स्मृति शेष: वह हारनेवाले कवि नहीं थे
मंगलेश डबराल वैसे हारनेवाले तो इनसान नहीं थे मगर इस महामारी कोरोना के आगे जीवन से भरपूर इस इनसान को भी आखिर हारना पड़ा। जीवन के बहत्तर वर्ष पूरे कर चुका यह कवि अभी भी रचनात्मक ऊर्जा से भरपूर था। उसके थकने-ऊबने का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता। पचास से भी अधिक वर्षों से लिख रहा यह कवि अभी भी बहुत कुछ कर रहा था और बहुत कुछ करने की इच्छा से प्रेरित था-कविता में भी और गद्य में भी। उन्हें जानने वालों को लगता था कि मंगलेश कोरोना से भी नहीं हार सकते।
अभी एक दिसंबर को ही निजी अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे अर्द्धचेतनावस्था में उन्होंने फेसबुक पर कुछ लिखने-कहने की कोशिश की थी-,e by see p.संकेत में कुछ कहने का प्रयत्न जैसा यह कुछ लगता है या कुछ और आगे कह पाने में असमर्थ होने का संकेत। इसके बाद आल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में भर्ती होने के बाद और अभी चार-पाँच दिन पहले ही मित्र रवींद्र त्रिपाठी से उन्होंने संक्षिप्त बात की थी। इससे लगता था कि एम्स के कुशल डाक्टर और वह स्वयं आत्मबल से कोरोना संकट से बाहर निकल ही आएँगे,बस समय लगेगा। उनकी हालत से इतने लोग चिंतित थे और इतनों की शुभेच्छाएँ उनका हर तरह से सहयोग करने की थी कि जिसकी कल्पना इस समय करना कठिन है।
वह हमारे समय के सबसे चर्चित और सबसे सक्रिय कवियों-लेखकों में थे। उनकी चौतरफा तैयारी और सक्रियता नौजवान कवियों-लेखकों के लिए भी एक आदर्श थी। वह कविता के अलावा लगातार गद्य भी लिख रहे थे। इसी वर्ष उनका एक कविता संग्रह तथा संस्मरणों की एक पुस्तक आई थी। भारतीय शास्त्रीय संगीत की उनकी समझ के सभी कायल थे। उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर अपने प्रिय गायकों पर इस बीच कुछ अविस्मरणीय लेख लिखे थे। उन्होंने दुनिया के बहुत से कवियों के बहुत प्रमाणिक और बहुत सुंदर अनुवाद किए हैं। हम सभी इन अनुवादों के कायल रहे हैं। फेसबुक पर उनकी सक्रियता गजब थी। शायद ही कोई दिन जाता हो, जब किसी न किसी रूप में वह अपनी उपस्थिति दर्ज न करते हों। कभी- कभी वह एक योद्धा की तरह दीखते थे, चाहे हमला उनके किसी कथन या कविता पर हो या कोई और व्यापक मुद्दा हो। उनकी निगाहें साहित्य ही नहीं, हमारे समय के राजनीतिक विद्रूप पर भी लगातार रहती थी। वह इस समय जितने बेचैन, व्यथित और बदलने की इच्छा से भरे हुए थे,ऐसे हिंदी कवि इस समय कम मिलेंगे।
वह उन हारे-थके हुए कवियों में नहीं थे,जिनका वक्त ने साथ छोड़ दिया मगर जो वक्त का हाथ जबर्दस्ती पकड़े हुए घिसट रहे हैं। वह अपार ऊर्जा से भरे हुए थे। अभी अक्टूबर के अंत में उन्होंने मुझे भी साथ लिया और बहुत बड़ी लेखक-कलाकार बिरादरी को बिहार चुनाव में धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के पक्ष में खड़ा किया। वह इस समय हिंदी कवियों में अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे। हमारी पीढ़ी के वह ऐसे अकेले कवि थे, जिनकी राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान भी इस बीच बनी थी।
भारत की शायद ही कोई भाषा हो, जिसमें उनकी कविताओं का अनुवाद न हुआ हो। विदेश की भी संभवतः कोई विरली ही प्रमुख भाषा रही होगी, जिसमें उनके अनुवाद न हुए हों। उनके कवि मित्रों की बिरादरी भाषाओं और देशों के पार थी। जीवन में उनके और उनसे भी कइयों के कई मतभेद रहे मगर कवि -लेखक के रूप में उनकी प्रतिभा से शायद ही कोई इनकार कभी कर पाया हो, जबकि किसी को भी सिरे से नकार देने का रिवाज हमारी भाषा में बहुत है।
यों शैक्षणिक दृष्टि से उनके पास कोई डिग्री नहीं थी, न इसकी कभी उन्होंने कोई जरूरत महसूस की, न इस कारण अपने को कभी किसी से कमतर महसूस किया। उन्होंने जो भी योग्यता हासिल की, अपने कठिन अध्यवसाय से हासिल की। कोई चार दशक से भी पुरानी बात रही होगी। उस समय ऋत्विक घटक किसी सिलसिले में दिल्ली आए थे और हम दोनों अपने मित्र नेत्रसिंह रावत के साथ उनसे मिलने गए थे। हमारी पीढ़ी सत्यजित राय से भी अधिक उनसे प्रभावित थी। हम दोनों का परिचय कवि के रूप में उनसे करवाया गया। हमारी कविताएँ सुनने से पहले ऋत्विक दा ने मंगलेश से कहा, तुम कवि हो तो अच्छा कालिदास की कुछ पंक्तियाँ सुनाओ। मंगलेश ने उन्हें तुरंत सुना दिया और उस परीक्षा में उस समय भी वह पास हुए। अंग्रेजी पर भी उनका अच्छा अधिकार था।
