बायो-फोर्टिफाइड काले गेहूं के लिए एमएसपी और जागरूकता की कमी
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश: 2018 में, उत्तर प्रदेश के शरस्वती के टंडवा गांव के अभिषेक श्रीवास्तव (उम्र 34 वर्ष) ने मोहाली स्थित राष्ट्रीय कृषि-खाद्य जैव प्रौद्योगिकी संस्थान (एनएबीआई) से स्वदेशी रूप से विकसित काले रंग के गेहूं, एनएबीआई एमजी बीज खरीदे थे। एक एकड़ ज़मीन से 20 क्विंटल फसल काटने के बाद, उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इसकी खूबियों के बारे में बताते हुए एक वीडियो पोस्ट किया है।
ऐसे समय में जब सोशल मीडिया उभरती हुई कृषि प्रौद्योगिकियों, नई शुरू की गई फसलों और विदेशी सब्जियों और फलों के बारे में जानकारी चाहने वालों के लिए पसंदीदा गंतव्य स्थान बन गया है, श्रीवास्तव के पास देश भर के किसानों की जानकारी हासिल करने के लिए जैसे बाढ़ सी आ गई है।
"मैंने अपने खेत में एफ-1 हाइब्रिड बीजों को कई गुना बढ़ाया। मैंने पिछले कुछ वर्षों में 100 टन काले गेहूं के बीज बेचे, जिसमें मैंने जो काटा और जो मैंने पड़ोसी किसानों से हासिल किया, वह भी शामिल है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के करीब 500 से अधिक उद्यमशील किसान इसके लाभार्थी थे।'' यह एग्री जंक्शन के अध्यक्ष श्रीवास्तव का दावा है, जो राज्य भर में 4,000 आउटलेट के साथ उत्तर प्रदेश सरकार की पहल है।
"मुझे बताया गया है कि निर्यातकों ने हमारा काला गेहूं नेपाल, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान तक पहुंचा दिया है।"
काला गेहूं सामान्य गेहूं की तरह ही होता है, लेकिन पकने पर इसकी बालियां काली हो जाती हैं। इसका आटा भूरे रंग का होता है, बाजरे के समान लेकिन नियमित सफेद गेहूं के विपरीत होता है। दिलचस्प बात यह है कि यह अनाज लंबे समय तक बेहतर रहता है। इसके आटे का इस्तेमाल साबुत गेहूं से बने खाद्य उत्पाद, जैसे ब्रेड, बन, बिस्कुट, नूडल्स, रोटी, केक और बहुत कुछ बनाने के लिए किया जा सकता है। इसके फायदों के बावजूद, इस न्यूट्रास्यूटिकल-समृद्ध अनाज के साथ सब कुछ ठीक नहीं है, जिसकी प्रसिद्धि शुरुआती उछाल के बाद कम हो रही है।
भरपूर लाभ
एनएबीआई वैज्ञानिक और काले गेहूं की परियोजना की प्रमुख डॉ. मोनिका गर्ग (49 वर्ष) 101रिपोर्टर्स को बताती हैं कि "नाबी एमजी (NABI MG) बीज को तैयार करने में हमें सात साल का शोध लगा। यह जापानी किस्म ईसी866732 और गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्म पीबीडब्लू621 का मिश्रण है। यह एंथोसायनिन, प्रोटीन, आहार फाइबर, आयरन और जिंक से भरपूर है।
"रंगीन गेहूं शुगर बढ़ाए बिना अधिक लाभ प्रदान करता है।"
जापान के टोटोरी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट, गर्ग ने 2011 में इस परियोजना पर काम करना शुरू किया था जब नाबी (NABI) ने पौधों के प्रजनन के माध्यम से भारत की पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाने से पहले जापान और अमेरिका से विदेशी जीनोम प्लाज्मा खरीदा था। यह मनुष्यों के लिए पौधों की उपयोगिता बढ़ाने के लिए क्रॉसब्रीडिंग सहित उनके आनुवंशिक पैटर्न को बदलने की एक विधि है।
भारत में काले, बैंगनी और नीले गेहूं के अनुसंधान को लेकर अग्रणी गर्ग कहती हैं, स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद माने जाने वाले प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट एंथोसायनिन की अधिकता के कारण फलों, सब्जियों और अनाज का रंग नीला, बैंगनी या काला हो जाता है।
आमतौर पर जामुन, ब्लूबेरी और ब्लैकबेरी में एंथोसायनिन की उच्च मात्रा पाई जाती है।
"सामान्य गेहूं में एंथोसायनिन की मात्रा केवल पांच पीपीएम होती है। लेकिन काले गेहूं में यह 100 से 200 पीपीएम होती है। जिंक और आयरन की मात्रा में भी अंतर होता है। काले गेहूं में आम गेहूं की तुलना में 60 प्रतिशत अधिक आयरन होता है।" पंजाब स्थित प्लांट ब्रीडर का उक्त के बारे में कहना है, जिनके दुनिया भर के शोध पत्रिकाओं में उनके काम के बारे में कई पेपर प्रकाशित हुए हैं।
