बिखराव हुआ है, उसने इनकी चिंता और भी बढ़ा दी है। सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने वाले नेताओं को लगने लगा है कि अब पूरी ईमानदारी से अपनी मूल विचारधारा में लौटे बिना कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है। इसी से लोकतंत्र और खुद उनका अपना अस्तित्व बच सकेगा।
ध्यान रहे कि सत्ता में आने के बाद इनमें से कई पार्टियों ने अपनी मूल विचारधारा से दूरी बना ली थी। कुछ तो भाजपा नीत राजग का हिस्सा भी बन गए, जबकि राजद और सपा जैसी पार्टियों ने अपने को उससे दूर रखा, हालांकि हिंदुत्ववादी राजनीति के सामने इनका आधार भी काफी सिकुड़ चुका है। यदि यादव और मुस्लिम वोट बैंक में से किसी को भी अलग कर दिया जाए तो इनके लिए एक विधानसभा सीट भी जीत पाना मुश्किल है। हाल के यूपी चुनाव में भी यह देखा गया कि बसपा सुप्रीमो मायावती और अखिलेश यादव जनता के बुनियादी सवालों को उठाने और सामाजिक न्याय की बात करने के बजाए जातीय सम्मेलन और इस तरह की अन्य चीजों में व्यस्त रहे। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का मसला तो दूर की बात है, दलित और बढ़ती गरीबी का मुद्दा भी चुनावी बहस से तकरीबन बाहर ही रहा। कोरोना काल में जो दलित वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ, उसकी बात किसी ने नहीं की। मायावती भी सत्ताधारी भाजपा के बजाए सपा और कांग्रेस को ही कोसती रही।
बहरहाल अब स्टालिन ने सामाजिक न्याय के मुद्दे को आगे किया है तो विपक्षी खेमे में एक नई सरगर्मी शुरू हुई है। कांग्रेस में भी इस पर विचार विमर्श शुरू हो गया है। यदि वह सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि वाले दलों व नेताओं को गोलबंद कर लेती है तो उसे एक नई ताकत मिलेगी और तृणमूल व एनसीपी जैसी पार्टियों को उसे कोई भी झटका देने से पहले कई बार सोचना पड़ेगा। विभिन्न राज्यों में छोटे-छोटे दल व संगठन जो अधर में लटके हुए हैं, वे भी उसके साथ जुड़ जाएंगे।
ध्यान रहे कि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने अपने घोषणापत्र में न्याय योजना के तहत गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रुपए देने, आम लोगों के लिए न्यूनतम आमदनी तय करने और इलाज को कानूनी अधिकार बनाने जैसे वादे किए थे। इसके बाद राजस्थान में अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल जैसे पिछड़ी जाति से संबंध रखने वाले नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया। पंजाब में चुनाव से कुछ माह पहले दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री की कमान सौंपी। संगठन में भी दलितों व पिछड़े वर्ग के नेताओं को अहमियत दी। इतना ही नहीं चाहे सोनभद्र में आदिवासियों की हत्या का मामला हो या हाथरस व उन्नाव की घटना या फिर लखीमपुर में किसानों को कुचले जाने का मामला हो, प्रियंका गांधी ने पीड़ितों के पक्ष में संघर्ष किया। राहुल गांधी भी किसानों व जनता के अन्य मुद्दों को लेकर लगातार सक्रिय हैं।
इन सबके बावजूद पार्टी को चुनावों में सफलता नहीं मिल सकी। पिछले अनुभवों से सबक लेते हुए कांग्रेस अब नए सिरे से अपनी रणनीति तैयार कर रही है। यदि वह सामाजिक न्याय की ताकतों का व्यापक गठबंधन तैयार कर लेती है और समाज के कमजोर तबकों को सशक्त बनाने के लिए कोई अच्छा आर्थिक मॉडल देश के सामने पेश करती है तो उसकी मुश्किलें आसान हो सकती है। सूत्रों के मुताबिक पार्टी आलाकमान ने वीरप्पा मोइली को डीएमके नेताओं से बातचीत करने की जिम्मेदारी सौंपी है। उधर राजद नेता तेजस्वी यादव भी स्टालिन की इस पहल को लेकर काफी उत्साहित नजर आ रहे हैं।
विपक्ष के कई अन्य नेताओं का भी मानना है कि सामाजिक न्याय को पूरी ईमानदारी और वैचारिक मजबूती के साथ राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में लाना समय की जरूरत है, क्योंकि यह महज राजनीतिक नारा नहीं बल्कि देश के कमजोर वर्गों को उनका अधिकार, सुरक्षा और मान सम्मान दिलाने का माध्यम भी है। वर्तमान में तेजी से हो रहे निजीकरण के चलते नौकरियों के अवसर खत्म हो रहे हैं। जब सरकारी विभाग में नौकरियां ही नहीं होंगी तो एससी/एसटी व ओबीसी को आरक्षण का लाभ कैसे मिलेगा? रेलवे में ही करीब 3 लाख पद खाली पड़े हुए हैं और 3 लाख से अधिक कर्मी कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे हैं। भर्ती कब होगी और कान्ट्रैक्ट वाले कर्मचारी नियमित कब किए जाएंगे? किसी को पता नहीं है।
दूसरे चंद उद्योगपतियों को देश के संसाधनों का दोहन करने की पूरी छूट मिल गई है। इतना ही नहीं कुछ माह पहले आई विश्व असमानता रिपोर्ट भी बताती है कि भारत में अमीर और गरीब के बीच की खाई बहुत ज्यादा बढ़ गई है। हालत यह है कि भारत के मात्र 10 फीसदी अमीर लोग देश की 57 फीसदी संपत्ति पर काबिज हैं, जबकि सिर्फ 1 फीसदी लोग 22 फीसदी संपत्ति के मालिक हैं। एक तरफ आर्थिक असमानता और गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी तरफ मनरेगा का बजट में 25,000 करोड़ रुपए की कटौती और खाद व पेट्रोलियम आदि पर से सब्सिडी घटाने जैसे फैसले लिए जा रहे हैं। आजीविका के साथ-साथ सवाल समाज के कमजोर तबकों की सुरक्षा और सम्मान का भी है।
एनसीआरबी के ही आंकड़े बताते हैं कि देश में दलित उत्पीड़न के मामले निरंतर बढ़ रहे हैं। वर्ष 2018 में देशभर में दलित उत्पीड़न के 42793 मामले दर्ज हुए, जो वर्ष 2020 में बढ़ कर 50251 पर पहुंच गए। कुछ दिनों पहले ही राजस्थान के पाली में एक दलित युवक की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई कि दबंगों को उसकी मूंछ पसंद नहीं थी। दलित दूल्हे को घोड़ी पर बैठने से रोकने की खबरें तो आए दिन आती रहती हैं। अब इन सारे मर्ज़ों के इलाज के लिए कुछ विपक्षी दलों ने सामाजिक न्याय के नारे में फिर से नई जान फूंकने की प्रयास शुरू कर दिए हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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