उनके और मेरे संघर्ष के दिनों से उनका साथ रहा। नौकरियों के संदर्भ में उन्हें हिंदी प्रदेशों में काफी भटकना पड़ा। दिल्ली में भी उन्होंने कई नौकरियाँ कीं और छोड़ीं। इन कठिन जीवन संघर्षों के दौरान ही उनका लिखना-पढ़ना जारी रहा। उनके आदर्श रघुवीर सहाय थे, जिनसे उनकी व्यक्तिगत निकटता बहुत रही। 9 दिसंबर को रघुवीर जी का जन्मदिन था लेकिन अब यह दिन मंगलेश के हमसे बिछुड़ने के दिन की तरह शायद अधिक याद किया जाए। इसी दिन हिंदी के एक और फक्कड़ और बड़े कवि त्रिलोचन शास्त्री भी नहीं रहे थे और अब मंगलेश भी नहीं हैं।
1970 में जब अशोक वाजपेयी की पहली मगर बेहद चर्चित आलोचना पुस्तक ' फिलहाल' छपी थी, तब उस समय के जिन नये कवियों पर उन्होंने चर्चा की थी, उनमें मंगलेश डबराल भी थे, जबकि उनकी पीढ़ी के अन्य बहुत से कवि कहीं साहित्यिक दृश्य में भी नहीं थे। 1981 में प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन' से पहले ही हिंदी कविता की दुनिया में उन्हें बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था। उनके दूसरे कविता संग्रह का नाम था-'घर का रास्ता'। वह रास्ता अपनी कविताओं में तो वह बार- बार तलाशते रहे मगर वास्तविक जीवन में उसे पाना इतना आसान कहाँ था! जब कोई अपना गाँव घर छोड़कर दिल्ली-बंबई जैसे महानगर में आने को मजबूर हो जाता है तो फिर घर का रास्ता पता होने पर भी घर लौटना कहाँ आसान रह जाता है! उन्हीं की एक कविता का अंश है:
मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया
यहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया।
भौतिक रूप से तो वह वापस नहीं गए मगर उनकी कितनी ही कविताएँ इस बात की गवाह हैं कि उनका एक कदम इधर था तो दूसरा उधर भी था। वह इस और उस दोनों दुनियाओं की राजनीतिक-सामाजिक जटिलताओं से वाकिफ थे, इसलिए न गाँव गाँव करते घूमते थे, न शहर-शहर।
वह शुरू से विश्वासों से वामपंथी रहे और इसमें कभी विचलन नहीं आया। 2015 में जब साहित्य अकादमी ने अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या पर मौजूदा सत्ता के भय से अकादमी ने शोकसभा तक करने से इनकार कर दिया था तो भारतीय भाषाओं के जिन करीब पचास लेखकों ने अपना विरोध व्यक्त करने के लिए अकादमी पुरस्कार लौटाया था,उनमें मंगलेश डबराल अग्रणी थे, जिसे हुक्मरानों ने और उस समय के अकादमी अध्यक्ष ने इसे कुछ लेखकों का षड़यंत्र तक बताया था और इन लेखकों को अवार्ड वापसी गैंग कहा था। यह पुरस्कार मंगलेश को आज से बीस वर्ष पहले मिला था। उम्र के अस्सीवें वर्ष के बाद मिलनेवाले कुछ पुरस्कारों को छोड़ दें तो उन्हें सभी महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले थे मगर पुरस्कारों से अधिक महत्वपूर्ण होता है कविता की दुनिया में कवि का अकुंठ सम्मान। वह उन्हें भरपूर प्राप्त हुआ। हाल ही में उनका एक कविता संग्रह अंग्रेजी में एक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन से आया था। भारतीय भाषाओं में तो उनके संग्रह आते ही रहे। इतने सम्मानों से नवाजा गया यह कवि सत्ता के विरोध के हर मंच पर उपस्थित रहता था, भले कवि के रूप में किसी समारोह में बुलाए जाने और उसके निमंत्रण को स्वीकार करने के बाद भी वह किसी कारण जाना टाल जाए। वह उन कवियों और व्यक्तित्वों में रहेंगे, जिन्हें मृत्यु के बाद श्रद्धांजलि देकर फिर भुला नहीं दिया जाता। उनके अंतिम कविता संग्रह 'स्मृति एक दूसरा समय है' की एक छोटी कविता शायद आज उनकी अनुपस्थिति में उन पर अधिक मौजूं है:
अपने ही भीतर मरते जा रहे हैं
जीवित लोग
मैं उम्मीद से देखता हूँ मृतकों की ओर
वे ही हैं जो दिखते हैं जीवित।
(लेखक वरिष्ठ कवि-लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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