एनएबीआई (NABI) के वैज्ञानिकों का दावा है कि काला गेहूं हृदय रोगों, मधुमेह और मोटापे की संभावना को कम कर सकता है। जिंक के साथ बायो-फोर्टिफाइड गेहूं, बच्चों में कुपोषण से लड़ सकता है, जो देश में स्वास्थ्य चुनौतियों में से एक है।
गर्ग कहती हैं कि, "स्व-परागण वाली फसल काले गेहूं की उत्पादकता प्रति एकड़ लगभग 20 क्विंटल है, जबकि अधिक उपज देने वाले सफेद संस्करण की उत्पादकता 24 क्विंटल है। काले गेहूं के बीज का आकार भी छोटा होता है।" हालांकि, सामान्य और काली किस्मों के लिए अपनाई जाने वाली कृषि पद्धतियों में कोई अंतर नहीं है।
शुरू में, नाबी (NABI) ने 10 कंपनियों के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करके अपनी विशेषज्ञता का हस्तानांतरण किया था। हालांकि, यह कामयाब नहीं हुआ। वर्तमान में, संस्था अपने मोहाली परिसर के 10 एकड़ में उगाए गए एफ1 हाइब्रिड बीज उन किसानों को बेचती है जो इनकी मांग करते हैं।
उत्तर प्रदेश ने बढ़त ली
पिछले कुछ वर्षों में, प्रयागराज, कौशांबी, प्रतापगढ़, वाराणसी, चंदौली, रायबरेली और गोरखपुर के गांवों ने काले गेहूं की खेती को अपनाया है। यह धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश के लगभग सभी जिलों में फैल गया है।
पिछले अक्टूबर में, उत्तरकाशी जिले में कृषि विभाग के अधिकारियों ने किसानों की आय बढ़ाने के लिए डुंडा और नौगांव ब्लॉक के 20 गांवों में काले गेहूं की खेती के लिए एक पायलट परियोजना शुरू की थी। अजीब बात यह रही कि काले गेहूं को प्रोत्साहित करने के लिए कृषि मंत्रालय या भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की ओर से कोई नीति नहीं अपनाई गई है, जिससे रकबे और इसकी खेती करने वाले परिवारों की कुल संख्या के बारे में डेटा की कमी भी नज़र आती है। इस अनाज को उगाने के लिए किसानों को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है।
शुरुआत में जो लोग काले गेहूं के प्रति आकर्षित हुए थे उनमें रवि प्रकाश मौर्य (40) भी शामिल थे, जो पेशे से पत्रकार हैं। अपने पिता की मृत्यु के बाद 2016 में अपने गांव लौटने के बाद, वे 2018 से प्रयागराज के मंसूरपुर में अपने खेत में एक बीघे में काले गेहूं की खेती कर रहे हैं।
मौर्य, जो काले चावल, काले टमाटर, नाइजर बीज, काली हल्दी और काले आलू की खेती भी करते हैं, उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में आयोजित कृषि मेलों में नियमित रूप से आमंत्रित किए जाते हैं। काले गेहूं को लोकप्रिय बनाने के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश कृषि विभाग द्वारा सम्मानित भी किया गया था।
वे कहते हैं, ''मैं नियमित रूप से काला गेहूं उगाता हूं और अब तक इसे बुंदेलखंड, मध्य प्रदेश, बिहार, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में उगाने के इच्छुक किसानों को 12 टन गेहूं बेच चुका हूं।''
"मेरे परिवार ने सामान्य गेहूं उगाना पूरी तरह से छोड़ दिया है। हम काले गेहूं से बनी रोटी, दलिया, सूजी और केक खाते हैं।"
मौर्य की तरह ही, जालौन जिले के उरई गांव के अतुल सिंह राजावत (35) पांच बीघे में काला गेहूं उगा रहे हैं। उनकी फसल करीब आठ क्विंटल प्रति बीघे हुई है। पिछले पांच वर्षों में, उन्होंने फेसबुक और व्हाट्सएप के माध्यम से इच्छुक उत्पादकों तक पहुंचकर 150 टन की बिक्री की है।
राजस्थान में सिरोही के देवली गांव के जिला स्तरीय पुरस्कार विजेता किसान, किशन सिंह (64) ढाई बीघे में काला गेहूं उगाते हैं। सीकर जिले के अजय सिंह (45) जिन्होंने तीन साल पहले काले गेहूं की खेती शुरू की थी, उन्हें एक एकड़ से 20 क्विंटल की उपज मिलती है। एक यूट्यूब चैनल पर उसे दिखाए जाने के बाद वे एक लोकप्रिय विक्रेता बन गए हैं।
टोंक जिले के संडेरा के दयाराम चौधरी (64) ने एक एकड़ में 40 किलोग्राम काले गेहूं के बीज बोने के लिए डीएपी और यूरिया जैसे रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बंद कर दिया है। बदले में उन्हें 20 क्विंटल की उपज मिली। हालांकि, इसमें जो दिखता है उससे कहीं अधिक है।
निराश उत्पादक
स्टॉक न बिकने के कारण काले गेहूं की बुआई में किसानों की रुचि धीरे-धीरे कम हो रही है। किशन सिंह के पास पिछले साल की फसल का 17 क्विंटल का बिना बिका स्टॉक पड़ा है, जबकि दयाराम चौधरी को पिछले साल बेचने के लिए संकट का सामना करना पड़ा था। रवि प्रकाश मौर्य के घर में 15 टन बिना बिका स्टॉक पड़ा है जो खरीदारों का इंतजार कर रहा है। आम तौर पर, प्रति क्विंटल कीमत 2,200 से 2,400 रुपये के बीच होती है, जबकि इनपुट लागत 12,000 से 14,000 रुपये प्रति एकड़ होती है।
"प्रयागराज के गांवों में, किसानों ने या तो इसे उगाना बंद कर दिया है या इसका रकबा कम कर दिया है। अन्य जिलों में भी यही स्थिति है।" यह इंद्रजीत गुप्ता का कहना है, जो हाल ही में प्रयागराज के जिला कृषि सहाय अधिकारी थे और अब उन्हें कौशांबी स्थानांतरित कर दिया गया है।
"इसका एकमात्र कारण बाज़ार की कमी है। कोई भी मंडी [बाज़ार] काले गेहूं को स्वीकार नहीं करती है, इसका मुख्य कारण यह है कि संभावित उपभोक्ता ऐसे उत्पाद और इसकी खूबियों से अनजान हैं।"
केवल मुट्ठी भर लोग ही हैं जो काले गेहूं के आटे का व्यापार करते हैं। उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद की बालकुमारी एग्रो फूड्स इसे डीआर आरबीएल के काले गेहूं के आटे के ब्रांड नाम से 250 रुपये प्रति किलोग्राम पर बेचती है। वे अपनी बिक्री के आंकड़े साझा करने को तैयार नहीं हैं, ब्रांड के जीसी कटियार बताते हैं, "जागरूकता की कमी के कारण काला गेहूं बहुत लोकप्रिय नहीं है। हालांकि, बाजार बढ़ रहा है क्योंकि इसके इस्तेमाल का प्रत्यक्ष अनुभव साझा किया जा रहा है।"
ऐसे परिदृश्य में, महाराष्ट्र का एक किसान आगे का रास्ता दिखाता नज़र आता है – जो सादे आटे के बजाय काले गेहूं के मूल्यवर्धित उत्पादों पर ध्यान केंद्रित करता है। सतारा जिले के किंजल गांव के अक्षय जगताप (28) पिछले तीन वर्षों से किसानों को इंदौर के एक किसान से मिले बीज देकर उन्हें काला गेहूं उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।
जगताप कहते हैं कि, "वाई तालुका में, हमारे आठ किसान हैं जो सामूहिक रूप से 10 एकड़ में काला गेहूं उगाते हैं। हम उन्हें आकर्षक दर देकर फसल खरीदते हैं। हमारी महिला सेल्फ हेल्फ ग्रुप खुद इसका दलिया, रवा और सेवई बनाते हैं, जिन्हें हम महाबलेश्वर की दुकानों में बेचते हैं।"
क्या काले गेहूं के लिए एक पारिस्थितिकी तंत्र बनाया जा सकता है ताकि किसान इसे उगाते रहें और समुदाय को इससे लाभ हो?
रायबरेली के जिला कृषि अधिकारी विनोद शर्मा 101रिपोर्टर्स को बताते हैं कि, "मैं सुझाव दूंगा कि कृषि विश्वविद्यालयों को इसे लोकप्रिय बनाने में शामिल किया जाना चाहिए। खाद्य स्टार्ट-अप को इसमें निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जैसा कि बाजरा के मामले में हुआ है। व्यंजनों को विकसित करने के लिए रसोइयों को शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकारियों को काले गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने, इसे मध्याह्न भोजन में शामिल करने और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से वितरित करने की जरूरत है।"
(हिरेन कुमार बोस उत्तर प्रदेश स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101रिपोर्टर्स के सदस्य हैं, जो जमीनी स्तर के पत्रकारों का एक अखिल भारतीय नेटवर्क है।)
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